गिरिराज सिंह का दृष्टिदोष

विरोध और विद्रोह में जो महीन अंतर है वो इसी गुस्से के बाहर निकलने की परिभाषा है

WrittenBy:अमीश कुमार
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आपने सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय का नाम सुना है? जानते हैं इसके मंत्री कौन हैं? नहीं मालूम. मालूम होगा भी कैसे? आख़िर मंत्रालय में कोई काम-काज तो बचा नहीं.

छोटे और मंझोले उद्योगों के रोज़गार नोटबंदी और जीएसटी लील गये. और फिर, उद्योगों (पकौड़े तलने से लेकर तेल निकालने वाले) से मिलने का शऊर सिर्फ़ प्रधानमंत्री को ही आता है, इसलिए बेचारा मंत्रालय और उसके लाचार मंत्रीजी गुमनाम होकर रह गए. कोई बात नहीं. बताये देते हैं कि ये मंत्रालय गिरिराज सिंह के पास है. वो राज्यमंत्री है और स्वतंत्र प्रभारी है. आंकड़े बताते हैं कि उनके मंत्रालय की स्थिति नोटबंदी के बाद सबसे बुरी तरह आपदाग्रस्त हुई है.

आप सोच रहे होंगे, ‘अच्छा… वो…गिरि…राज सिंह जो कुछ दिन पहले कहते फिर रहे थे कि अब मुसलमान भी हनुमान को स्वीकारने लग गए हैं’. जी, हां, वही गिरिराज सिंह जिन्होंने उद्यगों की बात कम की है, और हिंदू-मुसलमान की ज़्यादा. इसके पहले आप मुझे आंखें नटेर कर, ये कहते हुए गरियाएं ‘रे स्साले, वो इतने बड़े नामवाले मंत्रालय का मुखिया है, उन्हें कौन नहीं जानता है?’ मैं मुद्दे की बात करता हूं.

हाल ही में गुजरात के गांधीनगर में ‘वाइब्रेंट गुजरात’ सम्मलेन हुआ, वहां मंत्रीजी पधारे. शायद पहली बार उन्हें किसी मंच पर मौका मिला कि उद्योगों के बारे में बात की जाए. सो, लपकर माइक पकड़ा और फर्र से बक दिया कि चीन में विकास इसलिए हो रहा है कि वहां विरोध और प्रदर्शन नहीं होते. इतना बोल, सामने बैठे बड़े-बड़े उद्योगपतियों को देख मुस्कुराये तो होंगे और मन में सोचा होगा ‘क्यों उद्योगपतियों, कह दी न आपके मन की बात?’.

इस पर हमारे दिमाग ने सोचा, हां-हां कभी-कभार ये सोच लेता है, कि जो मंत्रीजी कह रहे हैं क्या वो हक़ीक़त है? क्या विरोध-प्रदर्शन विकास में बाधक हैं? क्या विकसित देशों में विरोध नहीं होता?

विश्व की दस सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं- अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी, इंग्लैंड, भारत, फ्रांस, ब्राज़ील, इटली और कनाडा. अनुमान है कि चीन कुछ ही दशकों में अमेरिका को पछाड़कर पहले स्थान पर काबिज़ हो जायेगा. चीन के अलावा इन सभी देशों में लोकतांत्रिक सरकारें हैं और इनमे विरोध-प्रदर्शन बड़ी आम बात है. अमेरिका में बोस्टन चाय पार्टी विद्रोह से लेकर, अश्वेतों के आन्दोलन तक और फिर विएतनाम से लेकर हाल के सरकारी कर्मचारियों के शट-डाउन से ज़ाहिर है वहां विरोध का इतिहास बड़ा पुराना है.

अमेरिका के संविधान में पहला संशोधन भी इसी बात का था कि जनता को विरोध का अधिकार दिया जाता है.

भूतपूर्व राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को वाटरगेट काण्ड के बाद हुए विरोध के चलते ही कुर्सी छोड़नी पड़ गयी थी. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जो अपने नाम की पीपणी बजाते रहते हैं, उनकी तो सबसे ज़्यादा धुलाई की जाती है.

सबसे विकसित महाद्वीप यूरोप की बात की जाए तो विरोध और प्रदर्शन उस समाज का अभिन्न हिस्सा रहे हैं. फ्रांस तो दुनिया भर में सामाजिक क्रांति का सबसे बड़ा उदाहरण रहा है. छात्र अंदोलन से लेकर हाल के पेट्रोल के दामों में बढ़ोत्तरी को लेकर, वहां सरकार और समाज में टकराव आम बात है. जर्मनी में विरोध का असर ये था कि लोगों ने पूर्व और पश्चिम जर्मनी को बांटती दीवार ही गिरा दी, ये विश्व-इतिहास में समाजवाद के ख़ात्मे का अंजाम था.

दूसरे विश्व-युद्ध के बाद इंग्लैंड को उपनिवेशवाद की नीति इसीलिए ख़त्म करनी पड़ी कि वहां के लोगों ने इस पर सवाल खड़े कर दिये थे. उन्होंने सरकार से कहा कि देश का संविधान में उन्हें समानता और अपनी सरकार चुनने का अधिकार दिया गया है, ऐसे में उपनिवेश देशों में ब्रिटिश सरकार की मौजूदगी अप्रसांगिक है.

जापान में यूरोप और अमेरिका की तरह विरोध प्रदर्शन नहीं होता, फिर भी बीसवीं सदी में जब जापान आर्थिक शक्ति बनकर उभर रहा था, समाज ने अपने स्तर पर इसे ज़ाहिर किया था. 1905 में पोर्ट्समाउथ संधि के विरोध में जापान की जनता सड़कों पर उतर आई थी. इसी प्रकार पहले विश्वयुद्ध में मुद्रास्फीति और महंगाई के बढ़ने और उद्योगपतियों द्वारा कर्मचारियों की आय न बढ़ाये जाने के विरोध में वहां देशव्यापी प्रदर्शन हुए थे.

जापान के संविधान का अनुच्छेद 21 जनता को प्रेस, संगठन और स्पीच का अधिकार देता है. तत्कालीन प्रधानमंत्री शिंजो आबे के दादा नोबुसुके किशी को 1960 में जनता के विरोध के चलते प्रधामंत्री पद छोड़ना पड़ा था.

शिंजो आबे को भी परमाणु नीतियों को लेकर व्यापक विरोध का सामना करना पड़ा है. जापान की जनता शासन और तंत्र के ख़िलाफ़ कम ही खड़ी हुई है पर अब वहां तथाकथित स्वामिभक्ति टूट रही है. रही बात चीन की, मंत्रीजी बख़ूबी जानते हैं वहां विकास का सबसे बड़ा कारण उसकी नीतियां हैं, विरोध का न होना नहीं है.

सामाजिक वैज्ञानिक मानते हैं कि विरोध प्रदर्शन समाज में व्याप्त गुस्से को बाहर निकालने का सबसे कारगर उपाय है. विरोध प्रेशर कुकर की सीटी की भांति काम करता है.उसकी सीटी के ज़रिये वाष्प में समाहित ऊष्मा, जिसे अव्यक्त उर्जा कहा जाता है, बाहर निकल जाती है, अन्यथा भोजन जल जाएगा.

विरोध और विद्रोह में जो महीन अंतर रह जाता है वो इसी गुस्से के बाहर निकलने की परिभाषा है. पर जब विरोध हिंसक हो उठता है, वो विद्रोह कहलता है. हेनरी डेविड थोरौ ने सविनय अवज्ञा पर था कहा था- “मैं कहता हूं कानून तोड़िए. अपनी ज़िन्दगी को मशीन रोकने वाला घर्षण बनाइये.” जनहित की सरकारों के लिए विरोध प्रदर्शन एक बैरोमीटर की तरह काम करते हैं. इसकी सान पर नीतियां को परखा जाए तो समाज का उत्थान होता है. गांधी के सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह आंदोलन देश को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने में कारगर हथियार साबित हुए थे.

विकास में सबसे बाधक अगर कोई है तो वो सरकार ही होती है. उसकी नीतियां और उनका क्रियान्वन समाज में विकास की दिशा और दशा तय करता है. भारत के संदर्भ में बात की जाए तो बिलकुल साफ़ है कि हमारे समाज में विरोधों का लम्बा इतिहास नहीं है. ये समाज तो ‘कोऊ नृप होए हमें का हानि’ का परिचायक है. विरोध तो छोड़िए, विद्रोह भी कभी देशव्यापी नहीं हुए. गांधी के आगमन से पहले, हमने हमेशा सत्ता के आगे सिर झुकाए रखा. हमारे संविधान निर्माताओं ने विरोध के अस्तित्व को स्वीकार कर हमे कुछ मूलभूतअधिकार दिए हैं. हमारा विरोध सत्ता परिवर्तन में ज़ाहिर होता है.

ज़ाहिर है सरकार अपनी विफलता का ठीकरा जनता के सिर नहीं फोड़ सकती है. विकास को धीमा न तो नैनो कार पर बंगाल के सिंगूर में मचे बवाल ने किया था और न ही कन्हैया कुमार और उनके दोस्तों ने. सरकार नोटबंदी और जीएसटी की विफलताओं के विकल्प ढूंढ रही है. कोई जाकर मंत्रीजी को समझाए कि प्रेशर कुकर की सीटी बजने में ही समझदारी है. वरना, विज्ञान कहता है कि वाष्प से जलना सबसे अधिक पीड़ादायक होता है.

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