1971 के आम चुनाव इंदिरा गांधी की आर्थिक नीतियों का रेफ़रेन्डम थे

सोवियत विचारधारा से प्रभावित प्रेमेश्वर नारायण हक्सर उनके सबसे नज़दीकी थे, ऐसे में इंदिरा की आर्थिक सोच पर असर पड़ना लाज़मी था.

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पांचवें आम चुनाव की पृष्ठभूमि बड़े ही नाटकीय ढ़ंग से रची गयी थी. ये चुनाव तयशुदा समय से एक साल पहले यानी 1971 में हुए थे. पर इसके पहले जल्दी से 1967 पर एक नज़र डाल लेते हैं. चौथे आम चुनाव में कांग्रेस ने सरकार तो बना ली थी, पर उसके जनाधार में 5% की कमी आयी.

अल्पसंख्यक वर्ग का कांग्रेस से मोहभंग हुआ, क्षेत्रीय दलों का दबदबा शुरू हो गया, विपक्ष ने पैर जमा लिए. उसी साल इंदिरा गांधी ने 84 साल की कांग्रेस के दो फाड़ करते हुए, अन्य विपक्षी पार्टियों के साथ मिलकर अपनी सरकार बचाने में सफल रहीं. इंदिरा का काल शुरू हो गया था, पर उनकी सरकार बैसाखी पर चल रही थी. और उस लिहाज़ से 1971 के पांचवे आम चुनाव इंदिरा गांधी की व्यक्तिगत नेतृत्व क्षमता और कांग्रेस की आर्थिक एवं सामाजिक नीतियों का रेफ़रेनडम भी कहे जा सकते हैं.

गूंगी गुड़िया के पांच पांडव

नेहरु के बाद कांग्रेस में पुराने राजनेताओं का एक गुट पैदा हो गया था, जिसे सिंडिकेट कहा जाता था और इंदिरा इनके हाथों की कठपुतली थीं. लोहिया जैसे मिट्टीपकड़ नेता उन्हें ‘गूंगी गुड़िया’ कहते थे. जैसा पिछले लेख में ज़िक्र हुआ था कि शास्त्री के काल में प्रधानमंत्री कार्यालय की अहमियत बढ़ी थी. इंदिरा ने इसे ही सिंडिकेट के विरुद्ध अपना सबसे बड़ा हथियार बनाने के लिए इसे सबसे ताक़तवर पॉवर सेंटर के रूप में तब्दील कर दिया. प्रधानमंत्री कार्यालय में तब पांच कश्मीरी ब्यूरोक्रेट्स का वर्चस्व था. ये ‘पांच पांडव’ कहे जाते थे. ये थे- विदेश सेवा के अफ़सर त्रिलोक नाथ कौल, राजनेता और डिप्लोमेट दुर्गा प्रसाद धर, अर्थशास्त्री पृथ्वी नाथ धर, भारतीय पुलिस सेवा के अफ़सर रामेश्वर नाथ काउ और भारतीय विदेश सेवा के प्रेमेश्वर नारायण हक्सर.

सोवियत विचारधारा से प्रभावित हक्सर उनके सबसे नज़दीकी थे, ऐसे में इंदिरा की आर्थिक सोच पर असर पड़ना लाज़मी था.

दस सूत्रीय कार्यक्रम और इंदिरा का समाजवाद

1967 में जारी किये इस कार्यक्रम के मुख्य बिंदु थे; बैंकों पर सामाजिक नियंत्रण, साधारण बीमा का राष्ट्रीयकरण, निर्यात और आयात पर सरकारी कंट्रोल, खाद्यानों का सार्वजनिक वितरण, एकाधिकार ख़त्म करना और आर्थिक संसाधनों का संकुचन रोकना, शहरी आय और संपति की सीमा तय करना, ज़मीन सुधार और राजाओं को मिलने वाले प्रिवी पर्स को बंद करना.

इंदिरा ने 1969 में 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके देश को अलग दिशा की तरफ़ मोड़ दिया. इन बैंकों के पास देश की लगभग 70 फ़ीसदी पूंजी थी. इनमें जमा पैसा उन्हीं सेक्टरों में निवेश किया जा रहा था, जहां लाभ के ज़्यादा अवसर थे. वहीं सरकार की मंशा कृषि, लघु उद्योग और निर्यात में निवेश करने की थी. राष्ट्र का पैसा राष्ट्र के नाम की आड़ में ये कदम उठाया गया था, जिसे जनता ने स्वीकार किया. ये मुद्दा सुप्रीम कोर्ट गया जहां इस पर रोक लगा दी गयी.

फिर अगले साले यानी 1970 में उन्होंने एक और पासा फेंका, जिसके तहत राजाओं और महाराजाओं को सरकार द्वारा मिलने वाले वित्तीय लाभ, जिन्हें प्रिवी पर्स कहा जाता है, बंद करने के लिए प्रस्ताव पेश किया. ये प्रस्ताव लोकसभा में तो पारित हो गया, पर राज्यसभा में एक वोट से गिर गया. आनन-फ़ानन में कांग्रेस की मदद को ‘रबर स्टांप’ कहे जाने वाले राष्ट्रपति वीवी गिरी ने अध्यादेश (आर्डिनेंस) जारी कर इसे मान्यता दे दी.

तमाम राजा इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट चले गये. कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी. वो इसी बात का इंतज़ार कर रही थीं. वो जानती थीं कि जनता इस मुद्दे पर उनके साथ है, उन्होंने तुरत लोकसभा भंग कर आम चुनाव की घोषणा कर डाली.

विपक्षी महागठबंधन

इंदिरा की काट करने के लिए विपक्ष एकजुट हो गया, जिसमें कांग्रेस से टूटकर अलग हुए कांग्रेस(ओ), भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और स्थानीय दल शामिल थे. सरकार के प्रिवी पर्स बंद करने से आहत राजा-महाराजा भी इस बार चुनावी दंगल में थे. इनमें से ज़्यादातर ने राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी से चुनाव लड़ा. उन्होंने ‘इंदिरा हटाओ’ का नारा उछाला.

चुनाव- इंदिरा हटाओ बनाम ग़रीबी हटाओ

इंदिरा ने इन चुनावों में ज़बरदस्त मेहनत की. दिसंबर 1970 से लेकर अगले 10 हफ़्तों तक उन्होंने क़रीब 36,000 मील की दूरी नापी, 300 सभायें की और लगभग 2 करोड़ लोगों से भाषणों के ज़रिये मुख़ातिब हुईं.

जब आपका समय सही चल रहा होता है, तब आपके सारे पत्ते एकदम फ़िट बैठते हैं. कुछ ऐसा ही उनके साथ हो रहा था. विपक्ष पर प्रहार न करते हुए जनता के बीच गयीं और बोलीं, ‘वो कहते हैं इंदिरा हटाओ, हम कहते हैं ग़रीबी हटाओ’. इंदिरा का नारा विपक्ष के नेताओं के दिलों को चीरता हुआ, लोगों के दिलों में घर कर गया.
जो अल्पसंख्यक 1967 के चुनाव में कांग्रेस से दूर हो गये थे, वो मानो पश्चाताप करते हुए उनके साथ खड़े हो गये. वहीं पार्टी के जवान नेता देशभर में इंदिरा की बात लोगों के बीच लेकर गये.

‘ग़रीबी हटाओ’ का राजनैतिक विश्लेषण

आख़िर इंदिरा गांधी ने ये नारा क्यों दिया? भारतीय राजनीति को नज़दीक से देखने वाले वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के पॉल आर ब्रास के मुताबिक़ ‘ये नारा दिये जाने और इसके बाद इससे संबंधित कार्यक्रमों को लागू करने के पीछे इंदिरा की राजनीति की रणनीति थी कि पार्टी को राज्यों में स्थानीय नेताओं के रहमोकरम से मुक्त किया जाए, जिनका आधार मुख्यतः ग्रामीण भारत में प्रभुत्व वाली जातियां और शहरों में व्यापारी वर्ग था.’ वो आगे लिखते हैं, ‘हालांकि 40 से 50% ग्रामीण और शहरी आबादी का कोई राजनैतिक आधार नहीं था, पर ये आबादी एक निश्चित वोट बैंक थी, जिसका किसी विपक्षी पार्टी के पास कोई तोड़ नहीं था.

वहीं, मशहूर पत्रकार इंदर मल्होत्रा की किताब ‘इंदिरा गांधी- अ पर्सनल एंड पॉलिटिकल ऑटोबायोग्राफी’ में लिखते हैं कि पीएन हक्सर ने उनको एक सलाह दी कि यदि सिंडिकेट को ख़त्म करना है, तो शक्ति की इस निजी लड़ाई को विचारधारा की लड़ाई के तौर पर पेश करना होगा. इससे ज़ाहिर होता है कि दस सूत्रीय कार्यक्रम समाजवाद का आर्थिक मॉडल नहीं, बल्कि शुद्ध राजनैतिक समीकरण थे जिनका वो फ़ायदा उठाना चाहती थीं.

चुनाव की तैयारियां

1 मार्च से लेकर 10 मार्च 1971 तक ये चुनाव चले. क़रीब साढ़े सत्ताईस करोड़ वोटरों के लिए क़रीब साढ़े तीन लाख पोलिंग बूथ बनाये गये. रामचंद्र गुहा ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि किसी भी वोटर को पोलिंग बूथ तक जाने के लिए 2 किलोमीटर से ज़्यादा का सफ़र तय नहीं करना पड़ा. क़रीब पौने दो लाख केंद्रीय और सरकारी कर्मचारी चुनावी ड्यूटी में लगाये गये. बूथ कैप्चरिंग के 66 मामले और चुनावी हिंसा के 375 मामले दर्ज़ किये गये. दोनों ही मामलों में बिहार सबसे आगे था.

चुनाव परिणाम और कांग्रेस की लहर

कुल 518 सीटें जिनमें से अनुसूचित जाति के लिए 78 और अनुसूचित जनजाति के लिए 38 सीटें अरक्षित थीं. राजनीति के ज़रिये ‘समाजसेवा’ का जुनून हर चुनाव में बढ़ता जा रहा था. जहां पहले आम चुनाव में सिर्फ़ 1874 उम्मीदवार थे, इस बार 2801 मैदान में थे. यानी, 5.40% उम्मीदवार प्रति सीट लड़ रहे थे. जिनमें से इंदिरा की कांग्रेस(आर) के 441 और फिर कांग्रेस(ओ) के 238 और भारतीय जनसंघ के 160 उम्मीदवार थे. अन्य पार्टियों ने 100 से भी कम उम्मीदवार उतारे थे. इसी से ज़ाहिर होता है कि किसी भी विपक्षी दल का इतना जनाधार नहीं था, जो अपने बलबूते कांग्रेस(आर) को टक्कर देता.

कुल 55.27% मतदान हुआ. महिला मतदान और भी कम था, जो कुल 49.11% रहा. 352 सीटें और 43.7% वोट शेयर जीतकर कांग्रेस(आर) को ज़बर्दस्त जीत हासिल हुई. कांग्रेस(ओ) को सिर्फ़ 16, जनसंघ को 22, सीपीआई को 23 और सीपीएम को 25 सीटें मिलीं. जीतकर आने वालों में से 33.2% काश्तकार थे और 20.5% वकील.

सार क्या है

केंद्र में आने के बाद 1972 में राज्यों के चुनावों में भी कांग्रेस ने भारी जीत हासिल की थी. देखा जाए तो कह सकते हैं कि इंदिरा की पॉलिसियों को जनता का समर्थन प्राप्त हो गया था और पार्टी का वोट बैंक अब 1969 के मुक़ाबले सुरक्षित था. पर उनको हमेशा अंदेशा रहता था कि राज्यों में उनकी पार्टी बिखर सकती है और ऐसा ही हुआ. कांग्रेस शासित राज्यों में भ्रष्टाचार के मामले बढ़े. ख़ुद उनके बेटे संजय को छोटी कार बनाने का लाइसेंस मिला, जबकि उनके पास कोई तकनीकी कुशलता नहीं थी. इससे राज्यों में उनकी पार्टी के विरोध में आंदोलन पनपने लगे. वो हर विरोध को दबाती जा रही थीं कि एक दिन सब कुछ फट गया. गुजरात से शुरू हुए कांग्रेस विरोध में हिस्सा लेकर जय प्रकाश नारायण अपना वनवास ख़त्म कर आये थे. फिर पटना के गांधी मैदान से उन्होंने हुंकार भरी और रामधारी सिंह दिनकर का गीत गूंज उठा,

‘फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है’

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