‘एक डिस्लेक्सिक बच्चे की मां होना कैसा होता है?’

प्रधानमंत्री ने मजाक में उड़ा दिया, सभा में ताली बज गई. एक मां अपने डिस्लेक्सिक बच्चे के जीवन, उसकी चुनौतियों, संघर्षों को साझा कर रही है.

WrittenBy:स्वाति अर्जुन
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मैं ये ब्लॉग लिखने का मौका इसलिए ख़ुद को दे रही हूं क्योंकि पिछले कुछ दिनों से लगातार डिस्लेक्सिया पर सार्वजनिक रूप से बहस चल रही है. इस बहस की वजह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक वीडियो कॉन्फ्रेंस वाली बातचीत है, जिसमें वे आईआईटी ख़ड़गपुर के इंजीनियरिंग के छात्रों से बातचीत कर रहे थे. उस बातचीत के दौरान इंजीनियरिंग की छात्रा ने उन्हें बताया कि वो डिस्लेक्सिया से पीड़ित बच्चों की मदद के लिए एक ख़ास तरह के आविष्कार पर काम कर रही हैं तब पीएम ने, अराजनीतिक छात्रों की उस एजुकेशनल बातचीत को एक पॉलिटिकल इवेंट में बदल दिया. उन्होंने छद्म रूप से अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी राहुल गांधी का मज़ाक उड़ाया, उनकी मां को भी बीच में घसीटा.

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तब से ये मुद्दा लगातार हर तरफ़ छाया है. हर कोई ये बताने और समझाने की कोशिश में है कि कैसे हमें ऐसे बच्चों का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए, उनके साथ सहानुभूति जताना चाहिए, वे विकलांग नहीं है, प्रधानमंत्री को ऐसा नहीं करना चाहिए आदि..आदि. मैं इस बहस को दूसरी तरफ़ लेकर जाना चाहती हूं कि अगर कोई बच्चा डिस्लेक्सिया की समस्या से जूझ रहा है तो उसका असर कैसे उसकी जिंदगी और उसके आस-पास रह रहे लोगों की ज़िंदगियों पर पड़ता है. कैसे जीवन की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं, कई दफा जीवन का ढर्रा भी.

मैं एक 12 साल के बेटे की मां हूं, जो इस समय सातवीं क्लास में है और उसके फाइनल एक्ज़ाम्स चल रहे हैं. यह नियमित हो चुका है, जितने दिन उसकी परीक्षा चलती है, तक़रीबन एक महीने मैं अपना सारा काम-धाम रोक-कर 24 घंटे उसके साथ रहती हूं, क्योंकि वो माइल्ड डिस्लेक्सिया और डिस्कैल्कुलिया से लड़ रहा है. मेरा बेटा जन्म से आईयूजीआर बेबी रहा (ऐसे बच्चे जिनका जन्म तो नौ महीने पर हुआ पर गर्भ में जिनका विकास 7 महीने के बाद किसी मेडिकल जटिलताओं के कारण रुक जाता है), इस कारण वो जन्म से ही शारीरिक तौर पर अपने उम्र के बच्चों की तुलना में थोड़ा कमज़ोर रहा, इसलिए पढ़ाई में वो हमेशा से ऐवरेज ही रहा है. मैंने भी कभी उस पर पढ़ाई में 80-90 प्रतिशत नंबर लाने का दबाव नहीं बनाया.

लेकिन, पिछले साल जब वो छठी क्लास में गया तो अचानक से उसके नंबर बहुत कम आने लगे– मसलन, 80 में 10 या 12. पहले-पहल मुझे लगा कि नई क्लास में जाने के कारण सिलेबस टफ़ है इसलिए ऐसा हुआ होगा, या फिर बच्चे ने लापरवाही की होगी, वगैरह… वगैरह. मैंने उसके टीचर्स से मिलकर बात की और अगली परीक्षा तक ख़ुद से उसकी पढ़ाई में मदद किया. स्कूल के टीचर ने भी ऐसा ही किया. वो स्कूल रेगुलर जाता, क्लास में मौख़िक रूप से हर सवाल के जवाब देता, क्लास-वर्क काम पूरा करता, होमवर्क भी करता, लेकिन परीक्षा में उसके उत्तर पत्र खाली होते. वो ब्लैंक पन्ने उसकी बेबसी बयां करते थे.

मेरे लिए यह चिंताजनक स्थिति थी, बच्चे के साथ-साथ, मैं और उसके टीचर्स भी सदमे में थे. वे भी कहने लगे कि वो जितना मेहनत करता है, उसका 10 प्रतिशत भी उसके मार्कशीट पर नज़र नहीं आता. स्कूल की टीचर के साथ बहुत सोच-विचार के बात हम ये नतीजे पर पहुंचे कि उसे कोई दिक्कत है, जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं. फ़िर सवाल उठा कि हम उस दिक्कत तक पहुंचे कैसे? मैंने उससे हर तरह से बात की, प्यार से पूछा, समझाया पर वो अपनी दिक्कत मुझे बता पाने में असमर्थ था.

ज़्यादा दबाव डालने पर रोने लगता, अपने आपको मारने और कोसने लगा, ख़ुद के लिए फेल्योर, लूज़र और डफ़र जैसे शब्दों का प्रयोग करने लगा. (जो शायद उसके क्लास के बच्चे उसके लिए करने लगे थे). एक मां के तौर पर मेरे लिए ये बहुत ही तकलीफ़देह वक्त़ था, आपने जिस बच्चे को जन्म दिया, उसे ख़ुद को सज़ा देते हुए देखना या ऐसी सोच विकसित करना किसी भी मां के लिए अच्छा अनुभव नहीं होता.

लेकिन मैंने हिम्मत न हारते हुए, अगला क़दम उठाया और बेटे को पहले साइक्याट्रिस्ट और बाद में क्लीनिक साईक्लॉजिस्ट के पास ले गई. जहां उसका साईको-थेरेपी सेशन शुरु हुआ. ये सेशंस काफी महंगे होते हैं– वहां आपको एक घंटे के लिए 1800 से 3000 की फीस देनी होती है. ख़ैर चार से पांच सेशंस के बाद जब बेटे का डॉक्टर पर विश्वास बना और दोनों के बीच दोस्ती हुई, तब डॉक्टर ने पहले उसके साथ कुछ कॉग्निटिव गेम्स खेलने शुरु किये जहां उसकी क्षमताओं का आकलन करने के बाद उसका कॉग्निटिव एबिलिटी टेस्ट लिया. इस टेस्ट के नतीजे से हमें पता चला कि हमारा बच्चा सिर्फ़ डिस्लेक्सिया नहीं बल्कि डिस्कैल्कुलिया से भी पीड़ित है. डिस्लेक्सिया जैसा लोग जान रहे हैं अक्षरों के साथ आने वाली दिक्कत है– जहां अक्षर बेढंगे, उल्टे और आड़े-तिरछे नज़र आते हैं और बच्चे उसे पहचान नहीं पाते और डिस्कैल्कुलिया में यही समस्या अंकों के साथ आती है. जहां आपको अंक भी आड़े–तिरछे, उल्टे आकार के दिखने लगते हैं. इस दौरान मुझे ये भी पता चला कि ये डिसएबिलिटी अनुवांशिक भी होती है– यानि मुझे जब मैथ्स करते वक्त उसके अंक कीड़े-मकोड़ों की तरह नज़र आया करते थे, तब असल में वो कैल्कुलिया की समस्या थी, जो आज तक बनी हुई है.

अब बात संघर्ष की जो मेरा एक मां के तौर पर अभी भी जारी है. इसकी शुरूआत भी घर से हुई, क्योंकि मेरे पति इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं थे कि उनके बेटे को किसी तरह की कोई लर्निंग डिसएबिलिटी हो सकती है. वे खुद मैथ्स के अच्छे स्टूडेंट रहे हैं, इसलिए उन्होंने बेटे की कमज़ोरी की पूरी ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर डाल दी. उनको ये भी लगता है कि एक ठाकुर का बेटा भला पढ़ाई में कमज़ोर कैसे हो सकता है?

स्कूल के कहने के बाद भी बच्चे के कॉग्निटिव टेस्ट के लिए वो तैयार नहीं थे. जिस कारण ये टेस्ट करवाने में तीन महीने की देरी हुई, और वे तैयार हों इसके लिए साईक्लॉजिस्ट के साथ उनकी एक मीटिंग करायी गई. तब जाकर हम पहला कदम बढ़ा सके. ये अच्छा रहा कि जिस स्कूल में बच्चा पढ़ता है वो स्कूल इस मामले में जागरूक है, और वहां एक स्पेशल एजुकेटर भी है. वो स्कूल के ऐसे सभी बच्चों को गाइड करती है, इसके अलावा एक काउंसलर है जो बच्चे की मानसिक दुविधाओं को दूर करने की कोशिश करती है.

पिछले एक साल से मैं बेटे को हर शनिवार-इतवार को फोर्टिस अस्पताल में स्पेशल एजुकेशन के लिए लेकर जाती हूं, जहां वो अलग तरीके से कोर्स की किताबें, चैप्टर्स और विषय पढ़ना सीखता है. ये काफी रोचक और नया तरीका होता है. इस पूरे क्लास के दौरान मुझे भी साथ रहना होता है और मैं पढ़ाने का ये तरीका सीखती हूं– ताकि घर पर आकर उसी तरीके से बच्चे को पढ़ा सकूं. स्पेशल एजुकेटर के अलावा उसकी साईको-थेरेपी की भी क्लास चलती है, जहां वो अपनी मानसिक उलझनों, स्कूल और घर के आस-पास के बच्चों, परिवार या अन्य किसी चीज़ से होने वाली समस्याओं का शेयर करता है. जो बाद में मुझे बताया जाता है और मैं डॉक्टर के हिसाब से अपने व्यवहार में बदलाव लाती हूं.

ये तो तयबद्ध चीज़ें हैं, जो हमें करनी होती है. एक डिस्लेक्सिक बच्चे की परिवार वालों को बहुत अलर्ट रहना पड़ता है. कुछ भी हो जाए बच्चा 10 में 0 ले आए, तो भी हम उसे ये नहीं जता सकते कि वो नाकाम है, वैसी स्थिती में भी मैं यही कहती हूं कि कोई बात नहीं – अगली बार. तुमने मुझसे शेयर किया ये अच्छी बात है. क्योंकि ख़राब नंबर आने के कारण वो अपने टेस्ट पेपर्स छुपाने लग गया था. मुझे दिन में कई-कई बार उसे गले लगाना होता है, उसे प्यार-दुलार देना पड़ता है, उसकी तारीफ़ करनी पड़ती है, उस पर भरोसा जताना प़ड़ता है, उसको कहना पड़ता है कि ऐसा कुछ भी नहीं जो तुम्हारे बस में नहीं है. इन सबके बावजूद अगर मनमाफ़िक नतीजे नहीं आते हैं तो मैं कहती हूं कि कोई बात नहीं, हमने ईमानदारी से कोशिश की, वो बड़ी बात है.

लेकिन सोचकर देखिए कि अगर कोई इंसान, किसी भी अन्य व्यक्ति के मुक़ाबले किसी काम को करने के लिए उससे चार गुणा ज़्यादा मेहनत करे और उसे अंक दूसरे व्यक्ति से आधे मिलें तो कैसा लगेगा? और ये बार-बार होता हो, लगातार होता हो तो? ये व्यक्ति को अंदर से तोड़ देता है. ऐसे में एक बच्चा जो एक ऐसे समाज का हिस्सा है, जहां हर कदम पर चुनौतियां है, छल-कपट है, नीचा दिखाना, धोखा देना, मज़ाक उड़ाना और जहां कामयाबियों पर डंका बजाता है, वहां मुझे अपने बच्चे को हर वक्त़ ये बताना होता है कि वो हमारी लिए सबसे स्पेशल, सबसे बहुमूल्य और सफल है, क्योंकि उसमें ऐसा बहुत कुछ है जो क्लास टॉप करने वाले स्टूडेंट में नहीं है.

लेकिन ऐसा करते हुए, अपने बच्चे का सुरक्षा कवच बनने के लिए मुझे कई मोर्चे पर समझौता करना पड़ा है. अपना करियर, अपना इच्छाएं, अपने एंबिशंस सब पर, अगर रोक न  भी कहें तो एक विराम तो लगाना ही पड़ा है. क्योंकि हम सिर्फ़ प्रोफेशनल हेल्प के भरोसे उसे नहीं छोड़ सकते हैं. ये बातें कई बार मुझे परेशान भी करती हैं लेकिन मुझे विश्वास है कि ये वक्त़ भी गुज़र जाएगा. आख़िरकार हम अपने बच्चे के साथ हमेशा साथ नहीं रहने वाले हैं. एक समय आएगा जब उसे इस दुनिया का सामना ख़ुद करना होगा, सारी मुश्किलें ख़ुद दूर करनी होंगी, हर लड़ाई ख़ुद लड़नी होगी. इसलिए ये मेरी या हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम समय रहते उसे इतनी हिम्मत और आत्मविश्वास दे दें कि कल को वो अपने आपको असहाय न समझे, बेबसी में या कमज़ोर वक्त़ में खुद को नुकसान न पहुंचाए.

ऐसी स्थिती में इस समस्या को लेकर जो लोगों में अज्ञानता है, जो इसे कम कर के आंकते हैं, जो इसे किसी तरह की दिमागी समस्या समझते हैं, उसे दूर करने की ज़िम्मेदारी किसकी है? सरकार की, समाज की या मीडिया की. ज़ाहिर है हम सब की. क्योंकि ऐसा न करने पर इसका नतीजा भी हम सबको मिलकर झेलना पड़ेगा. एक समाज के तौर पर एक देश के तौर पर. हमारे देश में इस वक्त़ लगभग साढ़े तीन करोड मिलियन बच्चे इस समस्या से पीड़ित है, यानि देश में बच्चों की कुल आबादी का 15%. ज़रा सोचकर देखें कि अगर हम इन बच्चों की समस्या को समझेंगे नहीं, उन्हें गले नहीं लगाएंगे, उनके दिल-दिमाग और कोमल जीवन में उठने वाले तूफ़ान को थामेंगे नहीं तो देश का भविष्य कैसा होगा. क्या आप कह पाएंगे कि- हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के.

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