उत्तर प्रदेश: क्या बदल जाएगी ‘साढ़े तीन बजे’ वाली कांग्रेस?

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की रणनीति फिलहाल सपा-बसपा गठबंधन का खेल खराब करने की है.

WrittenBy:मोहम्मद फैसल
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उत्तर प्रदेश में सियासी तौर पर हाशिये पर पहुंच चुकी कांग्रेस के लिए ये परीक्षा की घड़ी हैं. लगभग पिछले तीन दशक से प्रदेश की सत्ता से दूर कांग्रेस अपने कम्फर्ट जोन में पहुंच चुकी हैं. उत्तर प्रदेश में राजनीतिक गलियारों में एक कहावत हैं कि कांग्रेस अब साढ़े तीन बजे वाली पार्टी हो चुकी हैं. आराम से कलफदार कुर्ते में तैयार नेताजी, बांह हमेशा सीधी कि कहीं कुर्ते का कलफ न ख़राब हो जाये, दिन बीतने के बाद साढ़े तीन बजे एसयूवी से मॉल एवेन्यू स्थित नेहरु भवन पहुंचते हैं, एक चक्कर लगाकर, लम्बे-लम्बे नमस्कार, फिर बाहर चाय-कॉफ़ी का लुत्फ़, कुछ मीडियाकर्मियों से संवाद और दिनचर्या ख़त्म.

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लेकिन इधर कुछ बदला हैं. अब प्रियंका गांधी कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव हैं और पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी. कांग्रेस के लिए वो एक ब्रह्मास्त्र की तरह हैं जिनके सक्रिय राजनीति में आने की बात जब तब उठती रहती थी. कांग्रेस की बीट देखने वाले पत्रकारों के लिए वो एक सदाबहार स्टोरी की तरह थी. जब कुछ न हो तो रिपोर्टर दो स्रोत और एक नेता की बाइट जुटाकर लिख दिया करते थे- ‘क्या प्रियंका उत्तर प्रदेश में राजनितिक विरासत संभालेंगी?’

फिलहाल प्रियंका आ चुकी हैं, रोड शो भी हो चुका है, मैराथन बैठक भी कर ली हैं, कार्यकर्ताओ और नेताओं से मुलाकातों का दौर भी हो चुका है और अब तो लोकसभा चुनाव भी करीब हैं.

क्या बदलाव दिख रहा हैं?

बदलाव तो है. नेहरु भवन की रंगाई-पुताई हो चुकी हैं. अशोक के पेड़ों की छंटाई भी हो चुकी हैं. कुछ नए कमरे तैयार किये जा रहे हैं. मीडिया सेक्शन भी नए तरीके से बन रहा हैं. बाहर अब गाड़ियां ज्यादा हैं, लोग भी आने लगे हैं, लॉन में प्लास्टिक की कुर्सियां पड़ चुकी हैं. ऑफिस अब साढ़े तीन बजे नहीं बल्कि सुबह से गुलज़ार हो जाता हैं. नेतागण भी अब कुर्सी खिसका कर पूरी धूप लेते हैं शायद अब कोई कम्प्रोमाइज़ करने के मूड में नहीं हैं, सबको पूरी धूप चाहिए.

अखबारों में भी कांग्रेस को जगह मिल रही है. छोटी छोटी बातें नोटिस की जा रही हैं. जैसे प्रियंका और राहुल जब अमौसी से नेहरु भवन पहुंचे तो 15 किलोमीटर का फासला कितने घंटे में तय हुआ, प्रियंका पहली बार क्या बोलीं, रास्ते में किस बच्ची को गले लगाया, उसी बस से चली जो पंजाब में रोड शो में राहुल ने इस्तेमाल की थी, बिजली के तार में उलझी तो खुली जीप पर सवार हुई, थोड़ा ज़मीन के और करीब हुई, रास्ते में गांधी, पटेल और डॉ आंबेडकर की मूर्ति को माला पहनाई इत्यादि.

ये बदलाव तो लखनऊ में था. ज़िलों में भी कुछ हलचल हो रही हैं. लोग चर्चा करते हैं. कई ज़िलों में कांग्रेस एक इनोवा के बराबर बची थी यानी एक इनोवा में सारे नेता आ जाते और लखनऊ हो आते. अब वहां से कई-कई गाड़ियां भर कर नेता-कार्यकर्ता आ रहे हैं. चुनाव लड़ने वाले बढ़ गए हैं. होर्डिंग में फोटो छपवाने वालों की संख्या भी बढ़ गई है.

वैसे प्रियंका ने अपनी पहली विजिट में थोड़ा काम किया. ऑफिस में लोगों से मिली. सवाल पूछे, बूथ पर वोट पूछे, कब से कांग्रेस में हैं और तमाम नेताओं के पसीने छूट गए. हर चीज़ डायरी में नोट की. गुटबाजी के बारे में जानकारी ली, सोशल मीडिया पर उपस्थिति के बारे में पूछा. ये वर्किंग ठीक ही हैं, सिर्फ काम नहीं होना चाहिए बल्कि लगना भी चाहिए कि काम हो रहा हैं.

राजनीतिक सफ़लता

ऊपर लिखी सारी बातें सिर्फ कॉस्मेटिक हैं. यानी रंगाई-पुताई. इन सब बातों का महत्व सिर्फ तब होता है जब कोई पार्टी चुनाव जीत जाये और ये बाते मीडिया में छपें इस आशय के साथ कि बारीकी से बहुत मेहनत की गयी और सूत्रधार को चाणक्य की भूमिका दे दी जाये. असलियत में चुनावी जीत में इन बातों का बहुत महत्व नहीं रहता. चुनाव ज़मीन और रणनीति से लड़ा जाता हैं. इस बात को मान लीजिये कि प्रियंका गांधी के पास कोई जादू की छड़ी नहीं हैं कि वो सब कुछ तुरंत ठीक कर देंगी. चुनाव इतने करीब हैं कि ना बूथ लेवल समिति बन सकती है और ना ही सारी जिला यूनिटें पुनर्जीवित की जा सकती हैं. ज़मीनी तौर पर कांग्रेस को संगठनात्मक रूप से मज़बूत करना संभव नहीं हैं.

अब बचती हैं राजनीतिक रणनीति. अब तक के क़दमों से वो ठीक निशाने पर लग रही हैं. कल ही कांग्रेस ने 15 उम्मीदवारों की सूची जारी की है जिसमें 11 नाम उत्तर प्रदेश के हैं. अभी तक किसी पार्टी ने सूची अधिकृत रूप से जारी नहीं की थी. फिर कांग्रेस ने क्यों कर दी? मामला साफ़ हैं उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन में कांग्रेस को यथोचित सीट नहीं मिल रही हैं. सिर्फ दो सीटें (अमेठी, राहुल गांधी और रायबरेली, सोनिया गांधी) गठबंधन ने कांग्रेस के लिए छोड़ दी हैं. उसपर से सपा प्रमुख अखिलेश यादव का ये कहना कि कांग्रेस गठबंधन का हिस्सा है. इन सबसे मामला सुलझने से ज्यादा उलझ गया है.

फिलहाल कांग्रेस की सूची में जो नाम और सीट हैं उसमें से कुछ को छोड़ दें तो पार्टी ने ये इशारा दे दिया हैं कि कम से कम ये सीट तो हम लड़ेंगे ही. उम्मीदवारों की घोषणआ के साथ ही कांग्रेस में हलचल कुछ ऐसी हो रही हैं जो सपा-बसपा के गठबंधन के लिए बहुत फायदेमंद नहीं है. कांग्रेस ढूंढ़-ढूंढ़ कर ऐसे लोगों को शामिल कर रही है या फिर लोग शामिल हो रहे हैं जो गठबंधन के उम्मीदवारों को नुकसान पहुंचाने की स्थिति में हैं. जैसे सीतापुर से पूर्व विधायक जासमीर अंसारी और उनकी पत्नी पूर्व सांसद कैसरजहां, डुमरियागंज से पूर्व सांसद मोहम्मद मुकीम, फतेहपुर से पूर्व सांसद राकेश सचान, बहराइच से सांसद सावित्री बाई फुले, अमरोहा से पूर्व विधायक मोहम्मद अकिल, पूर्व सांसद और विधायक अवतार सिंह भड़ाना, घोसी के पूर्व सांसद बालकृष्ण चौहान, जालौन से बसपा के पूर्व सांसद बृजलाल खाबरी, देवरिया से बसपा के पूर्व उम्मीदवार नियाज़ अहमद इत्यादि.

ये वो नेता हैं जो हर कीमत पर चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं. ये वो नाम हैं जो सपा, बसपा या फिर भाजपा से अलग-अलग मौकों पर चुनाव लड़ या जीत चुके हैं. इनका अपने-अपने क्षेत्र में अच्छा प्रभाव हैं. इनके लड़ने से सीधा नुकसान सपा-बसपा गठबंधन को होगा. कांग्रेस की यह रणनीति अगर 15-20 सीट पर काम कर गई तो प्रदेश के नतीजों में भारी अंतर आ सकता है.

कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं हैं. यूपी में उसके कुल दो सांसद हैं. अगर उसको गठबंधन में 20 सीट भी मिलती हैं तो वो कितनी जीत लेगी और अगर वो अकेली लड़ेगी तो कितनी जीत लेगी. दोनों स्थिति में बहुत ज्यादा सीट का अंतर नहीं होगा. लेकिन अकेले लड़ने पर वो गठबंधन को कितना नुकसान पहुंचायेगी, ये बात महत्वपूर्ण है.

राजनीतिक मजबूती

वर्तमान में कांग्रेस के पास अपना कोई वोट बैंक प्रदेश में नहीं बचा है. उत्तर प्रदेश की राजनीति मंडल के बाद जाति के इर्द गिर्द घूमती रही है और कांग्रेस के पास कोई अकेली ऐसी जाति नहीं हैं जो उसकी वोटर कही जाये. इस दावे में बहुत दम नहीं है कि प्रियंका के आने से ब्राह्मण वोटर उसकी तरफ चला जाएगा. अगर ऐसा होता तो वह राहुल गांधी के साथ क्यों नहीं आया? ले दे कर बचता मुसलमान है जिसको वो अपनी तरफ खींच सकते हैं. राजनीति में जब हवा बनती हैं तो जातीय समीकरण टूट भी जाते हैं. जैसे 2009 में फिरोजाबाद के उपचुनाव में हुआ जब कांग्रेस के राजबब्बर ने सपा की डिंपल यादव को हरा दिया था. उस समय भी कांग्रेस के पास न कोई बूथ की टीम थी और ना ही संगठन लेकिन वो चुनाव जीत गई.

कांग्रेस को अब सिर्फ लोगों को शामिल ही नहीं करना होगा बल्कि लोगों को बाहर भी करना होगा. ये बात किसी से छुपी नहीं हैं कि कांग्रेस के तमाम नेता प्रदेश में सत्ताधारी दल, अन्य राजनीतिक दल से इतने मधुर संबंध रखते हैं कि ये स्थिति पार्टी के लिए ही नुकसानदेह हो जाती है. इसके अलावा कांग्रेस में तमाम ऐसे नेता भी हैं जिनका कार्यक्षेत्र सिर्फ नेहरु भवन कार्यालय, वहां लगे टीवी सेट और राहुल-प्रियंका के चमत्कार तक ही सिमटा हैं.

प्रियंका के आने से भीड़ तो बढ़ी हैं लेकिन वोट बढ़ाने के लिए बाकी नेताओं को वोटरों तक जाना होगा.

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