होली: रंग की कुछ सांस्कृतिक दृश्यावलियां

राम, कृष्ण और शिव के नगरों में सांस्कृतिक भिन्नता के बीच भी होली कहीं न कहीं समन्वय की धरती में रूपायित होती है.

WrittenBy:यतींद्र मिश्र
Date:
Article image

सूफियों के यहां होली का उल्लास बरकरार रहता आया है. सफेद की सादगी में लिपटा हुआ सूफियों का समाज भी होली की केसरिया और सुनहरी आभा से अपने को बचा नहीं सका. कहते हैं पहली बार निजामुद्दीन औलिया पर हज़रत अमीर ख़ुसरो ने पीले फूलों का रंग डाला और गाया- ‘हज़रत ख़्वाजा संग खेलिए धमाल.’ तभी से इस परम्परा की सर्वाधिक प्रसिद्ध कव्वाली भी होली की ही मशहूर हुई, जिसके अमर बोल हैं- ‘आज रंग है हे मां, रंगा है दिन.’

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

संगीत की अनुपम परम्परा में मौजूद ध्रुपद, धमार, होली की ठुमरी, फाग उलारा और रसिया के गायन में हर जगह पूरी उत्फुल्लता के साथ होली मौजूद है. भक्तिकाल के ढेरों संत-कवियों और निर्गुणियों की पदावलियां हों या बिसरा दी गयी बाईयों की महफिलों में इस मौके पर गायी जाने वाली डफ की ठुमरी एवं सादरा- होली के बिना निगुर्णियों का इकतारा और महफिलें सभी सूने हैं.

(2)

होली के बहाने अयोध्या-फ़ैज़ाबाद के सन्दर्भ से कहें या एक हद तक अवध की धरती को उसमें शामिल करते हुए उसके एक बड़े परिदृश्य का आकलन करें तो हम पाएंगे कि इस रंग-पर्व की बहुरंगी पृष्ठभूमि भी कहीं न कहीं समन्वय की धरती में रूपायित होती रही है. जहां अयोध्या में रसिक भक्तों के अतिरिक्त कृष्ण की अनन्य उपासक सूफी दरवेश बड़ी बुआ साहिबा ने होली के ढेरों बधाई पद लिखे थे, वहीं सुदूर बृज-क्षेत्र में राधा-कृष्ण की मशहूर श्रृंगारिक होली को सिर्फ अष्टछाप के कवियों या वल्लभाचार्य ने ही उपकृत नहीं किया वरन उसमें बनी-ठनी जैसी साधिका, स्वामी हरिदास जैसा गवैया एवं मुस्लिम फ़कीर ताज भी शामिल थे.

यह होली की ही विशिष्टता है कि राम, कृष्ण और शिव तीनों के ही शहर अपने-अपने ढंग से नगरवासियों को इस पर्व पर समरस करते रहे हैं. जहां अयोध्या में यह परम्परा रसिकों की महान भक्ति परम्परा में नया अध्याय जोड़ती है, जब अवधपुर की फागें, उलारा और डेढ़ ताल की बन्दिशें अयोध्या के मठ-मन्दिरों को सराबोर रंगों की ही तरह गुंजा देती हैं. दूसरी ओर मथुरा और वृन्दावन पर होली का रंग उनके आराध्य कृष्ण की प्रिया राधा के मायके के गांव बरसाना के मार्फत चढ़ता है, जब कृष्ण के ग्वाल-बाल एवं मित्र-हितैषी गोचारण के साथ-साथ लठमार होली खेलते हैं. …और ब्रज की गलियों में संगीत कुछ इस तरह गूंजता है- ‘मो पे जबरन रंग दियो डार, जसोदा तेरे लाला ने…’

(3)

होली ही अकेला ऐसा त्यौहार भी है, जिसे भारतीय कलाओं और अन्यान्य रूपंकर अभिव्यक्तियों में सर्वाधिक प्रतिष्ठा मिली है. होली को मुगल, कांगड़ा, बसोहली, बूंदी और कान्हेरी शैलियों की मिनियेचर पेन्टिंग्स में स्थान मिला. साथ ही, बसन्त, काफी, मांड, सिन्दूरा, परज, पटमंजरी, पीलू और देश जैसे अप्रतिम रागों ने भी होली के उप-शास्त्रीय और शास्त्रीय गायन में सदाबहार ढंग से अपनी उपस्थिति रची है.

डेढ़ ताल, चैताल और आधे ताल में निबद्ध अवधी फाग की बन्दिशों ने भी होली को सुन्दर बनाया है, इसके कारण अवध में खासकर फागुन का यह त्यौहार अपने उल्लास, मस्ती और उमंग में सराबोर मिलता है. कथक, मणिपुरी और भरतनाट्यम- तीन ऐसे शास्त्रीय नृत्य भी हैं, जिनकी प्राणवत्ता का सबसे टिकाऊ बिन्दु, होली के प्रसंगों का निरूपण माना जाता है. भक्तिकाल के ढेरों कवियों के अलावा हजार वर्ष पूर्व के अमीर खुसरो के यहां और तेरहवीं शताब्दी में विद्यापति की कविता में भी होली का उल्लास पूरे वैभव के साथ दर्ज हुआ है.

इसी पर्व में इस बात की गुंजाइश छिपी हुई है कि जीवन का उल्लास कहीं भी नहीं रूकता, भले ही वह जगह शमशान ही क्यों न हो. मूलतः अवध में प्रचलित और इन दिनों बनारस में गाया जाने वाला शिव का फाग ‘खेलें मसाने में होली दिगम्बर’ को कौन नहीं जानता?

(4)

इन सबसे अलग शिव की होली, एकदम अवधूत की होली होती है- बिलकुल बनारसी अन्दाज़ में भांग, धतूरा, पान चबाये- ‘जोगीरा सा रा रा रा’ की धुन पर. कहने का अर्थ यह है कि होली का अनुष्ठान एक ओर शैव-वैष्णव के समरस भाव का उद्यम है, एक ओर वह मदन-दहन का पर्व है, जिसमें सरयू और यमुना के तट पर होरी मचती है, तो अयोध्या में ‘ऐ री दोनों राजदुलारे होरी खेलत सरजू तीर’ गाते हुए रामभक्ति परम्परा अपना आनन्द लुटाती है, तो दूसरी ओर यमुना के तट पर ‘आज बिरज में होरी है रे रसिया’ से लेकर ‘रसिया को नारी बनाऊंगी, रसिया को’ जैसे मधुर गीतों का कोरस कुंज गलियों में गूंजता है.

कवि मित्र आशुतोष दुबे की बात को यदि होली के सन्दर्भ में देखें, तो कहना होगा कि हमारी होली दरअसल ‘बरजोरी, मरोरी, भीजी, चोली, कलाईयां, पिचकारी, नयन, बलम, दईया, हाय, रंग, भंग, कसक-मसक, उई, हट, चूनर और श्याम व राधा’ जैसे शब्दों के बीच मनती है. आधुनिक सन्दर्भों में होली, वर्तमान व्यवस्था को लताड़ लगाती हुई थोड़ी विनोदप्रियता के रंग में कबीरा गाने की होती है, जिसमें हर एक को आमोद की गाली की बौछार में भीगना ही पड़ता है.

यही संस्कृति का सबसे सुन्दर अर्थ है कि अगर जीवन है, उसकी आपाधापी और उससे उपजी ऊब और थकान है, तो होली या उस जैसे अन्यान्य पर्वों के बहाने अपना कलुष धोने और थोड़ी देर मर्यादा की स्वायत्तता के भीतर आनन्द-उमंग की व्यवस्था भी है. यह हम कई बार रंगों, कबीरी चुहल और भंग-ठंढई की मस्ती में रूपायित करते हैं. अपने ऊहापोहों और अनजाने दबावों से बाहर आने और एकबारगी उन्हें उत्साह से ढहा देने का सबसे लोक कल्याणकारी पक्ष भी शायद यही है.

जब तक संस्कृति हमें दीवाली, होली के बहाने ऐसे अवसर जुटाने का मौका देती रहेगी, हम निर्गुणों, अवधूतों, जोगियों, सूफियों और कलन्दरों जैसी बेपरवाह, शान्त जिन्दगी का लुत्फ उठाने का दुर्लभ अवसर भी पाते रहेंगे, भले ही वह एक दिन के लिए ही क्यों न हो. भले होली, बुढ़वा मंगल या रंगभरी एकादशी जैसे दिन एक बार ही हमें हर संवत्सर में मिलते रहें.

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like