नामवर सिंह: कहना तो होगा

स्मृतिशेष: 92 वर्ष के सुदीर्ध जीवन के बाद नामवर सिंह का देहावसान.

WrittenBy:अविनाश मिश्र
Date:
Article image

‘‘झूठा बनकर नामवर होने में क्या धरा है? ओह! वैसी नामवरी निष्फल है, व्यर्थ है, निरी रेत है. आत्मा को खोकर साम्राज्य पाया तो क्या पाया? वह रत्न को गंवाकर धूल का ढेर पाने से भी कमतर है.’’

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

— जैनेंद्र कुमार, ‘त्यागपत्र’ में

‘‘मेरे बारे में बात करते समय हर कोई एक शब्द का प्रयोग ज़रूर करता है, वह है— ‘विवादास्पद’. जब मैं कुछ लिखता हूं तो विवाद, जब मैं कुछ बोलता हूं तो विवाद और यहां तक कि जब मैं ख़ामोश रहता हूं तब भी विवाद होता रहता है.’’ यह कहने वाले नामवर सिंह 19 फ़रवरी बीतते-बीतते हमेशा के लिए ख़ामोश हो गए. वह हिंदी की अंतिम महानता थे. उनके नाम के साथ महान जोड़ते हुए सोचना नहीं पड़ता. कोई भी मुंह उठाकर उन्हें महान कह सकता है. लेकिन नामवर सिंह की मृत्यु उनके जीवन और मन के अनुकूल नहीं है, उनकी मृत्यु भी महान लगती, अगर वह मंच पर होती और नामवर सिंह बोलते हुए इस दुनिया से अलविदा होते. यह सब अब एक स्वप्न-चित्र सरीखा लगता है.

इस शोक की घड़ी में नामवर सिंह के जीवन से जुड़ी कुछ प्रमुख घटनाओं और उपलब्धियों के विवरणों को व्यक्त करना चाहिए, लेकिन वे सब तरफ़ इस क़दर फैले हुए हैं कि यहां यह यत्न एक और दुहराव भर होगा. 92 वर्ष का सुदीर्घ जीवन और जिसमें आधे से ज़्यादा आयु हिंदी संसार के केंद्रीय पुरुष होने का वैभव अनुभव करते हुए बीती हो, यह सब सहज और अनिवार्य भी लगता है.

आज से 13 साल पहले यानी क़रीब 80 की उम्र में नामवर सिंह ने यह स्वीकार किया था कि वह अपने पिता की तरह अकेले हो गए हैं. पिता जो बनारस के एक गांव यानी जीयनपुर में पढ़े-लिखे अकेले आदमी थे. भरे-पूरे संयुक्त परिवार में अकेले. 80 की उम्र में आकर भी नामवर सिंह को अपने जीवन में न कुछ गर्व करने लायक़ लगता था, न कुछ शर्म करने लायक़. हां, अपनी लेखकीय-योजनाओं को पूरा न कर पाने का पश्चाताप उनमें ज़रूर था. वह कहते हैं, ‘‘मेरी कई योजनाएं हैं और वे पूरी हो नहीं पाईं. इसमें दोष किसी को नहीं देना है. इसको कहें जैसे… ऐसा संकल्प लेना है, जैसा रामविलास शर्मा ने लिया. उन्होंने संन्यास ले लिया था, किसी गोष्ठी में नहीं जाना है, कहीं भाषण देने नहीं जाना है, बैठ करके लिखना है. यह काम मैं नहीं कर सका. कमज़ोरी कह लीजिए. कोई आता है तो न करना नहीं जानता. इसलिए अब भी जो कुछ थोड़ा समय बचा है, मैं सोचता हूं कि कहीं से किसी प्रकार यह हो कि दिल्ली से बाहर जाना और दिल्ली में भी गोष्ठियों में जाना बंद करूं…’’ (देखें: अकार-17)

imageby :

इस स्वीकार के बहुत पूर्व से ही नामवर सिंह की छवि हिंदी के एक बड़े धड़े के बीच राजनीतिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक परिसर में धुंध-निर्माण और घपले करने वाले एक शातिर शख़्स की बन चुकी थी. वह जिस मंच पर भी खड़े हो जाते, वहां चीज़ें ख़राब से ख़राबतर होने लगतीं. उनके मुंह खोलते ही गड़बड़ियां शुरू हो जातीं और महान, अद्वितीय, अभिवावक… ये विशिष्ट पद-शब्द नामवर सिंह के प्रसंग में पूरी तरह न भी सही, लेकिन कुछ व्यर्थ प्रतीत होने लगते.

हिंदी के अकादमिक और प्रकाशन जगत पर एक साथ छाए रहे नामवर सिंह के भीतर का वामपंथी धीरे-धीरे ख़त्म होता गया. अंत तक आते-आते तो वह ईश्वर को याद करने लगा (देखें: नामवर सिंह पर केंद्रित एनडीटीवी इंडिया का 4 मई 2018 का प्राइम टाइम). इस सिलसिले में हिंदी के वरिष्ठ कवि-लेखक मंगलेश डबराल की ‘नामवर सिंह के आश्चर्यजनक असत्य’ शीर्षक टिप्पणी याद आती है, जिसमें वह कहते हैं, ‘‘मैं उनके निकट कभी नहीं रहा क्योंकि एक ज़माने में तीमारपुर (दिल्ली) के एक कमरे में चे ग्वेरा की फ़ोटो लगाकर रहने वाले अध्यवसायी नामवरजी के प्रति जो भावना मेरे भीतर थी, वह बाद के जेएनयू वाले, हिंदी विभागों की राजनीतिक चाशनी में आकंठ डूबे हुए, ज़्यादा योग्य लोगों की जगह कम योग्य लोगों की नियुक्तियां करने वाले, मलयज की डायरी के प्रकाशन में विलंब होने पर रघुवीर सहाय द्वारा उठाए गए सवालों के कारण उन्हें धमकाने वाले नामवरजी के प्रति—उनकी अध्यक्षता में एक-दो पुरस्कार लेने के बावजूद—नहीं रही. पश्चिम में मार्क्सवाद की नई-नई बहसों और स्थापनाओं की उनकी जानकारी और उनकी वक्तृता ज़रूर प्रभावित करती थी, लेकिन मैंने अक्सर उसका दुरुपयोग होते हुए देखा जिसका एक उदाहरण ‘सहारा समय’ के उद्घाटन पर दिखाई दिया जहां उन्होंने ‘सहारा-प्रशस्ति’ में कई दुर्लभ क़िस्म की प्राचीन सूक्तियां कह डालीं.’’ (देखें: अकार-18)

नामवर सिंह के पूरे व्यक्तित्व को अगर देखें तो वह एक ऐसे व्यक्ति नज़र आते हैं जिसका मुंह हमेशा खुला हुआ, हाथ हमेशा उठे हुए, पैर हमेशा सफ़र में हैं. और इस प्रक्रिया में ऐसे अवसर अनेक हैं जब वह मार्क्सवाद की नैतिकता को आहत करते रहे. जबकि वह प्रतिभा-पुंज, प्रखर बौद्धिक, प्रबुद्ध आलोचक, तलस्पर्शी विश्लेषक, अद्भुत वक्ता रहे… यह नामवर सिंह के चाटुकार और प्रशंसक ही नहीं, उनके विरोधी भी स्वीकार करते हैं. वह हिंदी आलोचना को उसके ठंडेपन और शुष्कता से बाहर लाए, वह उसे उसके समकालीन दायित्व और प्रतिभा-अन्वेषण के नज़दीक ले गए. लिखित और वाचिक दोनों ही माध्यमों में उन्होंने हिंदी आलोचना को उसका मूल कार्य-भार समझाने की चेष्टा की.

इस तरह देखें तो ‘एक युग का अंत’ नामवर सिंह के संदर्भ में महज़ एक रवायती जुमला नहीं है. उनके देहांत में सचमुच एक युग का अंत है, युग जो संघर्ष और प्राप्ति से, उत्कर्ष और पतन से, प्रज्ञा और मूर्खता से, शीर्ष और सीमा से, एकांत और भीड़ से, शिष्य और शत्रु से एक साथ गतिमय रहा आया. इस युग का अंत हिंदी समाज और साहित्य के लिए एक नई शुरुआत का क्षण है.

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like