2019 के चुनाव को भाजपा अगर वाकई पानीपत की तीसरी लड़ाई बनाने जा रही है तो उसे इस लड़ाई के सबक याद रखने चाहिए.
पिछले शुक्रवार को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दिल्ली के रामलीला मैदान से चुनावी प्रचार का बिगुल फूंकते हुए 2019 के चुनाव को पानीपत तीसरी लड़ाई के बराबर की संज्ञा दी है. शाह ने अपने संबोधन में कहा कि भाजपा कार्यकर्ताओं को खूब मेहनत करनी होगी. अगर बीजेपी नहीं जीती तो ये पानीपत के तीसरे युद्ध जैसा होगा, जब अफगानों ने मराठों को हरा दिया था और देश अगले दो सालों के लिए विदेशी ताकतों के हाथों में चला गया था.
शाह ने ये भी जोड़ा कि मराठों ने 131 लड़ाईयां जीतीं पर निर्णायक युद्ध हार गए. उनका इशारा था कि अगर भाजपा लोकसभा चुनाव न जीती, तो कांग्रेस (इतालवी) गोरों की सरकार आ जाएगी, जो तथाकथित ‘ग़ुलामी’ लाएगी. ये सही है कि इस लड़ाई के बाद उत्पन्न हुए राजनैतिक शून्य की वजह से हिंदुस्तान अंग्रेजों के हाथ में आ गया था, पर अमित शाह ने आधी-अधूरी ही बात बोली है. भाषण लिखने वालों ने उन्हें ये नहीं बताया था, या शाह नहीं जानते, कि मराठों की हार के पीछे उनकी अपनी ही बेवकूफ़ियां और अहंकार थे. इसके लिए इतिहास को थोड़ा सतर्क नजरिए से देखना होगा.
पानीपत की लड़ाईयों का इतिहास
पानीपत के मैदान में तीन निर्णायक जंगें हुई. पहली लड़ाई 21 अप्रैल, 1526 को हुई थी जिसमें बाबर ने इब्राहिम लोदी को हराकर मुग़लिया सल्तनत की बुनियाद हिंदुस्तान में रखी. फिर तीस साल बाद, तीसरे और सबसे महान मुग़ल, अकबर ने 5 नवम्बर, 1556 को दिल्ली के हिन्दू राजा हेमू को हराकर शेर शाह के हाथों खोयी मुग़ल सल्तनत वापस हासिल की. तीसरी और अंतिम लड़ाई 14 जनवरी 1761 को हुई थी जिसका ज़िक्र अमित शाह ने किया है. संयोग से आज इसकी बरसी भी है. इस जंग में अफ़ग़ान सरदार अहमद शाह अब्दाली ने मराठों को हराया था.
परिस्तिथियां क्या थीं?
मुग़ल इस समय तक दिल्ली में कमज़ोर हो चुके थे. हिंदुस्तान में जुमला चलता था– ‘सल्तनत-ए-शाह आलम, अज़ दिल्ली ता पालम’. यानी, शाह आलम की सल्तनत दिल्ली से लेकर पालम तक ही है. इन हालात में सूबाई इलाकों में कई ताक़तवर राजनैतिक केंद्र उभर आये. पश्चिम में राजपूताना, उत्तर-पूर्व यानी अवध में लखनऊ के नवाब, बंगाल में अंग्रेज़ तो थे ही और दक्षिण पश्चिम में मराठे.
दिल्ली कमज़ोर थी और लूटी जा रही थी. ईरान का नादिर शाह और अफ़गान अहमद शाह अब्दाली ने दिल्ली को मिस्मार किया. अब्दाली अमूनन हर साल हिंदुस्तान लूटपाट करने आया करता. पंजाब में तो कहावत ही थी- खाया पीया लाहे दा, बाक़ी अहमद शाहे दा’. माने, जो खा पी लिया, वही है. बाक़ी, अहमद शाह ले जाएगा.
मराठों और अफ़ग़ानों के बीच तनातनी
हिंदुस्तान में मराठे सबसे बड़ी संगठित ताक़त थे, जो देश के बड़े हिस्से में अपना दबदबा रखते थे. राजस्थान के राजपूत राजा भी इनसे खौफ़ खा रहे थे. दक्षिण में मराठे अपनी पकड़ हर साल मज़बूत किये जा रहे थे. बात शायद हज़म न हो. पर हक़ीक़त तो यही है और इतिहासकारों ने भी यही लिखा है कि मराठे हिंदुस्तान के दीगर हिस्सों में पसंद नहीं किये जाते थे. इसकी बड़ी वजह उनकी लूटमार की प्रवृत्ति थी. वे देश को किसी राजनीतिक इकाई के रूप में संगठित करने से ज्यादा उन्हीं भावनाओं से सत्ता पाना चाहते थे जिस भावना से अफगान.
हिंदुस्तान के राजा जानते थे की उन्हें मराठों के ताप से अब्दाली ही बचा सकता है. वो इसकी कीमत भी लेता था. तो हिंदुस्तान के राजाओं के लिए ‘इधर खाई, उधर कुआं’ वाली स्थिति थी. अब्दाली को भी मराठों से चुनौती मिल रही थी. छोटी-मोटी जंगों में मराठों ने अब्दाली से लाहौर छीन लिया था. इसके बाद अफ़ग़ानियों ने उन्हें दिल्ली के नज़दीक हरा दिया. पेशवाओं से ये क़ुबूल नहीं हुआ और निर्णायक जंग का एलान हो गया.
गठबंधन की कमज़ोर गाठें
अफ़ग़ान सरदार के साथ अवध के नवाब शुजाउद्दौला, रुहेलखंड का हाफ़िज़ अहमद था. उधर, मराठों के तरफ़ से शुरुआत में सिंधिया और राजस्थान से जाट शासक सूरज मल थे. विलियम ग्रांट डफ़ लिखते हैं कि शुजा को अब्दाली से उतनी ही नफ़रत थी जितनी मराठों के अतिक्रमण से. तो संभव है कि इस्लाम के नाम पर दोनों एक हो गए हों.
उधर, ‘भाऊ’ (पेशवा) का अहंकार इतना ज़्यादा था कि उसने भरतपुर के जाट राजा सूरजमल की अनदेखी की. राजपूत राजाओं ने पेशवाओं के प्रति सिर्फ़ ऊपरी हमदर्दी दिखाई. सिंधियाओं और होल्कर की भी वो अनसुनी करता था. आख़िरी लड़ाई तक आते-आते मराठा अकेले पड़ गए थे.
मराठों का अहंकार और नादानियां
मराठों का सबसे विश्वस्त इतिहासकार विलियम ग्रांट डफ़ लिखते हैं कि पेशवा सेनापति सदाशिव राव (भाऊ) हाल की जीतों से इतना मदांध हो गया था कि उसे कुछ दिखाई नहीं देता था. इससे मुल्क (हिंदुस्तान) की इज्ज़त और लाखों लोगों का जीवन दांव पर लग गया. वो लिखते हैं कि मराठा सैनिकों में बदइन्तज़ामी की इंतिहा थी. हर सैनिक की वर्दी पर सोना जड़ा हुआ था, विश्वास राव और भाऊ अपने साथ पूरा लश्कर लेकर चल रहे थे. जिसमें उनकी रानियां, खानसामे, खज़ाना आदि था. भरतपुर के नज़दीक सूरजमल ने भाऊ से मुलाकात की और समझाया कि महिलाओं और ख़ज़ाने को यहीं छोड़कर आगे बढ़ा जाए. इससे लश्कर हल्का रहेगा और अगर परिणाम अनुकूल न हुआ, तो भागने में आसानी रहेगी. भाऊ साहब नहीं माने.
भारतीय विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी नटवर सिंह, सूरजमल पर लिखी अपनी क़िताब में लिखते हैं कि शिवाजी के समय पर मराठों की लड़ाई की तकनीक बेहद कारगर थी. उनका लश्कर हल्का और तेज़ होता था. महिलाओं की मनाही थी और इसकी नाफ़रमानी मौत थी. जब लश्कर चलता था, तो आसपास के लोगों से सैनिक खाने-पीने की मदद मांगते चलते, इससे शिवाजी की सेना पर अत्यधिक भार नहीं होता था. सेना रात में सफर करती थी. पेशवा महज़ 50 सालों में शिवाजी का पाठ भूल गए थे.
दिल्ली आते-आते खेल बिगड़ गया
पेशवाओं ने सूरजमल और सिंधियाओं के साथ मिलकर पहले दिल्ली के सुल्तान को हराया. सूरजमल और भाऊ के बीच मराठों के हाथों दिल्ली का अंजाम झगड़े की फांस बन गया. सूरजमल को अंदेशा हुआ कि भाऊ उसे मरवा सकता है. उसने तुरंत मराठों का साथ छोड़ा और भागकर भरतपुर चला आया. हालांकि, तथ्य ये भी है कि सूरजमल अफ़गानी लड़कों से दूरी बनाकर रखना चाहता था.
जैसे ही सूरजमल ने दिल्ली छोड़ी, गेहूं के दाम बढ़ गए. दिल्ली तो बर्बाद थी, कुछ पैदावार थी ही नहीं. रुहेलखंड का अनाज अब्दाली की सेना के काम आ रहा था. भाऊ को भरतपुर से गेंहू मिल रहा था, वो भी अब बंद हो गया.
अंजाम क्या हुआ
पानीपत पंहुचते-पंहुचते मराठे अकेले रह गए थे. भाऊ के साथ एक भी ग़ैर मराठा हिन्दू राजा नहीं था. रसद नहीं मिल रही थी, सैनिक भूखे पेट ही लड़ रहे थे और छोटी-मोटी रोज़ होने वाली जंगों में अब्दाली के सैनिक मराठों को बड़ी आसानी से कुचल रहे थे. सदाशिव राव के ग़लत निर्णयों की वजह से मराठा सेना बुरी तरह से घिर गयी थी. इस तरह यूं लाचार होकर मरने से बेहतर उसने लड़कर मरना उचित समझा. 14 जनवरी, 1761 को जब मराठों ने अंतिम युद्ध करने का निर्णय लिया, तो उसके एक रात पहले ही भर पेट खाना खाया था.
दिन भर चली लड़ाई में अब्दाली के सैनिकों ने वो क़त्लेआम मचाया कि हज़ारों वीर मराठे मारे गए. उनकी औरतें, जो पानीपत के गांवों में जा छुपी थीं, उन्हें शर्मसार किया गया. बच्चे और औरतें ग़ुलाम बना लिए गए.
कई हज़ार सैनिक और उनके परिवार भागकर सूरजमल के राज्य में चले आये. जाट राजा और रियाया ने इंसानियत दिखाते हुए उनकी देखभाल की. आज तक मराठे इस बात के लिए जाटों का अहसान मानते हैं. ये भी कहा जाता है कि हरियाणा में ‘राव’ लिखने वाले मराठा ही हैं जो यहां बस गए थे.
आज के हालात में
भाजपा में व्यक्ति विशेष को भाऊ बनने से रोकना पड़ेगा, गठबंधन की अनदेखी से बचना होगा और सबसे अहम बात, दिल्ली की सल्तनत को शाह आलम की सल्तनत समझने की भूल नहीं करनी होगी. वरना इतिहास ख़ुद को दोहराएगा. हैरत है कि अमित शाह ने 2019 को पानीपत की दूसरी लड़ाई से नहीं जोड़ा, जब मुग़लों ने हिन्दू राजा को हराकर मुग़ल सल्तनत कायम की थी. क्या भाजपा चुनावों के मद्देनज़र अपना रुख बदल रही है?