कुली बाज़ार 4: ‘महर्षि’ से एक अराजनीतिक साक्षात्कार

महर्षि का साक्षात्कार: ऐसा समय जो कभी बदलता नहीं.

WrittenBy:अविनाश मिश्र
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एक समय की बात है, कहीं एक ‘महर्षि’ प्रवचन दे रहे थे कि अपनी एक हज़ार वर्षों की साधना से मैंने यह सत्य पाया है कि… इस पर प्रवचन-स्थल पर उपस्थित एक तार्किक व्यक्ति ने बग़ल में बैठे भक्त से पूछा कि इन महर्षि की आयु क्या है? भक्त उवाच : ‘‘ठीक-ठीक मैं नहीं बता सकता, क्योंकि इन्हें सुनते हुए अभी मुझे मात्र पांच सौ वर्ष ही हुए हैं.’’

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‘महर्षि’ का बचपन वन में और बचपन के बाद का जीवन में प्रवचन में गुज़रा और गुज़र रहा है. ‘महर्षि’ के बचपन में दो वस्तुओं का प्रमुखता से अभाव था, एक प्रवचन का और दूसरा आम या कहें आमों का. प्रवचन के अभाव की पूर्ति में समय था, इसलिए आम के अभाव की पूर्ति के लिए वह खेतों की ओर चले जाते थे. तर्क इस पंक्ति को रेखांकित कर सकता है, यह भूलकर कि खेत में भी बाग़ हो सकता है और वह समय उदारतापूर्वक चोर को चोर न समझने का था. संयोग से यह समय बदला नहीं है.

एक दृश्य : सुबह के पांच बज चुके हैं और तीन-सवा-साढ़े-तीन घंटे की नींद पूरी कर ‘महर्षि’ उठ चुके हैं. वह उठकर आंख नहीं मलते, बग़ैर चीनी की चाय पीते हैं. बचपन में बग़ैर चीनी की चाय वह आम जन को पिलाते थे और उनकी घनघोर डांट खाते थे. यह वह समय था जब सीधे आसमान से उनका संपर्क था और वह ‘मैं मुझसे मिलने जाता हूं’ कार्यक्रम के अंतर्गत घर को मल की तरह त्याग देते थे. संयोग से यह समय बदला नहीं है.

घर की स्मृति एक मारक वस्तु है. तब तो और भी जब घर में मां हो. इसलिए ‘महर्षि’ कभी-कभी ‘मैं मां से मिलने जाता हूं’ कार्यक्रम के अंतर्गत घर लौटते थे. मां उन्हें सवा रुपए देकर जल्द से जल्द विदा करती थीं. तब चवन्नी चला करती थी. लेकिन धीरे-धीरे इस मुल्क में पांच हज़ार के जूते और तीन लाख की घड़ी का बाज़ार खुला. यह मनमोहन सिंह के समय की बात है. चवन्नी में चाय मिलना बंद हो गई. भिखारी उसे लेने से बचने लगे और एक रोज़ चवन्नी ने चलने से इनकार कर दिया. वह अतीत का अंग हो गई.

बाद इसके जब ‘महर्षि’ ‘मैं मां से मिलने जाता हूं’ कार्यक्रम के अंतर्गत पुनः घर लौटे, तब उन्होंने मां को चवन्नी लौटाते हुए कहा कि एक रोज़ मैं इस मुल्क में चलने वाली सबसे बड़ी मुद्रा को बंद कर दूंगा और उससे भी बड़ी मुद्रा लाऊंगा.

‘मैं मां से मिलने जाता हूं’ कार्यक्रम के अंतर्गत ‘महर्षि’ पुनः-पुनः घर लौटते रहे और मां उन्हें वही चवन्नी एक के सिक्के के साथ बार-बार लौटाती रहीं और लौटने पर वह भी. संयोग से यह समय बदला नहीं है.

‘महर्षि’ के पास अलादीन का नहीं, अलाउद्दीन का चिराग़ था. अलाउद्दीन (1296-1316) दिल्ली सल्तनत के खिलजी वंश का दूसरा शासक था। अलाउद्दीन का यक़ीन हमलों और हत्याओं में था. सत्ता के लिए वह विश्वासघातपूर्वक अपने निकटवर्तियों को मौत के या किसी भी ऐसे घाट जहां सांस लेना संभव न हो, उतार देता था. संयोग से यह समय बदला नहीं है.

श्रम में सराहनापूर्ण और शर्म में उपेक्षापूर्ण आस्था रखने वाले ‘महर्षि’ अतिआत्मविश्वास के जिलाए हुए थे. वह कभी पढ़कर नहीं बोलते थे. लिखने-पढ़ने को वह संदेह से देखते थे और अभिनेताओं को अभिनय की इस अदा से कि आओ कभी हवेली पे. अभिनेता पहुंच भी जाते थे. उन्हें लगता था कि इस तरह वे अपनी फ्रटर्निटी के कुछ लोगों को यह संदेश दे सकेंगे कि ‘महर्षि’ की काली-काली आलोचना करना व्यर्थ है. उन्हें एक ‘अराजनीतिक’ नज़रिए से देखिए. वह रचनात्मकता की क़द्र करते हैं. बचपन से ही वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जा रहे हैं, जहां सामूहिक रूप से संघ के खेल खेलना सिखाया जाता है, जिसमें एक खेल के अंतर्गत राइट साइड में बैठे व्यक्ति की एक ख़ूबी बतानी पड़ती है. संयोग से यह समय बदला नहीं है.

सिनेमा के आविष्कार में ‘महर्षि’ की महती भूमिका थी. यह उनका आलोक ही था कि सब तरफ़ एक सिनेमा चलता हुआ नज़र आता था. इस दरमियान एक अभिनेत्री ‘महर्षि’ के सामने उनसे आंख मिलाते हुए टांग पर टांग रखकर बैठती थी. एक अभिनेता भी ‘महर्षि’ के सामने टांग पर टांग रखकर बैठता था, लेकिन उनसे आंख चुराते हुए. अभिनेता कभी बैरा था और ‘महर्षि’ को समझने का दावा करता था. ‘महर्षि’ को इस दावे पर ग़ुस्सा आता था, लेकिन वह उसे प्रकट नहीं करते थे. वह मन ही मन इस पूरे प्रकरण को तीन-चार पृष्ठों में लिखकर अपनी ग़ुस्से से भरी भावनाओं पर क़ाबू पाते थे. शनैः-शनैः यह उनके व्यक्तित्व का अंश होता चला गया. उन्हें अब ग़ुस्सा नहीं आता था. वह दिन गए जब आता था और पानी मांगना पड़ता था, जबकि पानी सामने ही रखा होता था. संयोग से यह समय बदल गया है.

‘महर्षि’ उल्टी घड़ी पहनते थे. समय को प्रतिगामी ढंग से संचालित करना उनका स्वभाव था. इस स्वभाव का वह बहुत सख़्ती और अनुशासन के साथ पालन करते थे. बचपन से ही वह संन्यासी या सैनिक बनना चाहते थे. संयोग से यह समय बदला नहीं है.

‘महर्षि’ ने तबेले में हिंदी सीखी थी. वह जब दूसरे महादेश के राष्ट्राध्यक्ष से मिलते थे तो तू-तड़ाक में बात करते थे. उन्हें दूसरे राष्ट्राध्यक्ष की भाषा का ज्ञान नहीं था. दुभाषिए की मदद से उनका यह संवाद फ़िल्टर होकर राष्ट्राध्यक्ष तक पहुंचता था. राष्ट्राध्यक्ष ‘महर्षि’ से आत्मीयतापूर्वक और अधिक सोने के लिए कहते थे. ‘महर्षि’ कहते थे कि सेवानिवृत्ति के बाद वह अपनी नींद की अवधि बढ़ाएंगे. अभी तो कई मुक़दमे चल रहे हैं. संयोग से यह समय बदला नहीं है.

‘महर्षि’ को उनके विरोधियों से भी उपहार मिलते थे. वह ममताओं, हसीनाओं और ग़ुलामों सबके एक साथ प्रिय थे. लेकिन ‘महर्षि’ यह समझ नहीं पाते थे कि आख़िर यह मुल्क उनसे इतना प्रेम क्यों करता है. वह अपने वस्त्रों की ओर देखते थे और सोचते थे कि कितने दिन हो गए, ख़ुद अपने वस्त्र धोए हुए. वह पूरे मुल्क को धोकर चमका देने का चकमा देकर स्मृति के तालाब में तैरते हुए दूर निकल जाते थे. ओ पवन वेग से उड़ने वाले घोड़े… उनका प्रिय गीत था. संयोग से यह समय बदला नहीं है.

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