दम तोड़ता संभावनाओं का टी-हब बिहार का सीमांचल

किशनगंज, अररिया, पूर्णिया जिलों में चाय की खेती की प्रबल संभवना के बावजूद यह उद्योग क्यों बर्बाद हो रहा है?

WrittenBy:पुष्यमित्र
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कई साल पहले टी-बोर्ड ने बिहार के सीमांचल के कुछ जिलों में सर्वेक्षण किया था और अपनी रिपोर्ट में कहा था कि किशनगंज जिले के पांच प्रखंड और अररिया-पूर्णिया जिले के कुछ इलाकों में चाय की खेती आराम से हो सकती है. हालांकि उससे पहले ही किशनगंज जिले के कुछ इलाके में चाय की खेती शुरू हो चुकी थी. उस वक्त ऐसा लगा था कि बहुत जल्द यह इलाका अपने चाय बगानों की वजह से असम और दार्जिलिंग की तरह मशहूर हो जायेगा. और साल भर रोजगार देने की क्षमता की वजह से चाय उद्योग इस इलाके की दरिद्रता को दूर कर देगा. बिहार की भी अपनी चाय होगी. यह सब कुछ हुआ, मगर उस स्तर पर नहीं हुआ, जिससे बड़ा बदलाव आ पाता. यहां चाय की खेती और चाय उद्योग की संभावना ठहर कर रह गयी.

चुनावी रिपोर्टिंग के सिलसिले में हाल ही में मैं किशनगंज गया तो पाया कि वहां कई दुकानों पर राजबाड़ी चाय के साइन बोर्ड लगे थे. इन्हें देख कर राजकरण दफ्तरी याद आ गये, जिन्हें किशनगंज जिले में चाय की खेती की शुरुआत करने का श्रेय हासिल है. कई साल पहले कुछ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उनकी कहानी छपी थी तो उनके बारे में जाना था, और यह भी मालूम हुआ था कि चाय की खेती सिर्फ पहाड़ियों में ही नहीं की जाती, जहां सीढ़ीनुमा खेत होते हैं. बल्कि इन्हें मैदानी इलाकों में भी उगाया जा सकता है. राजकरण दफ्तरी ने कपड़ों का अपना पुश्तैनी धंधा छोड़कर किशनगंज के कुछ बंजर इलाकों में चाय की खेती शुरू की थी और साथ ही प्रोसेसिंग यूनिट भी लगाया. मालूम हुआ कि यह राजबाड़ी चाय उन्हीं का ब्रांड है.

इसी यात्रा में उनसे पहली दफा मुलाकात हुई और उनका लंबा इंटरव्यू भी लिया. इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि चाय उद्योग को बढ़ावा देने के लिए बिहार सरकार ने 1999 में ही एक पॉलिसी बनायी थी, मगर कुछ गलत फहमियों की वजह से वह बाद में इसे वापस ले लिया गया.

दफ्तरी साहब ने जिन कारणों की तरफ इशारा किया वे थे कि इस पॉलिसी के तहत सरकार पांच एकड़ बगान में चाय उगाने पर एक एकड़ जमीन मुफ्त देने वाली थी, मगर ऐसे आरोप लगे कि इस योजना का ज्यादातर लाभ दफ्तरी के रिश्तेदारों ने उठाया. दफ्तरी इस मामले में कहते हैं, “किसी भी अच्छे चाय बगान के लिए कम से कम पांच सौ, हजार एकड़ जमीन की जरूरत होती है. पश्चिम बंगाल में जब सीपीएम सरकार थी, तब उसने टी प्लांटरों को हजार-हजार एकड़ तक जमीन दिये. अब बिहार सरकार अगर पांच एकड़ वालों को ही सब्सिडी दे रही है तो हमने अपने सभी रिश्तेदारों के साथ मिलकर इस योजना का लाभ उठाया. सरकार ने इस योजना के तहत सिर्फ 250 एकड़ जमीन बांटी है. इसके लिए इतना हाय-तौबा क्यों.”

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किशनगंज के चाय बगान से एक और विवाद भी जुड़ा. वह था भूदान की जमीन पर चाय की खेती करवाना. यह मामला दो-तीन साल पहले काफी चर्चा में आया था. खासकर किशनगंज के पोठिया प्रखंड में आदिवासियों ने जाकर चाय बगानों पर कब्जा कर लिया था और काम ठप करा दिया था. इस विवाद के बाद बंगाल से आये टी प्लांटरों ने बगान बेचकर वापस लौटने में ही भलाई समझी. इस मामले में दफ्तरी ने कहा कि अगर सौ-पचास एकड़ के प्लॉट के बीच एक दो एकड़ कहीं भूदान की जमीन थी तो इसे इतना विवाद का मुद्दा नहीं बनाना चाहिए था. अब बीच बगान से एक एकड़ जमीन तो वापस नहीं किया जा सकता. इसके बदले में कहीं और जमीन दी जा सकती थी.

कुल मिलाकर तरह-तरह के विवाद भी किशनगंज में चाय की खेती के विकास में बाधक बने. दफ्तरी ने भी अपना पैसा अब दूसरे कारोबारों में लगाना शुरू कर दिया है. हालांकि किशनगंज में आज भी 20-25 हजार एकड़ जमीन में चाय की खेती होती है. बड़े बगान वाले सिर्फ दफ्तरी ही हैं, उनका अपना प्रोसेसिंग प्लांट भी है. मगर छोटे-छोटे बगान मालिकों की संख्या काफी है. ऐसे ही कई बगानों की यात्रा हमने की. ये लोग मूलतः किसान हैं. चाय की पत्ती उगाते हैं और तोड़कर बेचते हैं. मौसम के हिसाब से पत्तियों की कीमत घटती-बढ़ती रहती है. कभी 25 रुपये किलो तक चली जाती है तो कभी दो रुपये प्रति किलो में भी बेचना पड़ता है. मजदूरी की दर तीन रुपये प्रति किलो फिक्स है. ऐसे में छोटे बगान मालिक कभी फायदे में रहते हैं तो कभी नुकसान में.

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चुंकि ये किसान चाय की हरी पत्तियां ही बेचते हैं, इसलिए उन्हें अच्छा रेट नहीं मिलता. अगर इन्हें प्रॉसेस करके बेचा जाये तो खराब से खराब चाय की पत्ती भी 200 से 250 रुपये किलो तक बिकती है. मगर प्रॉसेसिंग यूनिट का अपना खर्चा है साथ में उसके लिए बड़ी मात्रा में उत्पादन, ब्रांडिंग और वितरण नेटवर्क की जरूरत पड़ती है.

इसके बावजूद दूसरी फसलों के मुकाबले चाय की खेती उतनी नुकसानदेह नहीं है. चाय का एक पौधा सौ साल तक जिंदा रहता है. और महीने में कम से कम दो बार इससे पत्तियां तोड़ी जा सकती है. मुख्य खर्च सिंचाई और मजदूरी का होता है. जाहिर सी बात है कि जिन इलाकों में चाय की खेती हो सकती है, वहां के किसानों के लिए यह फायदे का ही धंधा होगा. कम से कम उन फसलों से बेहतर होगा, जिनमें हर साल किसान लुटते-पिटते हैं. मगर इसके लिए बड़े पैमाने पर सरकारी सहयोग की आवश्यकता है. एक बढ़िया पॉलिसी बनाकर प्रोत्साहन दिये जाने की जरूरत है. अगर ऑर्गेनिक चाय को प्रोमोट किया जाये तो उसकी अच्छी कीमत मिल सकती है. और कोशिश की जाये तो सीमांचल बिहार का टी-हब बन सकता है. मगर इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है. क्या यह इच्छाशक्ति कोई सरकार दिखा.

(बिहार कवरेज से साभार)

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