बाड़मेर सीट से भाजपा ने कैलाश चौधरी को तो कांग्रेस ने भाजपा नेता जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह को मैदान में उतारा है. दोनों ही ऐसी जाति से ताल्लुक रखते हैं, जिनमें सालों से छत्तीस का आंकड़ा रहा है.
बाड़मेर संसदीय सीट का चुनावी दंगल न केवल उम्मीदवारों की वजह से रोचक है बल्कि जातिगत नजरिए से भी यह एक दिलचस्प मुकाबला है. सुदूर पश्चिम में भारत-पाक सीमा के क़रीब स्थित इस लोकसभा सीट पर अपना कब्ज़ा जमाने के लिये भारतीय जनता पार्टी व कांग्रेस दोनों ही दलों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है. यहां मुद्दा सिर्फ हार-जीत का नहीं है बल्कि यह छवि और संदेश देने का भी मसला है.
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Contributeएक तरफ कांग्रेस ने मानवेंद्र सिंह (भाजपा के दिग्गज नेता व पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह के बेटे) को टिकट दिया है तो भाजपा ने अपने पूर्व विधायक कैलाश चौधरी के ऊपर भरोसा जताया है. मानवेंद्र राजपूत समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, जबकि कैलाश जाट समुदाय से आते हैं.
रेगिस्तान के इस इलाके में पानी और भरोसा बहुत गहराई में मौजूद होता है. आसानी से नहीं मिलता, विशेषकर जातियों के बरक्श. बाड़मेर के ये दोनों उम्मीदवार ऐसी जातियों से ताल्लुक रखते हैं जो परंपरागत रूप से एक दूसरे की प्रतिद्वंद्वी रही हैं. इस वजह से यहां की चुनावी जंग और अधिक आक्रामक रुख लेती नज़र आती है.
कांग्रेस के उम्मीदवार मानवेंद्र सिंह ने पिछले साल ही भाजपा छोड़ी है.
बाड़मेर संसदीय क्षेत्र में कुछ आठ विधानसभाएं आती हैं. इनमें जैसलमेर, बाड़मेर, शिव, बायतू, पचपदरा, सिवाना, गुढ़ामलानी व चोहटन सीटें आती हैं. यहां की आबादी में जाट, राजपूत, मुस्लिम, दलित व सवर्ण तबके (ब्राह्मण, वैश्य आदि) का दबदबा है. कांग्रेस यहां राजपूत, मुस्लिम, दलित (मेघवाल) मतदाताओं का समर्थन मिलने की उम्मीद कर रही है. तीनों ही तबके परंपरागत रूप से तो ग़ैरभाजपायी रुझान वाले हैं लेकिन जसवंत सिंह की वजह से कुछ हद तक उन्होंने भाजपा को समर्थन दिया है. अब जबकि मानवेंद्र सिंह ने कांग्रेस से हाथ मिला लिया है तो संभव है कि इन तबकों का वोट भी भाजपा से खिसककर उधर ही जाएगा.
राजपूत परंपरागत रूप से भाजपा का वोटर रहा है, लिहाजा मानवेंद्र सिंह को इस वोटबैंक को अपने पाले में लाने में कोई खास दिक्कत नहीं होगी क्योंकि वे खुद राजपूत हैं. लेकिन कांग्रेस के लिए जाट वोटबैंक में सेध लगा पाना नामुमकिन होगा क्योकि उनके वोट का मोटा-मोटा आधार जाति ही होता है. इस इलाके में जाटों का दशकों पुराना नारा है- “जाट का वोट और जाट की बेटी, जाट को”. साथ ही यहां के चुनावी परिदृश्य से एक बात यह भी साफ होती है कि जाट समुदाय का पूरा प्रयास रहता है कि एक-एक वोट डाला जाये. दूसरी तरफ आंकड़े बताते हैं कि राजपूत महिलाओं का मत-प्रतिशत तुलनात्मक रूप से बेहद कम होता है.
दोनों ही दलों ने चुनाव जीतने के लिये पूरी ताकत लगा दी है. भाजपा ने मतदाताओं को अपने पाले में खींचने के लिये न केवल प्रधानमंत्री मोदी की जनसभा आयोजित की बल्कि हाल ही में पार्टी में शामिल हुए सनी देओल (जाट समुदाय के) का भी चुनाव अभियान में इस्तेमाल किया है. लेकिन चीज़ें उतनी आसान भी नहीं हैं. दोनों ही दलों में ख़ास तौर पर उम्मीदवारों के चयन की वजह से तमाम उथल-पुथल भी देखने को मिल रहा. प्रमुख स्थानीय नेताओं में अपनी अवहेलना पर थोड़ी नाराज़गी है, जिस वजह से वे चुनाव अभियान में शामिल नहीं हो रहे. कांग्रेस के विधायक व प्रदेश सरकार में मंत्री हरीश चौधरी ने तो खुले तौर पर पार्टी से अपनी पीड़ा ज़ाहिर कर दी थी लेकिन मोदी की जनसभा के बाद हरीश क्षेत्र में चुनाव अभियान में उतर गये हैं.
दूसरी तरफ़ कर्नल सोना राम चौधरी हैं, जिन्होंने इस बार अपनी सीट छोड़ दी है. वे हालिया विधानसभा चुनाव में बतौर उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे लेकिन उन्हें इसमें हार नसीब हुई. चर्चा यह भी है कि भाजपा की तरफ़ से टिकट काटने के बाद वे पार्टी से नाराज़ चल रहे हैं. उन्होंने खुद को मोदी की जनसभा से भी दूर रखा था लेकिन अब वे कैलाश चौधरी के लिए वोट मांगते देखे जा रहे हैं. दोनों ही उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में फ़तह हासिल करने के लिये जहां जातिगत द्वंद्व से भी पार पाना है. एक तरफ उन्हें अपने विरोधी का सामना करना हो तो दूसरी तरफ अपने लोगों को एकजुट रख पाने की चुनौती भी है.
राजस्थान के सीमावर्ती ज़िलों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी ज़मीनी तौर पर बेहद सक्रिय रहता है और इसके संगठन-कार्यकर्ता पूरे समर्पण के साथ कैलाश चौधरी की जीत सुनिश्चित करने के लिए काम कर रहे हैं.
अपने अभियानों में जहां मानवेंद्र ‘न्याय’ की बात करते रहे हैं, वहीं कैलाश अपने हर संबोधन में विकास का जिक्र करते हैं. लेकिन दोनों की रणनीतियां जाति व समुदाय के इर्द-गिर्द ही घूम रही हैं. इस बार बाड़मेर संसदीय क्षेत्र में ऐसे मुद्दों की कमी नहीं रही है, जो चुनाव में जीत-हार के मद्देनज़र निर्णायक हो सकते थे, लेकिन जाति का मुद्दा दूसरे तमाम मुद्दों पर भारी पड़ता जान पड़ रहा है. सारी चुनावी रणनीतियां अब जातीय समीकरणों के इर्द-गिर्द ही घूम रही हैं.
मज़े की बात है कि दोनों ही उम्मीदवार विधानसभा का चुनाव लड़ कर हार चुके हैं.
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