फ़ेक न्यूज़ के दानव से गुत्थम-गुत्था आम चुनावों की दहलीज पर खड़ा भारत

साक्षरता की कम दर और इंटरनेट साक्षरता की उससे भी बदतर स्थिति 2019 के चुनावो में फेक न्यूज़ को खुला तांडव करने का मौका दे सकती है.

WrittenBy:गीता यादव
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अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव के प्रचार के दिनों में एक ‘ख़बर’ ने मतदाताओं के बीच धूम मचा दी थी. एक अनजान सी वेबसाइट पर सबसे पहले ये बात साझा हुई कि पोप फ्रांसिस ने रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनल्ड ट्रंप का समर्थन किया है. ख़बर इतने विश्वसनीय तरीके से लिखी गई थी कि लोगों को लगा कि सचमुच ऐसा हो गया है. फेसबुक पर इस ख़बर को 10 लाख से ज्यादा लोगों ने शेयर और लाइक किया.

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ये ख़बर किसी भी स्थापित मीडिया प्लेटफॉर्म पर नहीं थी. लेकिन चुनाव के दौरान जिस एक इन्फॉर्मेशन या कहें डिसइनफॉर्मेशन को लोगों द्वारा देखा और आगे बढ़ाया गया, वो यही ख़बर थी. ये तब हुआ जबकि पोप और वेटिकन से ये बात साफ तौर पर कही गई कि पोप किसी राजनीतिक दल या उम्मीदवार का समर्थन या विरोध नहीं करते.

ये फेक न्यूज़ जिस वेबसाइट पर आई, उसे चलाने वालों के बारे में कोई जानकारी नहीं है. ये वेबसाइट अब बंद हो चुकी है. ये साइट साफ तौर पर अपने अबाउट अस में लिखती है कि ये एक सटायर यानी व्यंग लिखने वाली वेबसाइट है. इसके बावजूद इस गलत सूचना पर लोगों ने भरोसा किया और एक दूसरे तक पहुंचाया. ऐसी ही एक और ख़बर खूब वायरल हुई कि क्लिंटन ने आईएस को हथियार बेचे.

बज़फीड ने अमेरिकी चुनावों के दौरान सबसे ज्यादा पढ़ी गई 20 न्यूज़ और 20 फेक न्यूज़ का अध्ययन करके बताया कि फर्जी या पक्षपातपूर्ण वेबसाइट्स पर आई 20 ख़बरों को फेसबुक पर 87 लाख से ज्यादा लाइक, शेयर, कमेंट और रिएक्शन मिले, जबकि उसी दौरान स्थापित न्यूज़ वेबसाइट्स की सबसे ज्यादा पढ़ी गई 20 ख़बरों को 73 लाख शेयर, लाइक, कमेंट और रिएक्शन ही मिले. ये दिलचस्प है कि इन 20 फेक न्यूज़ में से 17 ऐसी हैं, जो ट्रंप के पक्ष में लिखी गईं, जबकि सिर्फ 3 ऐसी हैं, जिनसे क्लिंटन को फायदा पहुंचाने की कोशिश की गई.

ये 2016 की बात है और ये सब भारत से बहुत दूर अमेरिका में हुआ. फेक न्यूज़ की ऐसी ही बाढ़ ब्रिटेन में भी आ चुकी है. जब ब्रिटेन में इस बारे में रेफरेंडम यानी जनमत संग्रह हो रहा था कि वो यूरोपियन यूनियन में रहे या बाहर निकल जाय. इसे ब्रेक्जिट के नाम से भी जानते हैं.

अमेरिकी चुनाव और ब्रैक्जिट के दौरान आई ‘फेक न्यूज़’ में सबसे चिंताजनक बात ये पाई गई कि इनमें से कई का स्रोत इन देशों से बाहर था. अमेरिकी चुनाव में फेक न्यूज़ को चलाने और वायरल करने का काम मेसेडोनिया और रूस से हो रहा था. ब्रैक्जिट के दौरान भी कई फेक न्यूज़ के स्रोत रूस में पाए गए. चुनावों में किसी और देश की ऐसी भूमिका लोकतंत्र के पूरे विचार को ख़तरे में डालती है क्योंकि चुनाव के दौरान लोगों की राय बनाने में सूचनाओं और ख़बरों की बड़ी भूमिका होती है. इस बारे में दुनिया में कई शोध हो चुके हैं और एजेंडा सेटिंग में मीडिया की भूमिका जैसे थ्योरी भी बन चुकी है.

सूचना, अफवाह, मिथ्याचार और पब्लिक ओपिनियन

दरअसल ये समय दुनियाभर में ‘इनफार्मेशन डिसऑर्डर’ का समय है. ‘इनफार्मेशन डिसऑर्डर’ से मतलब, फेक न्यूज़ के क्रिएशन, प्रोडक्शन और डिस्ट्रीब्यूशन करने की घटनाएं बढ़ने से है. ये एक वैश्विक समस्या बनकर उभरी है. इस समस्या की गंभीरता तब और बढ़ जाती है जब किसी एक देश के इलेक्शन मुद्दों को कोई बाहरी देश इंटरनेट/सोशल मीडिया के माध्यम से प्रभावित करने की कोशिश करे. 2016 के अमेरिकी चुनावों में रूस का हस्तक्षेप इसका एक उदहारण भर है. वहीं ब्रैक्जिट के समय में फेक न्यूज़ की ख़बरों से लगातार लोगों की वोटिंग को प्रभावित किया गया. इसे लेकर यूनेस्को से लेकर यूरोपीय यूनियन तक चिंतित हैं.

ब्रिटेन में हाउस ऑफ कॉमंस ने बाकायदा इसका अध्ययन कराया है और हाउस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ‘फेक न्यूज़’ को रोकने के लिए सख्त नियम बनाए जाने की जरूरत है. इतना ही नहीं, मीडिया संस्थान जैसे बीबीसी आदि भी मिसइन्फोर्मशन का मुकाबला करने के लिए पहल कर रही हैं.

फेक न्यूज़ की जगह कई संस्थाए ‘मिस इनफार्मेशन’, ‘डिसइन्फोर्मशन’, इनफार्मेशन-डिसऑर्डर या ‘मालइनफार्मेशन’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रही है. इसका मुख्य कारण ‘फेक न्यूज़’ शब्द का राजनीतिक तरीके से किया जा रहा प्रयोग है. फेक न्यूज़ शब्द अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया.

डोनल्ड ट्रंप को जो भी ख़बर नापसंद होती है या जिस भी मीडिया संस्थान से नाराजगी होती है, वे उसे फेक न्यूज़ कहते हैं. ये बात वे इतनी बार कह चुके हैं कि अब फेक न्यूज़ शब्द ही अपना अर्थ खो चका है. इसलिए आने वाले दिनों में जो लोग फेक न्यूज़ का विरोध करना चाहते हैं, उन्हें फेक न्यूज़ के बदले किसी और शब्द का ही इस्तेमाल करना होगा.

फेक न्यूज़ के मुख्य 3 स्टेज या चरण होते हैं:

सोर्स/ क्रिएटर- फेक न्यूज़ सरकार द्वारा स्पॉन्सर्ड भी हो सकती है, कोई राजनैतिक पार्टी भी इसका निर्माण कर सकती है, धर्म के ठेकेदार भी ये कर सकते हैं. यहां तक कि सिर्फ ख़बर वायरल करके कमाई करने वाले भी फेक न्यूज़ बना सकते हैं.

प्रोडक्शन- फेक न्यूज़ का आईडिया हो सकता है कोई और दे रहा हो, लेकिन उनको पिक्चर या शब्द, वीडियो का रूप जो देता है, यानि जो सामग्री तैयार कर रहा है, वो प्रोडशन की स्टेज है.

डिस्ट्रीब्यूशन- अब फेक न्यूज़ को फ़ैलाने की स्टेज आती है. फेक न्यूज़ बहुत मामलो में वही लोग फ़ैलाते है जो इसे बनाते है. इसमें मशीनी आईडेंटिटा बॉट की भी भूमिका हो सकती है. लेकिन हमेशा ही ऐसा हो जरूरी नहीं है. हो सकता है कोई राजनीतिक या धार्मिक समूह लोगों को पैसे देकर रखे और उनके माध्यम से फेक न्यूज़ फैलवाये. यानी कि सोर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर एक भी हो सकता है और अलग भी. फेक न्यूज़ को आम जनता भी फैलती है. ये काम जाने और अनजाने में होता है. जान बूझकर वो लोग फ़ैलाते है जो किसी विचारधारा खास के साथ जुड़े होते हैं. अनजाने में वो लोग फ़ैलाते है जिनको पता नहीं होता कि ये फेक है. वो लोग इसे असल न्यूज़ समझ कर शेयर करते है. ऐसी स्थिति में फेक न्यूज़ को ‘मिस-इनफार्मेशन’ कहते है. जानबूझकर जो फेक न्यूज़ फैलाई जा रही है वो ‘डिस-इनफार्मेशन’ है.

फेक न्यूज़ के कारण लोगों को असल ख़बरों पर भी विश्वास करने में समस्या आ रही है. लोगों को नहीं पता होता की जो ख़बर वो पढ़ रहे है वो फेक है या रियल. डेमोक्रेसी के लिए ये एक खतरनाक स्थिति है, क्योंकि लोकतंत्र में सही सूचनाएं मिलना सबसे जरूरी है. जनता अपनी ओपिनियन प्राप्त सूचना के आधार पर बनाती है. ये उनके मतदान के व्यवहार को प्रभावित कर सकता है. यानि फेक न्यूज़ ‘पब्लिक ओपिनियन’ को प्रभावित कर सकता है.

दुनिया के विभिन्न देश इस समस्या का सामना करने के लिए कानून बना रहे है. दुनिया भर में इस बारे में हुई पहल को इस लिंक पर देखा जा सकता है. इन कानूनों में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स जैसे फेसबुक और ट्विटर जैसी साइट्स की जिम्मेदारी तय की जा रही है, ताकि ये प्लेटफॉर्म फेक न्यूज़ ना फैलाये और जानकारी दिए जाने पर भी अगर फेक न्यूज़ नहीं हटाई जाती है तो जुर्माने का प्रावधान भी कई देश कर रहे है. इतना ही नहीं, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर यूजर्स का डाटा थर्ड पार्टी को बेचे जाने पर भी जुर्माने का प्रावधान किया जा रहा है. ऐसे ही एक केस में, कैम्ब्रिज एनालिटिका के स्कैंडल में फेसबुक को, ब्रिटेन की सरकार ने 5 लाख यूरो का फाइन लगाया.

भारत जैसे देश में फेक न्यूज़ का मतलब

अब जबकि भारत में अगला लोकसभा चुनाव करीब है, तो अमेरिका या ब्रिटेन के चुनावों के ऐसे अनुभवों का हमारे लिए क्या मतलब है? फेक न्यूज़ कोई नई बात नहीं है. गणेश को दूध पिलाने से लेकर और नेताओं के व्यक्तिगत जीवन के बारे में झूठी बातें पहले भी फैलती और फैलाई जाती रही हैं. नई बात ये हुई है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया के आने के बाद इसका चलन और असर बढ़ गया है.

अलगोरिद्म के आधार पर अब खास लोगों की पहचान और उन तक खास सूचनाएं पहुंचाना आसान हो गया है. ऐसा एक साथ लाखों, करोड़ों लोगों के साथ हो सकता है.

दूसरी बड़ी बात ये है कि प्रिंट या टीवी के जमाने में समाचार का प्रोडक्शन एक खर्चीला काम था. अब कुछ हजार रुपए में एक वेबसाइट खड़ी करके फर्जी खबरें फैलाई जा सकती है. सोशल मीडिया पर तो ये काम बिना खर्च के भी हो सकता है.

तीसरी बात ये है कि चूंकि इंटरनेट की कोई भौगोलिक सीमा नहीं है, इसलिए फेक न्यूज़ फैलाने वाले दूसरे देशों में भी हो सकते हैं और दूसरे देश की सरकारें भी इसमें शामिल हो सकती हैं.

चूंकि भारत अब सूचना क्रांति के दौर से गुजर रहा है, और 50 करोड़ से ज्यादा लोग इंटरनेट के दायरे में है, तो इस बात का खतरा वास्तविक है कि भारत में भी चुनावों को फेक न्यूज़ के जरिए प्रभावित करने की कोशिश हो सकती है. भारत में इसका खतरा इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि पश्चिमी देशों से उलट भारत में पढ़े-लिखे लोग कम हैं. ऊपर से इंटरनेट लिटरेसी तो यहां बहुत ही कम है. जो साक्षर हो गए हैं यानी जो अपना हस्ताक्षर कर सकते हैं या जो अनपढ़ हैं, वे भी अपने वाट्सएप पर आए मैसेज, जो फेक न्यूज़ हो सकती है, उसे आगे बढ़ा सकते हैं. टेक्स्ट पढ़ने में अक्षम लोग भी वीडिया और फोटो से प्रभावित हो सकते हैं.

भारतीय चुनावों में फेक न्यूज़ या ‘डिसइनफॉर्मेशन’ एक बड़ी समस्या का रूप ले सकती है. 

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