बरकाती ने हिंसात्मक नारों को जिस पैमाने पर और जिन तेवरों के साथ बढ़ाया, उससे घाटी में 'ओवर ग्राउंड रेडिकलाइजेशन' बेहद तेज़ हो गया.
सरजन बरकाती ये नाम पहली बार तब सुना था जब मैं अनंतनाग में था. साउथ कश्मीर में युवाओं के बढ़ते रेडिकलाइजेशन पर लोगों से बात कर रहा था. इस बातचीत में एक नाम बार-बार सामने आ रहा था – ‘आज़ादी चाचा.’ पता किया तो मालूम हुआ कि सरजन बरकाती नाम का कोई आदमी है जो इन दिनों ‘आज़ादी चाचा’ के नाम से युवाओं के बीच बेहद लोकप्रिय है. लोग दूर-दूर से उसकी तक़रीर सुनने पहुंचते हैं और जब वो भारत विरोधी नारे उछालता है तो पूरी घाटी गूंज उठती है.
बताते हैं कि शोपियां का रहने वाला सरजन बरकाती पहले किसी मस्जिद का इमाम हुआ करता था. अपनी तकरीरों के लिए ये आदमी पहले भी जाना जाता था लेकिन इसे असल पहचान और चर्चा तब मिली जब बुरहान की मौत के बाद इसने बड़े जलसों को संबोधित करना शुरू किया. बेहद आक्रामक भाव-भंगिमाओं और नारे उछालने के अपने अलहदा अंदाज़ के चलते ये जल्दी ही लोगों के बीच लोकप्रिय होता चला गया. इसकी तकरीरों और नारों के वीडियो तेज़ी से सोशल मीडिया पर फैलने लगे. जहां भी बरकाती तक़रीर के लिए पहुंचता, हज़ारों की संख्या में लोग इसे सुनने और इसके नारों को बुलंद करने उमड़ पड़ते.
बरकाती जल्दी ही ‘आज़ादी चाचा’ के नाम से जाना जाने लगा और इसके नारे कश्मीर के बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर चढ़ गए. जब भी ये आदमी नारा उछालता – ‘देयर इस ओनली वन सॉल्यूशन’ तो हज़ारों युवा इसके साथ चीखते ‘गन सॉल्यूशन, गन सॉल्यूशन.’ कश्मीर और ख़ास तौर से साउथ कश्मीर के लड़कों के रेडिकलाइजेशन में बरकाती ने अहम भूमिका निभाई. ‘गन सॉल्यूशन, गन सॉल्यूशन’ जैसे नारों को मज़बूती देकर इसने युवाओं को विश्वास दिलाया कि हिंसा ही कश्मीर की आज़ादी का एकमात्र तरीक़ा है. इसके कई वीडियो आज भी यूट्यूब पर मौजूद हैं जिसमें ये कश्मीरी युवाओं को भड़का रहा है कि ‘तुम सबको बारूद बन जाना है. ऐसा बारूद जो दिल्ली में फटेगा.’
बरकाती ने जो किया वो कश्मीर में नया नहीं था. ऐसे नारे घाटी में सालों से लगते आ रहे थे. लेकिन बरकाती ने हिंसात्मक नारों को जिस पैमाने पर और जिन तेवरों के साथ बढ़ाया, उससे घाटी में ‘ओवर ग्राउंड रेडिकलाइजेशन’ बेहद तेज़ हो गया. पत्थरबाज़ी में युवाओं की भागीदारी का लगातार बढ़ना, भारत के प्रति नफ़रत को खुलकर बयान करना, एनकाउंटर साइट की ओर लोगों का हज़ारों की संख्या में दौड़ पड़ना, ये सब ओवर ग्राउंड रेडिकलाइजेशन का ही नतीजा है और इसमें बरकाती ने अहम भूमिका निभाई.
कश्मीर में आज जो युवा हैं वो सब उस दौर में पैदा हुए हैं जब पूरा कश्मीर जल रहा था. इन युवाओं ने बचपन से कश्मीर को जलते ही देखा, फ़ौज द्वारा अत्याचार के क़िस्से बचपन से ही सुने, अपने सगे-संबंधियों की मौत देखी, सैकड़ों परिजनों को लापता होते देखा, बेनाम क़ब्रें देखी और चौबीसों घंटे फ़ौज को अपने आस-पास तैनात पाया. वह फ़ौज जिसके बारे में इन बच्चों के मां-बाप की राय बेहद नकारात्मक थी. इन बच्चों ने जब भी अपने घर वालों से सवाल किया कि ‘कश्मीर में इतनी फ़ौज क्यों है और हम बाक़ी हिंदुस्तान जैसे क्यों नहीं?’ तो इस सवाल के जवाब में उन्होंने बचपन से वही एक जवाब सुना जो अलगाववादी हमेशा से कहते आए हैं – ‘कश्मीर इस द अनसेटल्ड एजेंडा ऑफ़ पार्टिशन.’ (कश्मीर भारत के विभाजन का अनसुलझा मसला है)
80 और 90 के दशक में पैदा हुए कश्मीरी बच्चे, जो आज युवा हैं, उनकी बचपन से ही ‘एंटी इंडिया कंडिशनिंग’ हुई है. ऐसे बच्चों को हथियार थमाने की लिए अलगाववादियों को ज़्यादा मेहनत नहीं लगती. ऊपर से धर्म का तड़का है जो कश्मीर के नैरटिव को ‘जिहाद’ में बदल देता है. ‘वन वे, वन ट्रैक – गो इंडिया गो बैक’, ‘डाउन-डाउन, इंडिया डाउन’ और ‘बुरहान के सदके – आज़ादी’ जैसे नारे मस्जिदों के लाउडस्पीकर से जब उछाले जाते हैं तब ये कहना बेमानी लगता है कि ‘कश्मीर में सिर्फ़ कुछ भटके हुए नौजवान ही आज़ादी चाहते हैं बाक़ी अधिकतर तो इंडिया के साथ हैं.’ ये सच्चाई से आंखें चुराने से ज़्यादा कुछ नहीं है.
ऐसे लोग भी कश्मीर में कम नहीं हैं जो लगातार कहते हैं कि हिंसा इस समस्या का समाधान नहीं. लेकिन इन लोगों को बरकाती जैसे लोग ये कहकर चुप कर देते हैं कि ‘तुम्हारा कोई अपना फ़ौज की गोली से नहीं मरा वरना तुम कभी अमन-शांति और अहिंसा जैसी कायराना बात नहीं कहते.’ ठीक उसी तरह जैसे कई देशवासी जब कहते हैं कि ‘कश्मीर का समाधान बंदूक से नहीं हो सकता’ तो उन्हें ये कहकर चुप कर दिया जाता है कि ‘तुम्हारा कोई अपना फ़ौज में शहीद हुआ होता तो तुम कभी अहिंसा की बात नहीं करते.’
आज कश्मीर एक ऐसे दुष्चक्र में फंसा है जहां ‘आंख के बदले आंख’ की नीति धीरे-धीरे सबको अंधा बना रही है. हमारे लिए जवानों का मरना शहादत है और आतंकवादियों का मरना उपलब्धि. ठीक ऐसे ही कश्मीरियों के लिए आतंकवादियों (जिन्हें वहां मुजाहिद कहा जाता है) का मरना शहादत है और जवानों का मरना उपलब्धि. इसी उपलब्धि का जश्न था कि कश्मीर के कई लोग हमारे 42 जवानों की मौत पर मीम बनाते और जैश-ए-मोहम्मद को शाबाशी देते सोशल मीडिया पर दिख रहे थे.
इन कश्मीरी युवाओं को जश्न मनाता देख हमारा ख़ून खौल रहा था, हम बदला चाहते हैं, एक के बदले दस सर मांगते हैं, घर में घुसकर ठोकने की मांग करते हैं, एक-एक को मार डालने की बात करते हैं, जवानों की शहादत व्यर्थ नहीं जानी चाहिए ये बार-बार दोहराते हैं. लेकिन ये सब करते हुए मूल सवाल भूल जाते हैं – ‘जवानों की शहादत व्यर्थ न जाए’ इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? 40 के बदले 400 को मारना चाहिए या ये सुनिश्चित करना चाहिए कि अब फिर से हमारा एक भी जवान शहीद न हो. हम यह नहीं समझ पाते कि शहीद हुए जवानों को असली श्रद्धांजलि ये नहीं होगी कि हमने बदले में दस गुना ज़्यादा मार गिराए बल्कि असली श्रद्धांजलि ये होगी कि इन शहादतों के बाद अब और शहादतें नहीं होंगी.
लेकिन ऐसा तभी संभव है जब कश्मीर की समस्या का स्थायी समाधान निकाला जाए. और स्थायी समाधान बंदूक से कभी नहीं निकल सकता, बंदूक का चलना तो ख़ुद में एक समस्या है. पिछले तीस सालों से कश्मीर में बंदूक ही तो चल रही है. हमने जितने फ़ौजी खोए हैं उससे ज़्यादा कश्मीरी बंदूक से समाधान खोजने की इस लड़ाई में मारे गए हैं. हमारे लिए भले ही वो सब आतंकवादी रहे हों लेकिन कश्मीरियों के लिए वो मुजाहिद थे, शहीद थे और उनका मारा जाना ही कश्मीरियों को आज इस हद तक ले आया है कि वो फ़िदायीन बनने से भी नहीं चूक रहे हैं.
कश्मीर आज जिस मोड़ पर है वहां ऐसा कोई समाधान संभव ही नहीं है जो रातों-रात इस समस्या को सुलझा सके. कश्मीरी आज भारत को ऐसे देखते हैं जैसे 1947 के पहले हम अंग्रेज़ों को देखते थे. वो अक्सर आपसे ये सवाल भी करते हैं कि ‘अंग्रेज़ों ने भारत में बहुत कुछ किया. ट्रेन चलाई, स्कूल बनवाए, शहर बसाए, विकास किया लेकिन इसके बदले क्या आप ये मान सकते थे कि अंग्रेज़ों का भारत पर क़ब्ज़ा सही है और भारत की भलाई अंग्रेज़ों का ग़ुलाम रहने में ही है? ऐसे ही हम भी नहीं मान सकते कि हमारी भलाई भारत का ग़ुलाम रहने में ही है.’ इस तर्क का जवाब आप इतिहास और तथ्यों के आधार पर तो कश्मीरियों को दे सकते हैं लेकिन बंदूक़ के ज़ोर से नहीं. वो ये मान बैठे हैं कि भारत ने उनकी गर्दन दबोच के रखी है और बंदूक की नाल उनके इस विश्वास को मज़बूती ही देती है.
कश्मीर में लोगों के पास बंदूक उठाने के हज़ारों बहाने हैं. उनकी कंडिशनिंग तो है ही साथ में निजी अनुभव भी हैं. अदिल अहमद डार, जिसने फ़िदायीन बनकर हमारे 42 जवानों की जान ले ली, उसके पिता का कहना है कि ‘2016 में एक दिन जब वो स्कूल से लौट रहा था तो एसटीएफ के जवानों ने उसे रोका और ज़मीन पर उससे नाक रगड़वाई. इस घटना को वो कभी नहीं भूल पाया और बार-बार इसका ज़िक्र करता था.’ आदिल का ये अनुभव उसके बर्बर कृत्य को जायज़ नहीं ठहरा देता लेकिन उसे दहशतगर्दों के हाथ की कठपुतली बन जाने का कारण दे देता है. पाकिस्तान और स्थानीय चरमपंथी ऐसे ही मौक़ों की फ़िराक़ में बैठे रहते हैं जब वे लोगों के दुःख को, उनके दर्द को हिंसक नाल में ढाल सकें.
कश्मीर का स्थायी समाधान एक लंबी प्रक्रिया है. लेकिन इस बीच हम इतना तो कर ही सकते हैं कि ख़ुद को सरजन बरकाती होने से बचाए रखें. पुलवामा जैसे हादसों को दुष्चक्र की कड़ी का एक और पड़ाव न बनने दें, एक के बदले दस सर की मांग न करें, घर में घुसकर मारने की ज़िद न करें, लाशें बिछाने पर उतारू न हो जाएं. फ़ौज अपनी रणनीति से काम करेगी, पिछले तीस सालों से कर ही रही है. लेकिन आप-हम जो बातें करते हैं, जो माहौल बनाते हैं वह भी बेहद अहम होता है. किसी भी मुद्दे पर डिस्कॉर्स आम नागरिक ही तय करते हैं और सरकार उसी डिस्कॉर्स के अनुरूप काम करने को बाध्य होती हैं. हम अपने डिस्कॉर्स को वैसा न बनने दें जैसा बरकाती जैसे लोग कश्मीर के डिस्कॉर्स को बनाना चाहते हैं और बना रहे हैं. वो कश्मीर का समाधान ‘गन सॉल्यूशन-गन सॉल्यूशन’ कहकर भड़का रहे हैं और एक के बाद एक कश्मीरी नौजवानों को मौत के मुंह में झोंक रहे हैं. हम भी उन्हीं की तरह गन सॉल्यूशन-गन सॉल्यूशन चीखकर अपने जवानों को मौत के मुंह में न धकेलें.
तीस सालों का इतिहास देख लीजिए. हमारी फ़ौज जान हथेली पे लेकर वहां तैनात रही है, लेकिन कश्मीर से हमारे सबसे अच्छे संबंध वाजपेयी सरकार के उस दौर में ही बने जब हमने बदूकें नीची करी और दोस्ती का हाथ आगे किया.