बनारस की मंडी में देसभर का मीडिया

बनारस राष्ट्रीय मीडिया के लिए पतीले का एक चावल है. यह बता देता है कि देश के बड़े हिस्से में मीडिया को लेकर किस तरह का अविश्वास और तिरस्कार है.

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बहुत दिन नहीं हुए इस घटना को. दिल्ली में पत्रकारिता कर रहे एक मित्र की शादी बनारस में तय हुई. लड़की वाले मिलने आए. उन्होंने लड़के से पूछा कि वो क्या करता है. एसपी सिंह की परंपरा का स्वयंभू निर्वहन कर रहे गर्वोन्मत्त लड़के ने उचक कर कहा- जी, पत्रकारिता.

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कुछ सेकंड लड़के का मुंह देखने के बाद लड़की के पिता ने कहा- अच्छा-अच्छा… और काम धंधा? लड़के ने यह मानकर बताना शुरू किया कि गंवई लोग हैं, ज्यादा नहीं समझेंगे- बस वही, ख़बर लिखना, संपादन करना… और कई चीजें होती हैं, टेक्निकल चीजें. लड़कीवाले अपेक्षा से ज्यादा समझदार निकले. जवाब मिला- पत्राचार वत्राचार तो ठीक है, काम-धंधा कुछ करते हैं कि नहीं? लड़का पहली बार कनफ्यूज़ हुआ. आगे की कहानी चाहे जो हो, शादी कट गई.

केवल 16 साल पहले तक बनारस सहित समूचे पूर्वांचल में पत्रकारिता कहने पर लोग या तो पत्राचार समझते थे या फिर कुर्ता पहने और झोला टांगे एक मरगिल्ले आदमी की छवि दिमाग में कौंध जाती थी. यह स्थिति पिछले पांच-छह साल में क्रांतिकारी तरीके से बदल गई है. ज़ाहिर है, पिछले आम चुनाव का इसमें योगदान तो है ही, टीवी मीडिया के आवारा माइकों ने भी लोगों को कम शिक्षित नहीं किया है. अब आप किसी मतदाता से सवाल पूछ कर देखिए, उसके मीडिया शिक्षण का स्तर और असर आपको पता चल जाएगा.

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सबसे पहले वह आपसे पूछेगा किस चैनल से हैं. इसके तीन मतलब हैं- पहला, आप टीवी चैनल से होंगे तभी वह गंभीरता से आपको लेगा क्योंकि उसके लिए मीडिया मतलब वह जो दिखता है. दूसरा मतलब यह है कि चैनल का नाम जानने के बाद वह तय करेगा कि आप उसके पाले के आदमी हैं या विरोधी पाले के. इससे उसका जवाब तय होगा. तीसरा मतलब यह है कि वह मीडिया में अपने दखल और संपर्कों का बखान करना चाह रहा होगा, बशर्ते आप व्यक्ति उपयुक्त निकलें. ऐसे ही एक चुनावी सवाल पर बनारस के एक अस्‍पताल में काम करने वाले शख्स ने पलट कर पूछा- आप कहां से हैं… मने किस चैनल से? तकनीक के नाम पर हाथ में कुल जमा एक मोबाइल लिए हुए रिपोर्टर ने बताया- जी, वेबसाइट से. अगला सवाल- कौन सी? रिपोर्टर ने वेबसाइट का नाम बताया तो उधर से मतदाता ने ठंडी सुदीर्घ सांस छोड़ कर बस हम्म कर दिया. थोड़ा दबाव में आ चुका रिपोर्टर अब सीधे सवाल पर आता है- आपको क्या लगता है भाजपा इस बार निकाल पाएगी? उधर से छक्का पड़ा- आप लोग रिपोर्टर आदमी हैं, देश घूमते हैं. आप ही बताइए. हमसे क्या पूछ रहे हैं.

रिपोर्टर को बैकफुट पर जाता देख मतदाता ने फैलने की कोशिश की: “वैसे दिल्ली में हमारे जानने वाले बहुत लोग हैं. फलाने सिंह को तो आप जानते ही होंगे? और ढेकाने सिन्हा? इंडिया टुडे के संपादक? बगल में बैठे उसके साथी ने दुरुस्त किया- वो तो तेज़ के हैं न? “तेज तो देखते ही हैं, इंडिया टुडे के ग्रुप एडिटर हैं.” रिपोर्टर के पास हां करने के अलावा कोई विकल्‍प नहीं है. वह जानता है कि अगर सही करने में जुटा तो सामने वाला सीधे दिल्ली फोन भी लगा सकता है.

दिल्ली का पत्रकार जिस तरह पुलिस महकमे में डीजीपी से नीचे बात करने को अपनी तौहीन समझता है, ठीक उसी तरह बनारस के लोग आजकल प्राइम टाइम के राष्ट्रीय कहलाने वाले एंकरों से कम किसी का नाम नहीं लेते हैं. “रोहित सरदाना और रवीश कुमार के बीच बहुत पुराना झगड़ा है. दोनों एक दूसरे को देखना पसंद नहीं करते,” ऐसा वाक्य आपको बनारस के किसी चौराहे पर सुनने को मिल सकता है. सुनने वाले जब चौंकते हैं, तब उन्हें और ज़्यादा चमत्कृत करने के लिए बोलने वाला चौड़ा हो लेता है: “और नहीं तो क्या, दोनों जब एक साथ आज तक में काम करते थे तब का पुराना झगड़ा है.”

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मौके पर बैठे दिल्ली के रिपोर्टर ने बेचैन होकर हस्तक्षेप किया, “भाई साब, रवीश ने तो आज तक में कभी काम किया ही नहीं, और वैसे भी सरदाना काफी जूनियर है!” सामने वाले ने पूरी विनम्रता से ऐसे जवाब दिया कि खीझ में अपने जूते न निकाल कर अहसान जाता रहा हो, “मने ठीक है आप दिल्ली में रहते हैं लेकिन हम लोग बकचोद तो नहीं हैं? रवीश से मेरी बहुत बात होती है. हो सकता है आपको न पता हो ये बात. मने आदमी सबको थोड़े ये सब बताता है. क्यों?” और पुतली घुमाते हुए उसने आसपास बैठे श्रोताओं से हामी भरवा ली- “और क्या? भैया सही कह रहे हैं, इनका दिल्ली में बहुत संपर्क है. अरे ये आज के थोड़े हैं!”

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रिपोर्टर बेचारा लौंडपने के भाव से कुंठित होकर चुपचाप चाय पीने लगता है. ये स्थिति आम तौर से बनारस के सवर्णों के बीच पाई जाती है. अगर रिपोर्टर ने दो चार नाम नहीं गिराए, तो आसपास के लोग उसे वाकई बकचोद समझ लेते हैं. गैर सवर्णों की स्थिति थोड़ा अलग है. उनके पाले में रवीश जैसे पत्रकार हों या नहीं, लेकिन प्राइम टाइम में चीखने वाली खबरचंडियों की वे पर्याप्त मौज लेते हैं. मसलन, बनारस में आप किसी यादव से बात करके देखिए, उसकी जुबान पर पहला नाम अंजना ओम मोदी का होगा. जी हां, अंजना ओम मोदी!

आम तौर से चट्टी-चौराहे पर होने वाली गप में टीवी की ख़बरों से खीझ का निशाना महिला एंकर बन रही हैं. इनमें अंजना ओम कश्यप सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हैं. बस फर्क इतना है कि लोग कश्यप की जगह मोदी बोलते हैं. ये आम प्रैक्टिस है. तीन साल पहले जिस दिन बुलेटिन में इस प्रस्तोता ने अपना नाम अंजना ओम मोदी कहा, बनारसी लौंडों ने उसे लपक लिया. तब से इनका नाम बदल गया. रिपोर्टर ने एक लड़के से जिज्ञासावश पूछा- “आप लोगों को अगर वह किसी वजह से पसंद नहीं, तो टीवी मत देखिए, या चैनल बदल लें. एक महिला के लिए ऐसी भाषा का प्रयोग अशोभनीय है.”

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उधर से आया जवाब आपको बेहोश कर सकता है, “हम लोग खुदै नहीं चाहते कि टीवी देखें, लेकिन क्या करें उसे (अंजना कश्यप) देखे बिना मन नहीं मानता. हम लोग इस जिज्ञासा में उसे देखते हैं कि आज क्या नई हरमजदगी होने वाली है.” एक सरकारी शिक्षक बात को सूत्रीकरण के लहजे में रखते हैं, “मीडिया पर हमारा रत्ती भर भरोसा नहीं लेकिन रोज़ रोज़ उसका नया झूठ देखने के लिए प्राइम टाइम पर टीवी खोल लेते हैं.”

यह एक नए किस्म का मीडिया शिक्षण है. पिछले पांच वर्षों में यह संभव हुआ है. बनारस इस मामले में अकेला नहीं, तकरीबन समूचा उत्तरी हिस्सा ही इस सामूहिक चेतना उन्नयन का गवाह है. अगला उदाहरण किसी भी पत्रकार के लिए हताश करने वाला होगा. बात जनवरी की है जब यह लेखक दो और पत्रकारों के साथ इटावा, मैनपुरी और कासगंज के दौरे पर गया हुआ था. सपा और बसपा के महागठबंधन के प्रभाव का जमीनी जायज़ा लेने के लिए हम एक दलित बस्ती में गए. वहां जब मोबाइल कैमरे चालू करके लोगों से बातचीत शुरू हुई, तो एक तरफ खड़े किशोरों के झुंड ने कमेन्ट किया, “ये सब यूट्यूब वाले हैं. यहां से रिकॉर्ड कर के जाएंगे, कल अपलोड करेंगे और पैसे कमाएंगे.”

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उन्होंने न सिर्फ टिप्पणी की बल्कि वहां बाइट देने जुटे कुछ लोगों को भी यह कह कर बिदका दिया कि विडियो बना रहे लोग पत्रकार नहीं, यू-ट्यूबर हैं. कुल मिला कर सारी गंभीरता मिट्टी में मिल गई. यह समस्या मामूली नहीं है. आगामी चुनाव में कवरेज के लिए सबसे बड़ी फौज सोशल मीडिया, वेबसाइट और यूट्यूब चैनल के पत्रकारों की रहने वाली है. ऐसे में दूसरी तरफ बड़ी और चमकीली माइक आईडी लेकर क्रू के साथ घूमने वाले पत्रकारों का आभामंडल भी स्वतंत्र पत्रकारों के प्रतिकूल ही काम करेगा.

इसमें हालांकि बड़े चैनल सुरक्षित रहने की खुशफहमी न पालें. पिछले विधानसभा चुनाव में राजदीप सरदेसाई और अंजना ओम कश्यप के साथ बनारस में जो व्यवहार हुआ था, और जिस गैर ज़िम्मेदारी के साथ उन्होंने रिपोर्टिंग की थी, वह इस चुनाव के लिए नज़ीर हो सकता है. सनद रहे कि राजदीप को जल्दीबाज़ी की रिपोर्टिंग का खामियाजा बीएचयू के कुख्यात कुलपति जीसी त्रिपाठी से माफी मांग कर भरना पड़ा था.

बनारस एक बार फिर मीडिया के महाकुंभ का संगम बनने वाला है.  इस बार जनता का एक हिस्सा मीडिया से बहुत नाराज़ है. खासकर, वंचित तबके, दलित और अल्पसंख्यकों का गुस्सा भीतर दबा पड़ा है. शुरुआत एक स्थानीय पत्रकार पर हमले से हो चुकी है जिसे पिछले हफ्ते बीएचयू में बंधक बना लिया गया था. विडंबना यह है कि सबसे ज़्यादा खतरा उन मीडियाकर्मियों को है जिनके चेहरे सबसे ज़्यादा पहचाने हुए हैं.

पिछले हफ्ते बनारस में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के उद्घाटन के वक़्त रवीश कुमार से फोन पर बात हो रही थी. मैंने उन्हें कहा कि खुद आकर देखें क्या तबाही मची हुई है. रवीश ने जो जवाब दिया वह सोचने लायक है. उन्होंने कहा कि लोकप्रियता के अपने ख़तरे होते हैं. वे बोले, “आपकी तरह मैं खुला नहीं घूम सकता.” यह अजीब स्थिति है. जब संपादक स्तर के पत्रकार समाज में खुले न घूम सकें, तो आप समझ सकते हैं कि खबरों की प्रामाणिकता कितनी और कैसी बच रही होगी.

पुरानी कथाओं में राजा अपनी प्रजा का हाल लेने के लिए रात में वेश बदल कर विचरता था. आज बड़े पत्रकारों को यही नियति है. चुनाव क्षेत्र जितना अहम, खतरा भी उतना ही बड़ा. ऐसे में आगामी लोकसभा चुनाव में ख़बरनवीसी का असल जिम्मा उन कंधों पर होगा जो अनाम हैं, अज्ञात है, अपहचाने हैं. ऐसी पत्रकारिता के लिए माओ की क्रांतिकारियों को दी हुई शिक्षा बहुत कारगर साबित हो सकती है- “जनता के बीच ऐसे रहो जैसे तालाब में मछलियों के बीच एक और मछली!”

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