भारी भीड़, खूबसूरत वक्ताओं और राजधानी की अभिजात्य गोलबंदी (इंडिया इंटरनेशनल सेंटर) में संपन्न हुआ राजकमल प्रकाशन समूह का 70वां प्रकाशन दिवस.
दूसरी भाषाओं में क्या स्थिति है नहीं पता, लेकिन हिंदी में प्रत्येक विचार पर्व अंततः वर्चस्व-प्रदर्शन और पीआर पर्व में पर्यवसित हो जाता है. इस हिंदी में आए कुछ शब्द मुश्किल लग सकते हैं, लेकिन मैं इस हिंदी को बचाना चाहता हूं. इसकी रीढ़ को इसके चंद्रबिंदु और पूर्णविराम की भांति जहां तक मुमकिन हो बचाना चाहता हूं. पर जैसा कि इन पंक्तियों से ज़ाहिर है, यह दुरूह होता जा रहा है. फिर भी मैं इसकी संस्कृतनिष्ठता और इसके खड़ेपन को बचाना चाहता हूं जिसका ज़िक्र आज से कुछ दशक पूर्व अज्ञेय ने किया और जिसे अशोक वाजपेयी ने इन पंक्तियों के लेखक के साथ हुई एक बातचीत में दुहराया कि हिंदी में खड़ी बोली जो उसकी केंद्रीय बोली बन गई है, वह खड़ी सिर्फ़ इसलिए ही नहीं कही जाती है कि वह अक्खड़ है या कि ब्रज और अवधी के मुक़ाबले इसमें सांगीतिकता कम है और यह लट्ठमार जैसी है. यह इसलिए भी खड़ी है, क्योंकि यह सदा सत्ता के विरुद्ध खड़ी रही है. यह एक बड़ा गुण है भाषा का और यह भी कि इसमें समावेशिता भी बहुत है.
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Contributeसमय: 28 फ़रवरी 2019
अवसर: राजकमल प्रकाशन का 70वां प्रकाशन दिवस.
स्थान: नई दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर का मल्टीपर्पस हॉल.
मूल विषय: भविष्य के स्वर: विचार पर्व
संचालन: संजीव कुमार
वक्ता: अनिल यादव, सायमा, अनुज लुगुन, अंकिता आनंद, अनिल आहूजा, गौरव सोलंकी, विनीत कुमार.
आज़ादी के बाद के श्रेष्ठ हिंदी लेखन का पर्याय बन चुके राजकमल प्रकाशन समूह के इस पर्व का प्रारंभ इस समूह के अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी के वक्तव्य से हुआ जिन्होंने साहित्य और समय की मौजूदा स्थिति (जिसमें पास-पड़ोस अशांत है और अभिवावक दिवंगत होते जा रहे हैं) का ख़याल रखते हुए इस अवसर की औपचारिकताओं और राजकमल प्रकाशन की योजनाओं को अभिव्यक्त किया. इस अभिव्यक्ति की सबसे बुनियादी बात यह है कि साहित्य भवन प्राइवेट लिमिटेड (स्थापना वर्ष: 1917), पूर्वोदय प्रकाशन (स्थापना वर्ष: 1951), सारांश प्रकाशन (स्थापना वर्ष: 1994), रेमाधव प्रकाशन (स्थापना वर्ष: 2005) जैसे प्रकाशनों का अब राजकमल प्रकाशन समूह में विलय हो गया है. इस समूह के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरुपम इस विलय को हिंदी और कई भारतीय भाषाओं की अनेक दुर्लभ अनूदित कृतियों को संरक्षित करने और भावी पीढ़ी को सौंपने वाला क़दम बता चुके हैं. यहां उन्होंने इस विचार पर्व को राजकमल के हीरक जयंती समारोह यानी आगामी पांच वर्षों तक के लिए प्रस्तावित किया और कहा कि क़ालीन के नीचे दबा दिए गए, जनेऊ में गांठ की तरह और जूते में कील की तरह ठोक दिए गए सवालों को अब उठाने की ज़रूरत है.
इस ओजपूर्ण बयान के बाद संजीव कुमार (जो ख़ुद को वेटर और वक्ताओं को व्यंजन कह चुके थे) ने अनिल यादव को आमंत्रित किया. अनिल इन दिनों दिल्ली में हैं, लेकिन उन्हें देखकर गिरिराज किराडू के अब तक अप्रकाशित एक कविता-संग्रह का प्रकाशित शीर्षक बरबस याद आता है—‘सारी दुनिया रंगा’. बहरहाल, अनिल का वक्तव्य हिंदी में भ्रम-निर्माण और अपनी भाषा में सोचने और सपने देखने की वकालत से ख़त्म हुआ, शुरू वह हिंदी में दुहराव की बात से हुआ. उन्होंने कहा कि यथार्थ ने हमारे लेखक-चिंतक को पीछे छोड़ दिया है. उसका उसके अतीत से जुड़ाव क्षीण हो चला है. तस्वीरों और सूचनाओं की बमबारी ने हमारी विचार-प्रक्रिया को चकाचौंध करके कुंद कर दिया है. आज छवियों से बहुत कुछ तय हो रहा है. आइडियोलॉजी इमेजोलॉजी में बदल गई है. उन्होंने कथेतर गद्य में संभावनाएं देखते हुए भविष्य में विभिन्न क्षेत्रों से किताबें आने की बात कही. उनका विषय ‘छूटता जीवन, आता हुआ साहित्य’ था.
संजीव कुमार ने एक छद्म अतीत गढ़े जाने की सामयिकता की तरफ़ ध्यान दिलाते हुए रेडियो जॉकी सायमा से ‘भाषा की नागरिकता’ पर अपनी बात रखने को कहा. सायमा भाषा को दोस्त की तरह देखती हैं और मानती हैं कि जिन्हें भाषा आती है उनका दायित्व है कि वह उसे लोगों के बीच ले जाएं, उन्हें सिखाएं. इन बातों को उन्होंने अपने बचपन, परिवार, स्कूल और कार्यालय के अनुभवों से आधार दिया.
यहां आकर इस दौर का सबसे ज़रूरी वाक्य (और जिन्हें पहले से हासिल नहीं है, उनके लिए इस विचार पर्व का हासिल) संजीव कुमार ने रविकांत के हवाले से कहा—‘भाषा बदचलन होती है.’
कवि-लेखक अनुज लुगुन अपने विषय (आदिवासी साहित्य: संभावनाएं और दिशाएं, सात मिनट में) के मर्मी विद्वान प्रतीत हुए. उनके पास अपनी परंपरा, पानी और ज़मीन को समझने का गाढ़ा विवेक है. उन्हें सुनते हुए कुछ पाया जा सकता है. यों लगता है कि वह दिए गए विषय पर सात नहीं 70 नहीं 170 मिनट बोल सकते हैं. यह बात इस अवसर पर उपस्थित शेष छह वक्ताओं के लिए नहीं कही जा सकती. उनमें क्रमश: नई बात का, समझ का, गहराई का, मौलिकता का, सरोकार का और गंभीरता का अभाव नज़र आया. अनुज ने आदिवासी विमर्श में अस्मिता और अस्मितावाद के फ़र्क़ को स्पष्ट करते हुए मातृभाषाओं सहित दूसरी भारतीय भाषाओं में उपलब्ध आदिवासी साहित्य की विपुलता को व्यक्त किया. यह समय का अभाव ही रहा होगा जो उनके वक्तव्य में सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश और उस पर रोक का ज़िक्र न आ सका जिससे 16 राज्यों के 10 लाख से ज़्यादा आदिवासी प्रभावित और अपनी ज़मीन से बेदख़ल होने जा रहे थे.
कवयित्री और सामाजिक कार्यकर्ता अंकिता आनंद ने अपने विषय (लेखन से बाहर का स्त्री-जीवन) को देश भर में जारी स्त्री-हिंसा और उससे जुड़ी सूचनाओं की रोशनी में देखने की कोशिश की. उनके पर्चे को एक नारी इंस्पेक्टर की संवेदनशील रिपोर्ट कहा जा सकता है. इस रिपोर्ट ने उनके बाद आने वालों वक्ताओं के लिए स्टडी, रिसर्च और सूचनाओं के दरवाज़े खोल दिए. लिहाज़ा अनिल आहूजा ने 10 साल पुरानी एक रिसर्च के सहारे बताया कि एक व्यक्ति एक दिन में क़रीब 28 लाख छवियों से गुज़रता है. नौ साल पुरानी एक रिसर्च के सहारे उन्होंने बताया कि रोज़ 200 स्पीसीज़ लुप्त हो रही है. उन्होंने इसके लिए मेंढक की नज़ीर दी जो अब सिर्फ़ हिंदी के कुएँ में बचे हुए हैं—अपने-अपने सेलफ़ोन के साथ रोज़ाना क़रीब 28 लाख छवियों से गुज़रते हुए. इमेज, डिजायन, चैलेंज, पब्लिशिंग, पैकेजिंग, मार्केट और सुपरडुपर हिट… ये अनिल आहूजा के वक्तव्य के मूल शब्द रहे. उनका विषय ‘दृश्य विस्फोट का वर्तमान और भविष्य का पुस्तक-आवरण’ था.
कहानीकार गौरव सोलंकी ने आडियो-वीडियो संसार को उभर चुके और उभर रहे लेखकों के लिए बहुत संभावनाशील घोषित किया. अपनी बेहद रिसर्चाधारित बातों के सहारे मंच से डेढ़ इंच ऊपर ख़ुद को एक ऐसी दुनिया में महसूस करते हुए जहां आत्मा जैसी कोई चीज़ नहीं बची है उन्होंने सवाल उछाला कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के दौर में लेखकों का क्या होगा? जब एक रात में हज़ारों बेस्टसेलर किताबें लिखी जा सकेंगी तब हमारे बेस्टसेलर लेखकों का क्या होगा? गौरव का विषय ‘कहानी, माध्यम और आने वाला कल’ था.
अंतिम वक्ता मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार अध्यक्षमुक्त इस सभा में अपने भीतर एक अध्यक्ष महसूस कर रहे थे, लिहाजा वह एक अध्यक्ष की तरह बोले. उन्होंने राजकमल को नामवर सिंह की कमी महसूस नहीं होने दी. नामवर कैसे वक्ता थे, सारा साहित्य संसार जानता है—आयोजकों की प्रशंसा, सूने-सुने-अनुसुने पश्चिमी नाम, पूर्व वक्ताओं से किंचित विनम्र असहमति, बीच-बीच में तालीमार जुमले और अपने विषय (भविष्य का पाठक) का द्वार बिंदुवार खोलने की चेष्टा—विनीत के वक्तव्य की विशेषताएं रहीं. उनके वक्तव्य को थोथा उड़ाकर अगर ग्रहण करें तो वह उस आशावाद से भरा हुआ रहा जिसमें भविष्य का पाठक एक लेखक से एक पाठक की तरह नहीं, एक विशेषज्ञ की तरह बात करेगा. वह उसे अभिवावक या समाज-सुधारक के रूप में नहीं देखेगा. वह लेखक की पूरी जांच करेगा. वह अपनी ख़रीदी किताब का पूरा मूल्य वसूलना चाहेगा. वह उसकी किताब को उसके फेसबुक पोस्ट (लप्रेकादि) से अलगाना चाहेगा. वह प्रेम कविताएं लिखने वाले कवि के घर में घुस जाएगा और उससे पूछेगा कि आपके व्यक्तिगत जीवन और लेखकीय जीवन में फांक क्यों है? वह आज के चिरकुट भक्तों की तरह न होकर कृष्ण काव्य परंपरा का भक्त होगा जो अपने आराध्य को चुनौती देगा.
आयोजनोपरांत सभाकक्ष के बाहर खड़ी हिंदी अपने हाथों में प्याले थामे खड़ी हुई थी. कुछ लघु मानव, कुछ महा मानव, दो चे ग्वेरा, दो साइबेरियन इंटेलेक्चुअल, नौ पोस्ट मॉर्डनिस्ट (शैली साभार: वीरेन डंगवाल) और एक चिर उदास कवि बीड़ी सुलगाए—हिंदी की केंद्रीय स्थिति का बखान, उसका मूल रूपक—आर चेतनक्रांति और उनकी ही कविता-सा :
‘‘पावर के चार पहिए, पावर के आठ बाज़ू,
पावर के हाथ में था इंसाफ़ का तराज़ू;
पावर ने जिसे चाहा, आकाश में उछाला,
पावर ने जिसे चाहा, मारा पटक के ‘ता-ज़ू’.
पावर के सर पे पावर, पावर के तले पावर,
है और क्या ज़माना, हयरैर्की-ए-पावर;
पावर की सीढ़ियों से कुछ हांफते गए थे,
आए हैं जब से वापस, फिरते हैं लिए पावर.
पावर ने सबको बोला—जाओ दिखा के पावर,
सब दौड़ पड़े, घर से, लाए उठाके पावर;
थी जिसके पास जैसी,नुक्कड़ पे लाके रख दी,
फिर शहर-भर ने देखी, मोटर में जाके पावर.
पावर जिसे न भाए, फिरता वो सर झुकाए,
पूछो पता-ठिकाना, वो जाने क्या बताए;
जी, मैंजी, हाँजी, ना-जी, ऐसे-जी, क्या-पता-जी,
ऐसे डफ़र को पावर ख़ुद ही न मुंह लगाए.
पावर में इक कमी थी, तन्हाई से डरती थी,
चलती थी झुंड लेकर, जब घर से निकलती थी;
फिर बोलती थी ऊंचा ज्यों सामने बहरे हों,
और साथ में छिपाकर हथियार भी रखती थी.
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