डीबी पोस्ट: अंग्रेजी अख़बार बंद करने का समृद्ध इतिहास रहा है दैनिक भास्कर का

इससे पहले भी दैनिक भास्कर समूह डेली भास्कर, नेशनल मेल और डीएनए जैसे अखबार थोड़े-थोड़े समय निकाल कर बंद कर चुका है.

WrittenBy:दीपक गोस्वामी
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‘डीबी पोस्ट- द स्मार्ट न्यूजपेपर हमेशा अपने प्रगतिशील दृष्टिकोण के लिए प्रतिबद्ध रहा और हमेशा एक भविष्योन्मुखी नजरिया सामने रखा. थोड़े ही समय में हमने समाज के सभी वर्गों से संबंधित खबरों को कवर किया. अख़बार ने लगातार स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अपने विचार और उनके विश्लेषण पर ध्यान केंद्रित किया. हम अपने सभी स्मार्ट पाठकों का उनके भारी समर्थन और उत्साहवर्द्धन लिए धन्यवाद देते हैं.’

दैनिक भास्कर समूह के अंग्रेजी दैनिक ‘डीबी पोस्ट’ के 7 जनवरी 2019 को निकले आखिरी अंक में इस तरह से पाठकों को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए अखबार के बंद होने की सूचना दी गई.

डीबी पोस्ट अंग्रेजी दैनिक मूलत: मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से प्रकाशित होता था, इसका प्रकाशन हिंदी अखबारों का अग्रणी समूह दैनिक भास्कर करता था. डीबी पोस्ट की शुरुआत बड़ी महत्वकांक्षाओं के साथ उसने 15 मार्च, 2016 को भोपाल से हुई थी.

अख़बार की शुरुआती कोर टीम में शामिल रहे कई पत्रकारों से बातचीत में सामने आया कि शुरुआत के समय समूह ने अपना कंसेप्ट और उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा था कि डीबी पोस्ट को भोपाल से निकालकर आगे इंदौर, ग्वालियर और छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर तक फैलाने की योजना है. लेकिन तीन साल के भीतर ही यह अख़बार बंदी के कगार पर पहुंच गया.

शुरुआत के समय हिंदुस्तान टाइम्स के कई वरिष्ठ पत्रकारों को भास्कर समूह डीबी पोस्ट के बैनर तले मोटे वेतन पर लाया था. एक अलग कंसेप्ट (तत्कालीन टीम के पत्रकारों की जुबान में ही) के रूप में अअखबार की कल्पना की गई थी जो कि साल्ट एंड स्वीट टाइप का होगा और ऑनलाइन मीडिया व न्यूजपेपर के बीच के रिक्त स्थान के बीच ब्रिज का काम करेगा.

अखबार का औपचारिक प्रकाशन तो 15 मार्च 2016 से शुरू हुआ. लेकिन बंद करते समय उसने अपने कर्मचारी पत्रकारों को महीने भर का भी समय नहीं दिया गया कि वे कोई नई नौकरी खोज सकें.

बंद की तारीख से करीब तीन हफ्ते पहले की गई एक अनौपचारिक बैठक में डीबी पोस्ट के स्टाफ को सूचित किया गया कि 5 जनवरी कार्यालय में उनका आखिरी दिन होगा (जिसे बढ़ाकर बाद में 6 जनवरी कर दिया गया). अखबार को बंद किया जा रहा है.

लेकिन बंद करने की वजहों पर न तो उस बैठक में कोई जानकारी दी गई न ही प्रबंधन ने कोई स्पष्ट वजह बताई. एक झटके में डीबी पोस्ट के 35 पत्रकार बेरोजगार हो गये. अगर सहायक स्टाफ को भी जोड़ लें तो यह संख्या 40 के ऊपर जाती है.

हालांकि, उस बैठक में मौजूद पत्रकारों के मुताबिक प्रबंधन ने सभी पत्रकारों को आश्वासन दिया था कि भास्कर एक बड़ा समूह है और सभी पत्रकारों को डीबी पोस्ट बंद होने के बाद कहीं न कहीं एडजस्ट कर लिया जाएगा. डीबी पोस्ट के एक पत्रकार बताते हैं कि प्रबंधन के इस आश्वासन के बाद वे अपनी नौकरी के प्रति निश्चिंत हो गए थे.

एक पत्रकार, जो कि डीबी पोस्ट रिपोर्टर थे, बताते हैं, “जो कुछ लोग बाई-लिंगुअल थे उन्होंने हिंदी के लिए हामी भर दी. कुछ लोग ऐसे भी थे जो हिंदी में लिख सकते थे लेकिन कभी काम नहीं किया था. उन्होंने भी हां कह दिया कि कोशिश करेंगे हम.”

वे आगे बताते हैं, “प्रबंधन ने फिर से 12-15 लोगों की सूची बनाई जिसमें उनके नाम थे जो हिंदी में काम करना चाहते थे. उसमें पांच-छह ऐसे लोगों के नाम थे जिन्होंने पहले हिंदी में काम किया था, उनमें से मैं भी एक था. मुझसे कहा गया कि आपका रिटेन होना तो पक्का है, आपने तो पहले भी काम किया है, आपका हो जाएगा.”

लेकिन, अब उस सूची को सभी पत्रकार गुमराह करने वाला करार दे रहे हैं. उनके अनुसार उस सूची में से किसी को भी भास्कर समूह ने हिंदी में नौकरी नहीं दी है.

डीबी से जुड़े रहे एक अन्य पत्रकार कहते हैं, “दो हफ्तों का समय हमें मिला था. हम कोशिश करके नई नौकरी ढूढ़ सकते थे. लेकिन हम सब इस उम्मीद में अटके रहे कि समूह हमें कहीं न कहीं एडजस्ट कर लेगा. जब हिंदी में इंटरव्यू हुए तो मुझे संपादक के साथ इंटरव्यू के लिए लाइन-अप भी किया. तब भी उन्होंने यही कहा कि हम करवा देंगे. कुछ लोगों से तो यहां तक कहा कि आपका हो गया है, कुछ लोगों को तो बकायदा विभाग भी दिए गए. लेकिन सच्चाई ये थी कि लिखित में हमारे पास कुछ नहीं था.”

अंतिम दिन तक यही ऊहापोह प्रबंधन की तरफ से बना रहा. पत्रकारों के मुताबिक, अंतिम दिन जाकर प्रबंधन की तरफ से ऐसे संकेत मिले कि हम लोगों का हिंदी में नहीं हो पाएगा.

यहां एक वाजिब सवाल यह भी पैदा होता है कि जब डीबी पोस्ट के बंद होने की सूचना में कहा गया है कि इसे प्रिंट से डिजिटल में बदला जा रहा है तो फिर उससे जुड़े पत्रकारों को डीबी पोस्ट डिजिटल में ही क्यों नहीं समायोजित किया गया?

इस पर डीबी पोस्ट में कार्यरत एक वरिष्ठ पत्रकार का कहना है कि कर्मचारियों को रिटेन करना या अखबार को डिजिटल में बदलना केवल और केवल प्रबंधन की अखबार बंद करने पर स्टाफ के द्वारा खड़े होने वाले विरोध को भटकाने और अपनी साख को जनता के बीच बनाए रखने की रणनीति थी.

उन्होंने आगे बताया, “अगर वास्तव में इन्हें डिजिटल में बदलना होता तो डिजिटल टीम और रिपोर्टर्स की तो जरूरत होती ही न. रिपोर्टर तो छोड़िए डिजिटल टीम वाले भी रिटेन नहीं किए गए हैं. फिर कौन चलाएगा और कैसे चलेगा डिजिटल डीबी पोस्ट?”

यह बात सही भी है. डीबी पोस्ट के डिजिटल वर्जन का काम देखने वाले पत्रकार अमरीश हरदेनिया से हमारी बात हुई. हमने उपरोक्त वरिष्ठ पत्रकार द्वारा कही बात की पुष्टि करनी चाही. अमरीश ने बताया, “हां, मुझे डिजिटल में ऐसा शुरुआती प्रस्ताव मिला था कि आपको रिटेन कर लेंगे. लेकिन बाद में कहा गया कि डिजिटल का क्या स्वरूप रहेगा, वो अभी तय नहीं है, बाद में तय किया जायेगा.”

हरदेनिया बताते हैं, “मैंने यही बेहतर समझा कि मैं अलग हो जाऊं क्योंकि एक अनिश्चितता थी कि क्या स्वरूप रहेगा, कैसा रहेगा, कब तक तय होगा. यह अभी तय होना था, कोई आइडिया नहीं था इसलिए अलग हो जाना ही बेहतर समझा.”

यहां बताना मौजूं होगा कि जब डीबी पोस्ट के अंतिम दिन सभी कर्मचारियों को यह लगने लगा कि उन्हें रिटेन नहीं किया जा रहा है तो उन्होंने प्रबंधन से मांग की कि इस तरह उनका रोजगार छीनने पर उन्हें एक निश्चित मुआवजे की राशि दी जाये जैसी कि डीएनए या बिजनेस भास्कर के बंद होने पर तत्कालीन स्टाफ को दिया गया था. कर्मचारियों ने तीन-तीन महीने के वेतन की मांग की.

डीबी पोस्ट के पत्रकार बताते हैं, “रिटेन संबंधी प्रक्रिया में कोई उन्नति न देखते हुए हमने अखबार की प्रंबंध निदेशक (एमडी) ज्योति अग्रवाल को मेल लिखा कि स्थिति स्पष्ट नहीं है इसलिए हमें मुआवजा दिया जाय.”

पत्रकारों के मुताबिक जब प्रबंधन पर दबाव बनाया गया तो वह 70 दिन का वेतन देने के लिए राजी हुआ. लेकिन काफी मेल और समझौते के बाद तीन महीने के वेतन पर बात बनी.

बहरहाल, पीड़ित पत्रकारों को तीन महीने का वेतन तो मिल गया लेकिन अब भी उनका दर्द उनके इन शब्दों से झलकता है. एक पत्रकार मनीष मिश्र कहते हैं, “रिटेन करने संबंधी इनके झूठे वादे का नुकसान ये हुआ कि न तो हम रिटेन हो पाए और न ही हमने दूसरी नौकरी खोजने में जोर लगाया. नौकरी इतनी आसानी से मिलती कहां है इस पेशे में.”

आखिर क्यों नौबत आई डीबी पोस्ट को बंद करने की?

हालांकि, डीबी पोस्ट की इस गति के कोई स्पष्ट कारण अभी तक सामने नहीं आए हैं. न तो भास्कर समूह की ओर से पाठकों को कोई स्पष्टीकरण दिया गया है और न ही डीबी पोस्ट के कर्मचारियों को बताया गया.

लेकिन, स्वतंत्र स्रोतों, डीबी पोस्ट के कर्मचारियों और पुराने पत्रकारों से न्यूजलांड्री ने बातचीत कर जब कारणों की पड़ताल की तो सामने आया कि प्रबंधन का गैर पेशेवर रवैया, एमडी ज्योति अग्रवाल का संपादकीय मामलों में हद से ज्यादा हस्तक्षेप, अंग्रेजी अखबार को हिंदी के नजरिए से चलाने की हुड़क, पत्रकारों के काम में अनावश्यक दखलअंदाजी, भास्कर समूह के मालिकों का अंदरूनी पारिवारिक विवाद आदि कई बातें इसकी बंदी का कारण बने. एक समय डीबी पोस्ट में ऐसी स्थिति भी बन गई कि समूह को अख़बार के लिए संपादक, अच्छे रिपोर्टर और डेस्क पर अनुभवी लोगों की टीम जुटाना तक मुश्किल हो गया.

जब भास्कर समूह ने डीबी पोस्ट की नींव रखी तो एकबारगी तो कोई  भी वहां इसलिए नहीं जाना चाहता था क्योंकि समूह का अंग्रेजी दैनिक शुरू करने और फिर एक झटके में बंद कर देने का पुराना इतिहास रहा रहा है. उन्होंने अतीत में डेली भास्कर, नेशनल मेल और डीएनए जैसे अखबार थोड़े-थोड़े समय चलकर ही बंद कर दिए थे.

डीबी पोस्ट से करीब ढाई सालों तक जुड़े रहे पत्रकार जो अखबार की कोर टीम के सदस्य थे, बताते हैं, “एक अच्छा कंसेप्ट पेश करके और मोटी पगार देकर हिंदुस्तान टाइम्स के भोपाल संस्करण के आठ लोगों को डीबी पोस्ट में लाया गया था. इनमें शम्स उर रहमान अलवी, सरवनी सरकार, आशुतोष शुक्ला और शहरोज अफरीदी जैसे बड़े नाम शामिल थे. जो जूनियर भी जोड़े, उन्हें भी तीन-तीन, चार-चार सालों का अनुभव था. इसलिए जब ऐसे नाम जुड़े तो दूसरे लोग भी जुड़ते गए.”

वे आगे बताते हैं, “लेकिन अखबार की लांचिंग से पहले ही कंसेप्ट को लेकर सीनियर लोगों से समूह के मालिकों का विवाद शुरू हो गया और सरवनी सरकार, शहरोज अफरीदी और शम्स उर रहमान ने डीबी पोस्ट छोड़ दिया. और फिर पत्रकारों के आने-जाने का सिलसिला अंत तक चलता ही रहा.”

डीबी पोस्ट से जुड़े रहे कई पत्रकार इस बात की ताकीद करते हैं कि ज्योति अग्रवाल अखबार की डायरेक्टर थीं लेकिन, उन्हें पत्रकारिता का बिल्कुल अनुभव नहीं था. लेकिन वे हेडलाइन से लेकर न्यूज़ राइटिंग स्टाइल आदि सबमें हस्तक्षेप करती थीं. यह डीबी पोस्ट के न्यूज़रूम में पैदा ही कड़वाहट की बड़ी वजह बनी.

एक पत्रकार बताते हैं, “लांचिंग से कुछ ही समय पहले तत्कालीन संपादक जिन्हें चंडीगढ़ से लाया गया था, उन्हें रहस्यमय ढंग से वापस भेज दिया गया. ख़बरों के चयन से लेकर उनको किस पृष्ठ पर जाना है, इसमें एमडी और प्रबंधन का हस्तक्षेप इतना था कि ढाई सालों के छोटे से कार्यकाल में करीब 100 लोग डीबी पोस्ट छोड़कर गए.”

यही कारण था कि डीबी पोस्ट को लेकर भोपाल के पत्रकारिता जगत में पहले से ही ऐसी छवि बन गई थी कि वहां कोई जुड़ना नहीं चाहता था.

एक और बड़ी समस्या प्रबंधन के स्तर पर यह थी कि वह हमेशा डीबी पोस्ट की तुलना दैनिक भास्कर से करता था. प्रबंधन और मालिकान अपने दैनिक भास्कर के खांचे से बाहर ही नहीं निकल पा रहे थे. न कामकाजी संस्कृति के मामले में, न ही खबरों के ट्रीटमेंट के मामले में. वे इस दुविधा में रहे कि अंग्रेजी दैनिक को स्वायत्ता देकर उसकी नई पहचान बनाना है या फिर उसे दैनिक भास्कर की मिरर कॉपी बनाना है.

डीबी पोस्ट के एक पत्रकार कहते हैं, “हमारे पास कई अच्छी स्टोरी फ्रंट पेज के लिए होती थीं लेकिन हमसे कहा जाता कि दैनिक भास्कर में जो है, वही लगाओ. वे यह नहीं समझ पाते थे कि हिंदी और अंग्रेजी के पाठक का टेस्ट अलग है. साथ ही जो हिंदी वाला पत्रकार सोचता है, जरूरी नहीं कि वो अंग्रेजी वाला भी सोचे. और दैनिक भास्कर में तो कई गलत खबरें भी जाती हैं, तो क्या हम उन गलत खबरों को भी छाप देते.”

वरिष्ठ पत्रकार शम्स उर रहमान, जो कि डीबी पोस्ट की कोर टीम में थे, बताते हैं, “1986 में डेली भास्कर निकाला. बाद में उसे नेशनल मेल में बदल दिया. फिर उसे एकाएक बंद कर दिया जैसे अभी डीबी पोस्ट को बंद किया है. मैं तब नेशनल मेल में ही था. डीएनए भी इन्होंने बीच में बंद किया. इनकी समस्या ये है कि हर चीज को भास्कर हिंदी के चश्मे से देखते हैं. लेकिन इन्हें ये बात समझ नहीं आती हैं कि भास्कर का ही एक अलग वर्जन अंग्रेजी में निकालना है या एक अलग अखबार निकालना है.”

रहमान कहते हैं, “पेशेवर वर्किंग एथिक्स की बेहद कमी है. सेठ-सेठानी वाला व्यवहार ज्यादा है. लेकिन वे दिखावा ऐसा करते हैं मानो बहुत पेशेवर और बहुत प्ररगतिशील हो गये हैं.”

एक शिकायत यह भी है कि ऐसे लोगों को मोटी पगार पर लाकर बैठाया गया जो कि अयोग्य थे और संपादन स्तर पर कॉपी में अनावश्यक छेड़छाड़ इस हद तक करते थे कि तथ्य ही बदल जाते थे. एक वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं, “मान लीजिए कि कहीं कोई अपराध घटित हुआ. रिपोर्टर ने रिपोर्ट फाइल की तो उससे कहा जाता कि ऐसा नहीं, वैसा लिखो. बताइए ऐसा कैसे संभव है? जो हुआ ही नहीं, उसे कैसे लिखें? क्या इससे रिपोर्टर की क्रेडिबिलिटी पर असर नहीं पड़ेगा?”

उनकी इस बात से इत्तेफाक रखते हुए डीबी पोस्ट के एक रिपोर्टर बताते हैं कि जब रिपोर्टर सुबह अखबार में अपनी कॉपी पढ़ता था तो वह बदल ही जाती थी. तथ्य तो छोड़िए, भाषा के स्तर पर भी ऐसा घालमेल होता कि सुबह-सुबह हर रिपोर्टर अखबार में अपनी ख़बर में 10 गोले बनाकर दिखाता था.

ज्यादातर पत्रकार दीप हल्दर के समय को डीबी पोस्ट का सबसे अच्छा समय मानते हैं. जहां कि उन्होंने उपलब्ध टीम का ही संयोजन कुछ इस तरह किया कि अच्छे नतीजे दिखे. लेकिन उनके जाने के बाद इस बात को बल मिलने लगा कि अब डीबी पोस्ट की आखिरी घड़ी आने वाली है.

हालांकि, प्रबंधन ने अखबार बंद करने के कुछ माह पहले ही एक-दो बड़े पत्रकारों को जोड़ा था, जिससे ऐसा अहसास होना बंद हो गया कि अखबार बंद हो सकता है.

पत्रकारों का कहना है कि जब दो बड़े नामों की नियुक्तियां हुईं तो लगा कि फिलहाल तो प्रबंधन का इसे बंद करने का कोई मन नहीं है. लेकिन फिर अचानक से यह बम फोड़ दिया गया.

क्या आर्थिक वजह से किया बंद?

डीबी पोस्ट को बंद करने का कारण कोई भी कर्मचारी आर्थिक नहीं मानता. उनका कहना है कि डीबी पोस्ट दो कारणों से घाटे का सौदा नहीं था. फाउंडिंग टीम के एक सदस्य बताते हैं, “पहला कारण यह कि जब इसकी शुरुआत हुई तो पहले से ही कंपनी ने ‘नो एड पॉलिसी’ बना रखी थी. कहा गया था कि इस अखबार का उद्देश्य रेवेन्यू कमाना नहीं है. बाद में 20 प्रतिशत विज्ञापन की नीति बनाई गई. जब रेवेन्यू उद्देश्य ही नहीं था तो घाटे की बात कहां से आ गई?”

एक पत्रकार बताते हैं, “घाटा तो ऐसा कुछ नहीं था. मेरे अनुमान से वेतन मिलाकर महीने का 30 लाख का रनिंग खर्च था. सच तो यह है कि हम इतने पॉपुलर थे के लोग हमें विज्ञापन देना चाहते थे. लेकिन शुरुआत में इन्होंने नो-एड नीति प्रचारित कर दिया. बाद में जब विज्ञापन के लिए लोगों तक जाना शुरू किया तो विज्ञापनदाताओं में मैसेज ये जा चुका था कि डीबी पोस्ट तो विज्ञापन ही नहीं लेता.”

वो आगे बताते हैं, “ऊपर से इन्होंने कोई मार्केटिंग विभाग या सर्कुलेशन वाला भी नहीं रखा था. विज्ञापन, जो कि एक अखबार के राजस्व का सबसे बड़ा सोर्स होता है, उसे लाता कौन?”

विज्ञापन और सर्कुलेशन के लिए डीबी पोस्ट, दैनिक भास्कर की टीम पर निर्भर था. जाहिर है यह एक कमजोर नीति थी. भास्कर की टीम की प्राथमिकता और समर्पण डीबी पोस्ट के लिए क्यों होती? यानी गैर पेशवर रवैया भी इसकी बंदी का सबब बना.

शम्स उर रहमान कहते हैं, “अगर ये तर्क दें कि भोपाल में अंग्रेजी अखबार के लिए स्पेस नहीं है तो यह गलत है. क्रॉनिकल और टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबार चल ही रहे हैं.”

मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार राकेश दीक्षित से भी हमारी बातचीत हुई. वे भास्कर समूह के अंग्रेजी अखबार के पिछले दो प्रयासों नेशनल मेल और डीएनए में भी जुड़े रहे थे. उन्होंने बताया, “डीबी पोस्ट में ये बड़ी ऊंची-ऊंची पगार पर लोगों को लेकर आए थे. लेकिन उन्हें थोड़ा मौका तो देना चाहिए था. पर चार-छह महीने में ही एक-एक करके सबको निकालना शुरु कर दिया. अंदरूनी राजनीति शुरू हो गई. अंग्रेजी अखबार निकालने के लिए इनकी कोई तर्कसंगत या सुविचारित सोच नहीं है. कुल मिलाकर काफी गैर पेशेवर तरीके से निकालते हैं.”

बहरहाल, भास्कर समूह से तीन महीने का वेतन लेकर सभी पत्रकार अब नई नौकरी की तलाश में हैं, साथ ही प्रबंधन द्वारा किए गए झूठे वादों से आहत भी हैं.

(पत्रकारों की गुजारिश पर उनके नाम सार्वजनिक नहीं किए गए हैं. न्यूजलॉन्ड्री के पास सभी बातचीत का ब्यौरा उपलब्ध है. डीबी पोस्ट के प्रोडक्ट हेड अनंत रतन ने इस बारे में कोई भी बातचीत करने से मना कर दिया.)

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