क्या मेनका गांधी का बयान आचार संहिता की धज्जियां नहीं उड़ाता?

चुनाव आयोग और मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट को लेकर नेताओं के भीतर कार्रवाई का डर क्यों नहीं दिखायी देता? क्या वे ख़ुद को व्यवस्था से ऊपर समझते हैं?

WrittenBy:देवेश
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अक्सर बातें होती रहती हैं कि चुनावों के दौरान चुनाव आयोग और आचार संहिता का होना औपचारिता मात्र है. चुनाव आयोग के सत्ता पक्ष की तरफ़ मुलायम रवैया बनाये रखने की भी बातें बहसों में अपनी जगह बनाती हैं. इस वक़्त जब देश में लोकसभा चुनाव जारी हैं, तो एक बार फ़िर वह मंज़र हमारे सामने है, जब आचार संहिता की लगभग धज्जियां उड़ायी जा रही हैं और अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ बयान नेताओं द्वारा दिये जा रहे हैं.

हाल में प्रधानमंत्री मोदी ने पहली बार मतदान करने जा रहे वोटर्स को पुलवामा के शहीदों और पाकिस्तान में घुसकर मारने वाली सरकार को वोट देने की अपील की थी. आचार संहिता उल्लंघन का दूसरा रूप इस तरह खुलकर भी सामने आ रहा है कि चुनावी सभाओं में एक समुदाय विशेष में भय पैदा करने की कोशिश की जा रही है, और वह समुदाय इस देश के मुसलमान हैं. इस कड़ी में ताज़ा नाम भाजपा सांसद मेनका गांधी का है, जिन्होंने सुल्तानपुर में एक चुनावी सभा के दौरान मुस्लिम समुदाय को संबोधित (वैसे धमकी कहना ज़्यादा बेहतर चुनाव है) करते हुए मुस्लिम समुदायों को ऐसा कुछ कह दिया जिसका आशय था कि आप मुझे वोट देंगे, तभी आपका कोई काम मैं करूंगी, वरना नहीं. अपनी दायीं आंख बंद करके बैठे चुनाव आयोग को मेनका गांधी का कहा शब्दशः पढ़ लेना चाहिए, और देश को बताना चाहिए कि क्या यह हेट स्पीच की श्रेणी में नहीं आता या आचार संहिता का उल्लंघन नहीं करता?

मेनका गांधी ने कहा-  ”मैं जीत रही हूं. लोगों की मदद और लोगों के प्यार से मैं जीत रही हूं. लेकिन अगर मेरी जीत मुसलमानों के बिना होगी, तो मुझे बहुत अच्छा नहीं लगेगा. क्योंकि इतना मैं बता देती हूं कि फ़िर दिल खट्टा हो जाता है. फ़िर जब मुसलमान आता है काम के लिए, तो मैं सोचती हूं कि रहने दो, क्या फ़र्क पड़ता है.”

वह आगे कहती हैं, “आख़िर नौकरी एक सौदेबाज़ी भी तो होती है, बात सही है कि नहीं. ये नहीं कि हम सब महात्मा गांधी की छठी औलाद हैं कि हम लोग देते ही जायेंगे, देते ही जायेंगे और फिर चुनावों में मार खाते जायेंगे. सही है बात कि नहीं? आपको ये पहचानना होगा. ये जीत आपके बिना भी होगी, आपके साथ भी होगी. और ये चीज़ आपको सभी जगह फैलानी होगी. जब मैं दोस्ती का हाथ लेकर आयी हूं…. पीलीभीत में पूछ लें, एक भी बंदे से फ़ोन से पूछ लें कि मेनका गांधी वहां कैसे थीं. अगर आपको कहीं भी लगे कि हमसे गुस्ताख़ी हुई है, तो हमें वोट मत देना. लेकिन अगर आपको लगे कि हम खुले हाथ, खुले दिल के साथ आये हैं, आपको लगे कि कल आपको मेरी ज़रूरत पड़ेगी… ये इलेक्शन तो मैं पार कर चुकी हूं… अब आपको मेरी ज़रूरत पड़ेगी, अब आपको ज़रूरत के लिए नींव डालनी है, तो यही वक़्त है. जब आपके पोलिंग बूथ का नतीजा आयेगा और उस नतीजे में सौ वोट निकलेंगे या 50 वोट निकलेंगे और उसके बाद जब आप काम के लिए आयेंगे तो वही होगा मेरा साथ…”

इस बयान में भाजपा की चिरपरिचित हिंदुत्व मॉडल की झलक मिलती है, साथ-ही-साथ बहुसंख्यकवादी तानाशाही की फ़ितरत. साल 2009 में मेनका के बेटे वरुण गांधी को भी हेट स्पीच के मामले में जेल तक जाना पड़ा था और पीलीभीत में भड़काऊ भाषण देकर दो समुदायों के बीच नफ़रत फैलाने, धर्म-विशेष का अपमान करने व हत्या का प्रयास करने के आरोप लगे थे और रासुका भी लगाया गया था.

मुसलमानों के प्रति हेट स्पीच देने के मामले में भाजपा इतनी धनी रही है कि अगर सूची बनायी जाये, तो एक ख़बर में उसका समाना मुश्किल होगा. हाल में मेरठ में चुनावी सभा को संबोधित करते हुए योगी आदित्यनाथ ने इस चुनाव को ‘अली बनाम बजरंगबली’ कहा था.
ज़ाहिर है कि इस तरह के सारे बयान निंदनीय हैं और किसी भी लोकतांत्रिक देश की बनावट पर चोट करने वाले भी. लेकिन, सबसे चिंताजनक बात चुनाव आयोग की स्थिति है. उधार के शब्दों का सहारा लिया जाये, तो चिंताजनक यह भी है कि क्या सचमुच आचार संहिता ‘लाचार संहिता’ में तब्दील हो चुकी है? नेताओं में उसे लेकर ज़रा भी भय क्यों नहीं दिखायी देता है? इस भय की कमी के पीछे कुछ भी कार्रवाई न होने की निश्चिंतता और चुनाव आयोग को ‘मैनेज’ कर लेने का ‘सत्ताई अहंकार’ तो नहीं? क्या वे ख़ुद को व्यवस्था से ऊपर मानते हैं?

ऐसे कई सवाल हैं, जो परेशान करते हैं. उम्मीद है चुनाव आयोग को भी परेशान करेंगे और मायावती की तरह मेनका गांधी को भी तलब किया जायेगा.

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