लता सुरगाथा के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार पा चुके युवा लेखक यतींद्र मिश्र के संपादन में प्रकाशित होने वाली आगामी किताब अख़्तरी : सोज़ और साज का अफ़साना से एक अंश.
ये बेगम अख़्तर थीं, जिनकी परवरिश को बड़े करीने से मुश्तरीबाई ने तराशा था. ये बेगम ही थीं, जिन्हें मुश्तरीबाई तब सिनेमा में ले आईं, जिस समय गौहरजान कर्नाटकी की फ़िल्में लोगों के सिर चढ़कर बोलती थीं और उनके मुकाबले अदनी सी अख़्तरी को खड़ा कर दिया. मुश्तरीबाई, जिनको पूरा घर ‘बड़ा साहब’ कहता था- घर की बालकनी पर बैठकर हर आने-जाने वाले पर नज़र रखती थीं कि अख़्तरी से मिलने कौन आया और कौन गया? मुश्तरी के ही बढ़ावा देने पर ये बेगम अख़्तर ही थीं, जो गया से कलकत्ते इसलिए गयीं कि पारसी थियेटर में काम कर सकें और बाद में बम्बई जाकर अपना मुकाम सिनेमा में बना पायें.
इस पूरे प्रकरण में एक बात बहुत साफ है कि तमाम वे महत्त्वपूर्ण औरतें, जिन्हें भारतीय सिनेमा और शास्त्रीय संगीत के आरम्भिक प्रतिनिधि चेहरों के रूप में पहचान मिली- उनकी कामयाबी का अधिकांश सेहरा उनकी मांओं के हिस्से जाता है, जो अपने समय में बेटियों के प्रति विद्रोही बनकर आगे बढ़ सकीं, मगर स्वयं की ज़िन्दगी को सुनहले उजाले में लाकर देखने की हसरत उन कद्दावर औरतों ने कभी नहीं पाली.
यहीं से बेगम अख़्तर को समझने का प्रसंग आगे बढ़ता है. 7 अक्टूबर, सन् 1914 को जिला फ़ैज़ाबाद के भदरसा कस्बे में जन्मी अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी का आरम्भिक परिचय बस इतना ही था कि वे फ़ैज़ाबाद की नामी-गिरामी तवायफ मुश्तरीबाई और वकील असगर हुसैन की छोटी बेटी थीं. असगर हुसैन, मुश्तरीबाई के इस कदर दीवाने थे कि उन्होंने मुश्तरी को अपनी दूसरी बीवी बनाया था. यह और बात है कि छोटी सी बच्ची बिब्बी (अख़्तरीबाई के बचपन का नाम) में वे सब हुनर बचपन से ही मौजूद थे, जिन्हें बाद में धीरे-धीरे परिस्थितियों ने निखारकर एक अलहदा वयस्क और समझदार अख़्तरी में बदल दिया था.
बचपन की उनकी ख़राब आर्थिक परिस्थिति ने सन् 1920 के आस-पास उन्हें गया और कलकत्ता पहुंचा दिया था. इसका एक सुफल यह रहा कि मुश्तरीबाई ने उन्हें परम्परागत शास्त्रीय संगीत में तैयार होने के लिए पटियाला घराने के उस्ताद अता मुहम्मद ख़ां के सुपुर्द कर दिया. उस्ताद की शुष्क और गम्भीर गायकी से सीखकर अख़्तरी कभी पूरे मन से खयाल नहीं गा पाती थीं, बल्कि उनके समीप रहकर ग़ज़ल, ठुमरी और दादरा में सिद्धहस्त होती रहीं. उस समय बचपन में खयाल ठीक से न सीख पाने की पीड़ा ने उन्हें दोबारा खयाल सीखने के लिए प्रेरित किया और इस बार किराना घराने के दिग्गज उस्ताद अब्दुल वाहिद ख़ां से खयाल की बारीकियों को सीखने में जी-जान से जुट गयीं.
इस बार की अख़्तरी ज़्यादा समझदार और ज़्यादा गम्भीर थीं. अब पहले का सा न बचपन था और उन्हें यह बखूबी मालूम था कि खयाल गायकी की छोटी से छोटी बारीकी को गहराई से जाने बग़ैर पब्लिक के आगे परफॉर्म करने में उनके घराने की तौहीन है. वे ख्याल, ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल सीखते हुए जवान हुईं और उनके भीतर बैठे कलाकार का मन पुरबिया, अवधी, भोजपुरी, हिन्दी और उर्दू के खनकते हुए शब्दों को सुन-सुनकर भाषा और बोलियों के लिहाज से समृद्ध होता रहा.
आप यहां आसानी से इस बात की पड़ताल कर सकते हैं कि बेगम अख़्तर की गायकी में पूरब का अंग और उत्तर प्रदेश की गंगा-जमुनी तहजीब की रंगत किस तरह अनूठे ढंग से परिमार्जित होकर हासिल होती है. उर्दू शब्दों का रवानगी के साथ इस्तेमाल, बेगम अख़्तर की गायकी की एक और बड़ी ताकत है, जिससे उनके समकालीनों में उनका दबदबा अलग ढंग से कायम होता गया.
यह अख़्तरीबाई की परवरिश, उनकी नज़ाकत और कम उम्र में ढेरों शहरों में अलग-अलग तरीकों से तालीम लेने का असर था कि बाद के दिनों में, जब वे अपने संगीत और उम्र दोनों के ही लिहाज़ से सबसे नाज़ुक और ख़ूबसूरत दौर में थीं, भारत के अधिकांश नवाबों और राजा महाराजाओं ने समय-समय पर उन्हें अपने दरबार की गायिका बनाया. हैदराबाद, भोपाल और रामपुर के नवाबों तथा कश्मीर और अयोध्या के राजघरानों में दरबारी गायिका के रूप में कई वर्षों तक रही बेगम अख़्तर की गिनती हमेशा बड़ी गायिकाओं में होती रही.
उनकी पूर्ववर्ती एवं समकालीन गायिकाओं खासकर अंजनीबाई मालपेकर, केसरबाई केरकर, मोघूबाई कुर्डीकर और सिद्धेश्वरी देवी जैसी दमदार उपस्थितियों के बीच बेगम अख़्तर ने अपना मुकाम बनाया था. सीखने को लेकर इतनी ललक और कुछ नया पा लेने की बेपनाह चाहत ने उन्हें बहुत सारी गायिकी की नायाबियों से नवाज़ा. मसलन, अपने से उम्र में बड़ी और लगभग 90 की हो चुकीं भेंडी बाज़ार घराने की अप्रतिम अंजनीबाई मालपेकर से सुना हुआ एक दादरा- ‘मैं तो तेरे दमनवा लागी महाराज’, उनके लगभग पीछे पड़कर ही उन्होंने सीख लिया. इस तरह देखें, तो लगेगा कि वे घराने में रहकर भी पूरी तरह घराने की नहीं थीं.
उन्मुक्त, स्वच्छन्द और हुनर के पीछे दीवानों की तरह लगी रहने वाली बेगम साहिबा ने वो सब कुछ किया, जो उन्हें पसन्द था. वो सब कुछ पाने की चाहत रखी, जो हसरत बड़े-बड़े उस्ताद रखने से भी घबड़ाते हैं. कई दरों पर जाकर कुछ सीख आने वाली अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी में भी ये हुनर कमाल का था कि वे सबमें पूरी तरह डूबकर भी कहीं न कहीं किसी कोने में अपनी बेगम अख़्तर वाली टाईप बचा ले जाती थीं. इस सन्दर्भ में उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां का एक दिलचस्प संस्मरण सुनाने लायक है, ख़ां साहब फरमाते हैं- “बेगम अख़्तर के गले में एक अजीब कशिश थी. जिसको कहते हैं ‘अकार की तान’ उसमें ‘अ’ करने पर उनका गला कुछ फट जाता था, और यही उनकी खूबी थी. मगर शास्त्राय संगीत में वह दोष माना जाता है. एक बार हमने कहा कि ‘बाई कुछ कहो, जरा कुछ सुनाओ.’ वे बोलीं, ‘अमां क्या कहें, का सुनाएं.’ हमने कहा कुछ भी. बेगम गाने लगीं, ‘निराला बनरा दीवाना बना दे.’ एक दफे, दो दफे कहने के बाद जब दीवाना बना दे में उनका गला खिंचा, तो हमने कहा, ‘अहा, यही तो सितम है तेरी आवाज़ का.’ वो जो गला दुगुन-तिगुन के समय लहरा के मोटा हो जाता था, वही तो कमाल का था बेगम अख़्तर में.”
गले का एक विशेष परिस्थिति में जाकर शुद्ध स्वरों को थोड़ा विकृत करते हुए तीव्र हो जाना या उसका सामान्य अर्थों में तान, मींड़, गमक लेते वक्त फट जाना- बेगम अख़्तर की कला में अद्भुत ढंग से रस-परिवर्तन करता था. लोग दम साधे सिर्फ उस क्षण के इन्तज़ार में घंटों बैठे रहते थे कि न जाने कब वह घड़ी आन पड़े.
इतिहासकार सलीम किदवई बताते हैं कि “यह कोई नहीं जानता था कि बेगम अख़्तर की अदायगी में वह स्थिति एकदम निश्चित तौर पर कब श्रोता महसूस करेंगे, मगर इतना अवश्य है कि ऐसा कोई जतन बेगम जान बूझकर नहीं करती थीं.” उनके गले की आवाज़ का विशेष अन्दाज चूंकि नैसर्गिक और लगभग अप्रत्याशित था- शायद इसी कारण उस ज़माने से लेकर आज तक बेगम की ग़ज़लों को सुन सुनकर जवान होती हुयी पीढ़ी में उस अप्रत्याशित विद्रूप की खनक बसी हुयी है. कुदरत से पायी हुयी यह विकृति ही, बेगम अख़्तर की गायकी का अलंकार बन गयी है. फिर चाहे वह ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे’ सुनकर कोई महसूस करे, चाहे ‘जरा धीरे से बोलो, कोई सुन लेगा’ और ‘हमरी अटरिया पे आओ संवरिया’ जैसे दादरे सुनकर; सभी कुछ उनके अन्दाजे-बयां में बिल्कुल अनूठा था, जिसकी नकल सम्भव नहीं थी.
संगीत की व्याप्ति हमेशा से ही प्रबुद्ध समाज का अंग रही है. भारतीय शास्त्रीय गायन को मान्यता और श्रेष्ठता हासिल होने के बावजूद ‘पक्का गाना’ कहकर थोड़ा बच निकलने की परम्परा है. जो लोग अपने मनोविनोद के लिए संगीत सुनते आये हैं, उनके लिए शास्त्रीय गायन हमेशा ही कौतूहल की चीज़ रहा है. मगर बेगम अख़्तर के बारे में उन लोगों की मान्यता भी आश्चर्यजनक रूप से सम्मानजनक व प्रशंसापरक ही रही है, जो ऐसा सोचते आए हैं.
यह भी हो सकता है कि बेगम अख़्तर का जीवन जिस तरह तमाम आड़ी-तिरछी रेखाओं और ढेरों उदास-चटख रंगों से बना और संवरा है, उसमें एक श्रोता को आवाजाही के लिए थोड़ा अतिरिक्त स्पेस मिल जाता है. एक बाई की बेटी होना, तिस पर सिनेमा में ऐक्टिंग करना, उसके बाद धीरे-धीरे उपशास्त्रीय संगीत समाज में केन्द्रीयता हासिल करना और रही-सही कसर अपने विलासितापूर्ण जीवन और खान-पान से उजागर कर देना- यह सब कुछ मिल-मिलाकर बेगम अख़्तर को एक आश्चर्य की वस्तु में बदल देते हैं. सिगरेट और शराब पीते हुए अपने हम उम्र लोगों में बेलौस ढंग से उठने-बैठने वाली बेगम अख़्तर की गायिकी भी दरअसल इसी कारण बड़े आश्चर्य और थोड़े संशय दोनों ही के साथ, आज तक सुनी, देखी और बरती जा रही है. इसमें श्रोता और प्रशंसकों को हमेशा इस बात की छूट भी मिलती रही कि वे यह तय कर पायें कि उनकी अपनी चहेती गायिका का अफ़साना कितना अपना है और कहां तक बेगाना है.
इस अपनेपन और बेगानेपन के बीच के द्वन्द्व में फंसी बेगम अख़्तर की गायकी हमेशा से नए सुनने वालों के बीच जिज्ञासा का बायस बनती रही है. यह उन तमाम सारे कद्रदानों का मत है कि जब बेगम अख़्तर कोई ग़ज़ल गाती थीं, तो पूरी महफ़िल पर एकाएक जादुई सा असर होने लगता था. सन् 60-70 के दौरान, जो बेगम का शिखर काल भी है, में ऐसी नामी-गिरामी ग़ज़ल गायिका को सुनना खासा विस्मयकारी होता था. उन श्रोताओं द्वारा यह तय कर पाना मुश्किल था कि गाते वक्त अख़्तरीबाई की आवाज़ कितनी जमीन से जुड़ी हुयी है और कितनी मिथक की चीज़. ग़म, आंसू, दर्द, इश्क़, पीड़ा, विरह, शृंगार जैसे पलों को कितनी बुलन्दी मुहैया करायी जा सकती है- इस बात के लिए उनके ग़ज़लों की नये सिरे से पड़ताल की जानी चाहिए.
गायकी में आम जीवन का दर्द किस कदर शास्त्रीय गरिमा अख़्तियार करता है- बेगम अख़्तर इसकी मिसाल आप थीं. यहां यह स्पष्ट कहने में कोई संकोच नहीं कि जिस दौर में उनके समकालीन गायक गायिकाओं ने अपने अद्भुत फ़न द्वारा ‘पक्का-गाना’ की दुदुम्भी बजाई हुयी थी, उस समय अपने भावों की नज़ाकत में, गम्भीर साहित्यिक उर्दू शब्दों की बंदिशों से बंधी एक ओर मीर, गालिब, मोमिन, दाग की ग़ज़लों को गाती हुई, तो दूसरी ओर बिल्कुल समकालीन और नये शायरों कैफ़ी आज़मी, शकील बदायूंनी, जिगर मुरादाबादी, सुदर्शन फाक़िर की नज़्मों के साथ, बेगम अख़्तर अपनी समकालीन गायिकाओं से बहुत आगे निकल जाती थीं. संगीत के लिए जिस विशेष लय या तरन्नुम की बात अक्सर संगीत के उस्ताद करते हैं, उसका व्यावहारिक पक्ष इनकी गायकी से स्पष्ट होता था.
बेगम अख़्तर जैसी ज़हीन गायिका की कला को समझने के लिये हमें उनके जीवन के उन बन्द गलियारों पर पड़ी चिकों के पीछे भी झांकना होगा, जिनमें से निकलकर एक उम्दा फ़नकार अवध की सरज़मीं को हासिल हुआ है. अख़्तरीबाई के बेगम अख़्तर बनने से बहुत पहले से ही लखनऊ तमाम तरीकों से संगीत की दुनिया में नामी-गिरामी लोगों के इतिहास से भरा रहा है. इनमें हम मुख्य रूप से नवाब वाज़िद अली शाह, बिन्दादीन महाराज, अच्छन महाराज आदि के नाम ले सकते हैं.
अख़्तरीबाई अपने जीवन के आरम्भिक दौर में किस तरह प्रगतिशील सोच की रही थीं और नये ज़माने से कदम दर कदम साथ मिलाकर चलने का हुनर रखती थीं, यह उनके इस एक निर्णय से समझा जा सकता है. यह वाकया 1938 ई. का है, साथ ही उनके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण वर्ष भी माना जा सकता है. उस समय जब अधिकांश गानेवालियों और तवायफों ने अपना ठिकाना (जिन्हें हम एक हद तक ‘कोठा’ कह सकते हैं) पुराने लखनऊ के नक्खास और चौक इलाके में बना रखा था, अख़्तरीबाई पहली ऐसी दबंग महिला के रूप में संगीत के इतिहास में जानी जायेंगी, जिन्होंने एक झटके में इस पुरानी रवायत को तोड़ डाला था. उन्होंने सीधे चौक की बदनाम गलियों से निकल कर नये लखनऊ की हजरतगंज जैसी आधुनिक बस्ती और ‘शुरफा’ (कुलीन लोगों) के बीच रहना पसन्द किया.
1938 में उन्होंने हज़रतगंज के लाल बाग में, जहूर बख़्श चर्च के पास अपना कोठा ‘अख़्तर-मंजिल’ बनाया. अब, आप यह देखिये कि बाकी तवायफों की तरह कोठा बसाने के लिये वे चौक नहीं गयीं. उन्होंने बाक़ी गानेवालियों से खुद को अलग किया. लीक पर चलने वाली उस महफिली रवायत से भी ख़ुद को अलग किया, जो एक हद तक बदनाम बस्तियों का तमगा लिए होती थीं. इस जतन में उन्होंने और ऐसी जगह आकर अपने साज़ और संगीत का मजमा लगाया, जहां आसानी से शरीफ घरों के लोग आ सकें.
‘अख़्तर मंजिल’ जहां बनाया गया था; उसकी पृष्ठभूमि यह थी कि एक ओर ईसाईयों का मशहूर इबादतगाह जहूर बख़्श चर्च था, तो दूसरी ओर यह कोठा जहांगीराबाद पैलेस के ठीक पीछे पड़ता था. करखा के ताल्लुकेदार चौधरी राशीद्दुदीन अशरफ, जो जहांगीराबाद के बहनोई थे- का घर भी ‘अख़्तर मंजिल’ के बगल ही में पड़ता था. अब इस तरह के पड़ोस में आकर बसी अख़्तरीबाई के कोठे पर कोई भी शरीफ़जादा आसानी से कभी भी आ सकता था. वहां उस पर कोई उंगली नहीं उठा सकता था कि ‘अरे मियां आप वहां उस समय क्या कर रहे थे?’ यह जगह अगर पुराने लखनऊ की किसी गली या चौराहे पर पड़ती, तो बेगम के संगीत के वे दीवाने, जो उच्च और कुलीन वर्ग से ताल्लुक रखते थे, वहां चाहकर भी जा नहीं सकते थे.
बेगम अख़्तर के इस प्रसंग की चर्चा इस ऐतिहासिक तथ्य को समझने के लिये ज़रूरी है कि इससे पहले या सन् 1938 के बाद आज तक कोई तवायफ हज़रतगंज के इलाके में बस नहीं पाई. बसेरा बनाना तो दूर, इस तरह सोच भी नहीं सकी. प्रसंगवश यहां एक बात यह भी जानना ज़रूरी है कि एक बार फिर से सन् 1945 के आसपास उन्होंने हैवलॉक रोड पर अपना दूसरा घर बनाया था. नाम इस बार भी उसे ‘अख़्तर-मंजिल’ ही दिया.
(इस पुस्तक का प्रकाशन वाणी प्रकाशन ने किया है)