जब आज वामपंथी पार्टियां कन्हैया कुमार की जीत को लेकर आस लगाये बैठी हैं, तो बेगूसराय की ज़मीन पर 'लाल मिट्टी' की ख़ुश्बू को तलाशना ज़रूरी हो जाता है.
लोकसभा चुनाव 2019 की सरगर्मियों के बीच कई पार्टियां अपनी राजनीतिक ज़मीन बचाने की जुगत में लगी है. इनमें देश का सबसे पुराना वामपंथी दल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) भी है. पिछले आम चुनाव में पूरे देश में सिर्फ़ एक सीट पर सिमटी पार्टी अब ‘शून्य’ में नहीं जाना चाहती.
जनांदोलन और किसान मज़दूरों के हक़ में बात करने वाली पार्टी का क्या जनता ने पूरी तरह से साथ छोड़ दिया है? आज जब हिंदी पट्टी में वामपंथ के ‘अप्रासंगिक’ होने को लेकर आये दिन सभाएं और गोष्ठियां होती हैं तो ऐसे समय में पूरा देश बेगूसराय की ओर नज़रें टिकाये है. 2014 लोकसभा चुनाव में मिली ज़बरदस्त हार के बाद वामपंथी राजनीति पर ही सवाल उठने लगे. जब आज वामपंथी पार्टियां कन्हैया कुमार की जीत को लेकर आस लगाये बैठी हैं, तो यहां की ज़मीन पर ‘लाल मिट्टी’ की ख़ुश्बू को तलाशना ज़रूरी हो जाता है.
‘दिनकर की धरती’, ‘पूरब का लेनिनग्राद’, ‘बिहार की औद्योगिक राजधानी’ और भी कई नामों से बेगूसराय जाना जाता है. एक बार फिर बेगूसराय में ‘लाल झंडे’ और ‘वामपंथ’ जैसे शब्दों की चर्चा ज़ोरों पर है. ज़िले में नयी पीढ़ी के लोग इन शब्दों का अर्थ खोजने में लगे हैं. एक वक़्त में ‘वामपंथी आंदोलन का गढ़’ बना बेगूसराय ‘लेनिनग्राद’ कहलाया और बीहट गांव को ‘मिनी मॉस्को’ कहकर बुलाया जाने लगा. लेनिनग्राद रूस से आया हुआ शब्द है. रूस में 1917 की क्रांति के बाद सेंट पीटर्सबर्ग शहर का नाम बदलकर लेनिनग्राद कर दिया गया था. यह रूसी क्रांति का केंद्र था. हालांकि सोवियत संघ के विघटन के बाद पुनः इसका नाम सेंट पीटर्सबर्ग हो गया.
1956 में बेगूसराय के विधानसभा उपचुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के उम्मीदवार चंद्रशेखर सिंह ने जीत हासिल की. इस जीत के साथ ही बिहार विधानसभा में कम्युनिस्टों का खाता खुला. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र रह चुके चंद्रशेखर बिहार सरकार में तत्कालीन मंत्री रहे रामचरित्र सिंह (कांग्रेस) के बेटे भी थे. चंद्रशेखर की जीत बेगूसराय सहित पूरे हिंदी क्षेत्र में एक क्रांतिकारी जीत के रूप में देखी गयी. इसे लेकर बेगूसराय के पूर्व सांसद और वरिष्ठ सीपीआई नेता शत्रुघ्न प्रसाद सिंह कहते हैं, “जब वे जीत कर बिहार विधानसभा पहुंचे तो तब के एक अख़बार ‘सर्चलाइट’ ने लिखा था- ए रेड स्टार इन बिहार असेंबली.”
चंद्रशेखर की जीत के बाद भूमिहार और अन्य जातियों के नौजवानों का एक अच्छा तबका उनसे प्रभावित होकर पार्टी से जुड़ने लगे. उच्च वर्ग के ज़मींदारों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने के कारण पिछड़ी जातियों का भी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति रुझान बढ़ा. इसके बाद चंद्रशेखर ने पार्टी के दूसरे नेताओं के साथ मिलकर ज़िले में मज़दूरों और भूमिहीनों के पक्ष में आंदोलन को छेड़ दिया और पार्टी को पूरे ज़िले में फैलाया. इन आंदोलनों के कोर में जहां एक तरफ़ रूसी क्रांति की चमक थी, वहीं दूसरी तरफ़ यहां की सामाजिक स्थितियां भी ज़िम्मेदार थी. 20वीं सदी में दुनिया के अनेक हिस्सों में जिस तरीके से सामंतवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ समाजवादी आंदोलन हुए थे, बेगूसराय के अंदर भी उसी की एक छाप थी. 1960 और 70 के दशक में ज़िले के भूमि आंदोलनों ने जहां भूमिहीनों और बटायेदारों को मालिकाना हक दिलाया, साथ ही यहां की ज़मीन पर वामपंथी दलों को अपनी पकड़ मज़बूत करने में अहम भूमिका निभायी. इस आंदोलन के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी के दर्जनों लोगों की हत्या यहां के ज़मींदारों और माफ़ियाओं ने करवायी थी.
सिंह कहते हैं, “अंग्रेजों के द्वारा इस ज़िले में बहुत सारे भू-सामंतों को जागीर दी गयी थी. जिसमें नावकोठी एस्टेट, वाजिदपुर एस्टेट और इस तरह के कई एस्टेट निर्मित किये गये. नावकोठी एस्टेट के पास 3,000 एकड़ से ज़्यादा ज़मीन थी. जो सरकार द्वारा निर्धारित सीमा से कहीं ज़्यादा थी. इसी के ख़िलाफ़ पहला बड़ा आंदोलन किया गया और लाल झंडा गाड़कर भूमिहीनों में इस ज़मीन का वितरण कर दिया गया. इन भूमिहीनों में शोषित भूमिहार सहित सभी जाति और तबके के लोग थे. इसमें हमारे दर्जनों लोग शहीद हुए.”
बेगूसराय में इतिहास के प्रोफ़ेसर अरविंद सिंह कहते हैं, “मंत्री पुत्र रहते हुए भी चंद्रशेखर ने कांग्रेस के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला था. जो त्याग इन्होंने किया, इसका प्रभाव पूरे बेगूसराय क्षेत्र पर पड़ा. इसके बाद दूसरे अन्य विधानसभाओं में भी लगातार जीत मिली. भारतीय जनता पार्टी के दिवंगत पूर्व सांसद भोला सिंह भी चंद्रशेखर के प्रभाव से सीपीआई से जुड़े थे. लगातार बढ़ते इस प्रभाव के कारण इसे लेनिनग्राद कहा जाने लगा.”
इन भूमि आंदोलनों में चंद्रशेखर सिंह के अलावा सूर्य नारायण सिंह (पूर्व सांसद), सीताराम मिश्र, इंद्रजीत सिंह, रामचंद्र पासवान, देवकीनंदन सिंह, जोगिंदर शर्मा जैसे कई बड़े नेताओं ने भाग लिया था. भूमि आंदोलन के अलावा बेगूसराय मज़दूर आंदोलन का भी बड़ा गढ़ रहा. सामाजिक न्याय का संघर्ष भी उसी वक़्त शुरू हो गया था. जो ज़मींदार भूमिहार निचली जातियों के यहां बैठने से कतराते थे, उसी भूमिहार जाति के कई कम्युनिस्ट नेता निचले तबकों के साथ बैठकर खाना खाते थे और अन्याय के ख़िलाफ़ सबको एकजुट करते थे.
बेगूसराय में सीपीआई के एक और वरिष्ठ नेता प्रताप नारायण सिंह कहते हैं, “यहां भूमिहार जमींदारों का ज़बरदस्त आक्रांत था. निचले तबके के लोग भूमिहारों के पैर मलते था. वे कुर्सी पर नहीं बैठ सकते थे. अपने घर के बाहर भी खटिया पर नहीं बैठ सकते थे. सीपीआई के नौजवानों ने उस वक़्त इन सभी चीज़ों के ख़िलाफ़ लड़ा और उसके बाद सभी तबकों का सम्मान और मनोबल बढ़ा. ये सभी तबके पार्टी के साथ जुड़े और फिर ज़िले के कई विधानसभा सीटों पर लंबे समय तक सीपीआई ने जीत हासिल की.”
ज़िले में गढ़ बनाने वाली सीपीआई ने बेगूसराय संसदीय सीट पर पिछले 23 सालों से जीत हासिल नहीं की है. लेकिन विधानसभा चुनावों में जीत मिलती रही. आख़िरी जीत 2010 के विधानसभा चुनाव (बछवाड़ा सीट) में मिली थी. वहीं इससे पहले बेगूसराय के बलिया लोकसभा से सूर्य नारायण सिंह ने 1980, 1989 व 1991 और शत्रुघ्न प्रसाद सिंह ने 1996 में जीत हासिल की थी. वहीं बेगूसराय लोकसभा सीट से 1967 में योगेंद्र शर्मा ने जीत हासिल की थी. साल 2009 में परिसीमन के बाद एक बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र बना. पार्टी को इन दो दशकों में भले ही जीत न मिली हो, लेकिन लगातार दूसरे या तीसरे नंबर पर बनी रही.
कैसे धुंधली पड़ी ‘लेनिनग्राद’ की चमक
बेगूसराय में जिस तेज़ी के साथ वाम दलों का प्रभाव बढ़ा, 90 के दशक के बाद उतनी ही तेज़ी से इनकी ज़मीनी पकड़ गायब भी होने लगी. लोगों ने इसे मंडल आंदोलन का असर माना और बिहार में लालू यादव के उभार ने समाज के निचले तबकों को अपनी ओर खींचा. ज़िले में भूमिहारों का वर्चस्व है इसमें कोई दोराय नहीं है. औद्योगिक ज़िला होने के कारण ठेकेदारों का यहां की राजनीति में भी दखल है. और अधिकतर ठेकेदार भूमिहार जाति के ही हैं. ज़िले में भूमिहारों की आबादी 20 फ़ीसदी, कुर्मी-कोइरी 13 फ़ीसदी, यादव 12 फ़ीसदी, ब्राह्मण 5 फ़ीसदी, एससी 14 फ़ीसदी, राजपूत 4 फ़ीसदी है. लालू यादव ने जब पिछड़ी जातियों के बीच राजनीतिक आह्वान किया तो बड़ी संख्या में लोग आकर्षित हुए. हालांकि बेगूसराय के कम्युनिस्ट नेताओं का कहना है कि लालू यादव को कम्युनिस्ट पार्टी के द्वारा बनाये गये आंदोलनों का फ़ायदा मिला.
शत्रुघ्न सिंह बताते हैं, “ज़िले में जब ग़ैरभूमिहार के बेटे की शादी होती थी, तो उसकी दुल्हन पहली रात भूमिहार के दरबार में रहती थी. भूमिहारों का इस तरह का ज़ुल्म था. यहां के नेताओं ने ही आम लोगों के सहयोग से इस प्रथा को ख़त्म किया. छुआछूत को ख़त्म किया. सामाजिक अन्याय को ख़त्म किया. रामविलास पासवान, नीतीश कुमार और लालू यादव ने नहीं किया. वे लोग जाति के नेता हुए. लोहियावादियों ने नहीं किया. हमलोगों ने जो आधार तैयार किया, उससे ये लोग आगे बढ़े.
इस पर शत्रुघ्न सिंह कहते हैं, “हमारे सामाजिक आंदोलन से लालू यादव बढ़े. हमारी पार्टी के नेताओं ने अयोध्या आंदोलन में रथ पर सवार लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी के लिए फ़ैसला लेने को कहा था. लालू यादव को सीपीआई ने कहा था कि यह देश में सांप्रदायिक उन्माद फैलायेगा , इसे गिरफ़्तार करो. ये हमारी पार्टी का फ़ैसला था. लेकिन इसका श्रेय उन्होंने ले लिया. हमारी पार्टी की सांगठनिक और राजनीतिक कमजोरी रही कि हम उसी को सामाजिक न्याय का मसीहा मान लिए और अपनी छवि उसी पर आरोपित किया.”
वहीं ज़िले में कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर की अपनी कमज़ोरियों ने भी राजनीतिक दबदबे को बहुत हद तक कम कर दिया. बेगूसराय एक औद्योगिक ज़िला रहा है, यहां बरौनी रिफ़ाइनरी, थर्मल पावर और फर्टिलाइजर कारखाना मौजूद है जिसके कारण वाम दलों का मज़दूर यूनियन भी सक्रिय रहा. स्थानीय लोग यूनियन के नेताओं पर चरित्र बदलाव का आरोप ज़रूर लगाते हैं.
अरविंद सिंह कहते हैं, “अब कम्युनिस्ट पार्टी में जो भी आते हैं वो लाभ के ख़्याल से आते हैं. यूनियन के नेताओं ने लोगों के चंदे से करोड़ों रुपये कमाये. नीचे के कार्यकर्ताओं ने देखा कि नेता करोड़ों कमा रहे हैं और हम झंडे ढो रहे हैं. जिसके कारण लोगों का मोहभंग हुआ. जो बीहट मिनी मॉस्को कहलाता था, वहां 2001 में 4 में से 3 पंचायत में सीपीआई की शर्मनाक हार हुई. सिर्फ़ 1 सीट पर मामूली जीत मिली. बीहट में हार के साथ पूरे ज़िले पर प्रभाव पड़ा.”
सिंह कहते हैं कि जब तक मेहनतकशों और ग़रीब तबकों के लिए भूमि और सामाजिक आंदोलन चला, तब तक पार्टी काफ़ी मज़बूत थी. बड़े-बड़े ज़मींदारों की ज़मीन पर चढ़ाई कर पर्चा कटवाते थे. लेकिन इन मूल चीज़ों को छोड़कर जब यूनियन के अंदर कमाई होने लगी, करोड़पति बनने लगे, तो फिर लोगों का विश्वास घटा और बिखरते चले गये.
वे कहते हैं, “इसके बाद ज़िले के बुद्धिजीवियों का भी बड़ी संख्या में पलायन हुआ. 1992 में 40 शिक्षकों ने राम रतन सिंह के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद कार्रवाई नहीं करने के कारण सीपीआई से इस्तीफा दे दिया था.”
क्या है पार्टी की मौजूदा स्थिति
बेगूसराय में सात विधानसभा में एक भी सीट पर अभी पार्टी के विधायक नहीं हैं. सीपीआई के तरफ़ से कन्हैया कुमार के प्रत्याशी बनने के बाद लोगों का रूझान पार्टी की तरफ़ बढ़ता दिख रहा है. जातीय समीकरण तो पूरी तरीके से हावी है, लेकिन पार्टी नेताओं को भरोसा है कि लोग इससे ऊपर उठकर वोट करेंगे. जब मैंने ज़िला कार्यालय का दौरा किया तो वहां मौजूद नेताओं ने कहा कि यह एक ‘बदलाव’ का समय है. पूरे जिले में अभी पार्टी के 12,000 सदस्य हैं और कन्हैया के ज़िले में पहुंचने के बाद युवा लगातार पार्टी से जुड़ रहे हैं.
पिछले साल सीपीआई से जुड़ने वाले रचियाही गांव के 23 साल के पप्पू कुमार कहते हैं, “सीपीआई ही एक ऐसी पार्टी है जो किसानों और मज़दूरों के हक की बात करती है. हम आज तक बीजेपी को नहीं देखे हैं कि वह किसानों-मजदूरों की रैली को सपोर्ट करती है. कन्हैया कुमार अगर सांसद बनते हैं, तो वे भारत की राजनीति में नया अध्याय लिखेंगे. एक नयी पहल शुरू होगी.”
दो साल पहले पार्टी से जुड़े एक और कार्यकर्ता पिंटू कुमार कहते हैं, “अभी कई सारे युवा पार्टी से जुड़ रहे हैं. पार्टी इसलिए पसंद है, क्योंकि हर ज़रूरी चीज़ों के लिए सक्रिय रहती है. कन्हैया कुमार अभी जेएनयू से आये हैं, पढ़े लिखे हैं, बेगूसराय को इनकी ज़रूरत है.”
सीपीआई के पूर्व विधायक अवधेश राय कहते हैं, “बेगूसराय ज़िले में अगर आज भी हमारा आधार बना हुआ है तो इसका कारण है कि हमलोग ज़मीन से जुड़े हुए हैं. समाजिक संघर्षों से जुड़े हैं. जब देश में लेफ़्ट कमजोर हो गया, तब भी यहां हम टिके हुए हैं, आधार बना हुआ है. जातीय और धार्मिक राजनीति जो वोट में समाया तो उसके कारण लेफ़्ट भी इसका शिकार हुई.”
राय मानते हैं, “हमारी पार्टी ने मंडल कमीशन का पुरज़ोर समर्थन किया था. लेकिन उसको हम आंदोलन और संघर्ष का रूप नहीं दे सके, इसलिए जातीय उन्माद फैलाने वाले उसे जातीय धारे में ले गये. जिस समूह की लड़ाई हमने लड़ी, जिसके लिए हमने संघर्ष किया, उस समूह को हम जातीय भावनाओं से अलग कर पाने में हम असफ़ल हो गये. लेकिन अब हम सबकी समस्याओं को फिर से समाधान करने की कोशिश कर रहे हैं.”
बिहार और देश के अन्य हिस्सों में वामपंथी पार्टियों की स्थिति भले ही निर्वात में चली गयी हो, लेकिन कन्हैया कुमार को उम्मीदवार बनाये जाने के बाद बेगूसराय के नेता मानते हैं कि अब जातीय संगठन भी फेल हो रहे हैं. महागठबंधन ने भले ही कन्हैया कुमार को टिकट देने से इंकार कर दिया, लेकिन पार्टी अपने एक ‘मज़बूत किले’ को फिर से दुरुस्त करने की हरसंभव कोशिश कर रही है. ऐसा मालूम होता है कि बेगूसराय का वामपंथ कन्हैया कुमार के ज़रिये ज़मीन पकड़ने की आस में है. पार्टी में सक्रिय हर वरिष्ठ नेता कन्हैया कुमार में चंद्रशेखर की छवि देख रहे हैं.
ज़िले में पार्टी के एक वरिष्ठ नेता विष्णुदेव सिंह कहते हैं, “ये सही बात है कि जातिवादी पार्टियों को समर्थन देने से कम्युनिस्ट पार्टी कमज़ोर हुई. लेकिन इस बार के चुनाव में तमाम तरह के लोग जाति से हटकर कन्हैया कुमार के समर्थन में हैं.”
राय कहते हैं, “नयी पीढ़ी जिसे चाह रही है और देश के अंदर जो चर्चित और उभरता हुआ नौजवान अगर बेगूसराय की धरती से ही जन्म लिया है, तो ये हमारे लिए गौरव की बात है. एक समय हिंदी पट्टी में हमने कॉमरेड चंद्रशेखर को देकर लाल सितारे का उदय किया था और दूसरी बार जब वामपंथ डूब रहा है तो उस समय एक बार फिर हम बेगूसराय की धरती से किसी नौजवान को उभार कर ले आते हैं, तो यह कहा जायेगा कि बेगूसराय ने लाल सितारे को जन्म दिया है.”