जाते हुए साल को आप कैसे महसूस करेंगे? अपनी पांच ज्ञानेंद्रियों की जुटाई हुई और अंततः निथर कर बची रह गई स्मृति और अंतर्बोध से ही न !
जब बीते हुए साल के दृश्यों, आवाजों, गंधों, स्वादों और स्पर्शों का एक साथ बेचैन, भयभीत और उत्तेजित करने वाला लंबा सिलसिला थमता है तो अंत में बहुत अप्रिय, लिसलिसी, अपराधबोध पैदा करने वाली एक चीज बचती है. यह मोहभंग है. मानो साढ़े चार साल तक, कोई बहादुर शाह जफ़र की बूढ़ी आवाज में कहता रहा हो- “खुदा के वास्ते जाहिद उठा न परदा काबे का. कहीं ऐसा न हो कि यां भी वही काफिर सनम निकले.” मगर जाहिद ने क्या, इस साल सनम ने खुद ही परदा उठा दिया, देख लो यही मैं हूं.
आम लोगों ने जिस फिनॉमिना के बारे में सबसे ज्यादा बहसें की, जिस व्यक्तित्व को सबसे अधिक विश्लेषित किया गया, ट्रेन या बस के सफर में जिसके नाम को उच्चारित करने का लहजा ही वहां मौजूद मुसाफिरों का धार्मिक-राजनीतिक ध्रुवीकरण कर मारपीट की नौबत ला देने के लिए काफी था, जिसकी शैक्षिक डिग्री (जिसे सार्वजनिक मंच से समारोहपूर्वक दिया जाता है) तक को जतन से छिपाने की कोशिश में सत्ता ने रहस्य बना दिया- यह उसकी कलई उतरने या उससे मोहभंग का साल था.
दिसंबर की बेरहम ठंड में ठिठुरती जनता को लगने लगा है कि उसने विज्ञापन की चकाचौंध से भ्रमित कर देने वाले अभागे क्षण में गोरेपन की क्रीम पोत ली थी, कद लंबा करने की दवा खा ली थी, यौवन लौटाने वाला अवलेह चाट लिया था, गंजेपन के तानों से त्रस्त होकर बाल उगाने वाला तेल चुपड़ लिया था. और अब स्टेरॉयड और अन्य रसायनों के विकृत कर देने भयानक नतीजे सामने आ रहे हैं जिनके बारे में किसी से शिकायत भी नहीं कर सकते क्योंकि चुनाव और सगर्व गुणगान दोनों हमारे थे.
आरएसएस के करीबी केंद्रीय मंत्री, नागपुरी नितिन गडकरी सत्यवादी ऋषि की तरह लगने लगे हैं जिन्होंने अक्तूबर में एक मराठी चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा था- “हम 2014 में पूरी तरह आश्वस्त थे कि सत्ता में नहीं आने वाले इसलिए हमसे बड़े-बड़े वादे करने को कहा गया था. जब सत्ता में आ ही गए तो जनता वादों के बारे में पूछती है और हम हंसकर आगे बढ़ जाते हैं.”
नए साल या उसके आगे के समय से कोई उम्मीद नहीं है लेकिन दिसंबर में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार के बाद एक राहत का भाव हर कहीं महसूस किया जा रहा है कि अब उन्मादी भीड़ द्वारा की जाने वाली हत्याएं और मंत्रियों द्वारा हत्यारों के महिमामंडन के नजारे देखने को नहीं मिलेंगे. पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री के दाहिने हाथ, अमित शाह का दावा गूंज रहा है कि भाजपा अगले पचास साल तक राज करेगी और वे कोटा में राजस्थान चुनाव से पहले पार्टी के युवा व्हाटसैप योद्धाओं की जुटान में घृणा जगाने में समर्थ अफवाहें फैलाने से होने वाले राजनीतिक फायदों का भाष्य कर रहे हैं.
जो दिखाई दियाः
बीते साल को परिभाषित करने वाली दो तस्वीरें हैं.
एक– जुलाई के एक दिन, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी संसद में बैठे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गले लगाने (या गले जा पड़ने) के बाद कांग्रेस के एक सांसद की ओर देखकर आंख मार रहे हैं. राहुल ने ऐसा विरोधी होने के बावजूद लोकतांत्रिक सद्भाव दिखाने या घृणा की राजनीति के बरअक्स प्रेम की राजनीति जैसी बकवास समझाने के लिए नहीं किया था. संदेश संक्षिप्त और साफ था- ‘आप मुझे पप्पू समझते रहिए. मैं आपका आभामंडल तोड़ते हुए, आपके पर्सनल स्पेस में घुस कर आपकी असलियत बता सकता हूं.’
यह उसी आत्मविश्वास का प्रतीक था जिससे खुद नरेंद्र मोदी ओबामा, डोनॉल्ड ट्रंप, ओलांद, पुतिन, नेतन्याहू और शिंजो आबे जैसे नेताओं को गले लगाते हुए जताया करते थे कि भारत का प्रधानमंत्री भी शक्तिशाली राष्ट्रों के नेताओं के साथ बराबरी का बर्ताव कर सकता है. मोदी के भौंचक रह जाने और इसे राहुल के सत्ता पाने की बेकली का प्रतीक बताने की बेतुकी प्रतिक्रिया से तुरंत जाहिर भी हो गया कि तीर सही निशाने पर लगा है. कांग्रेस नहीं बदली, विपक्ष नहीं बदला, लेकिन इस घटना के बाद मोदी के आभामंडल में छेद होने और राहुल गांधी के एक परिपक्व राजनेता के रुप में मान्यता पाने के सिलसिले के तौर पर देखा जा सकता है.
इसी तस्वीर के पीछे एक और तस्वीर चिपकी हुई है. छत्तीसगढ़ के कन्हारपुरी में रहने वाली एक किसान औरत चंद्रमणि से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए पूछते हैं तो वह कहती है- “हम किसानों की आमदनी दोगुनी हो गई है.” कुछ देर बाद वह एक रिपोर्टर से बताती दिखती है, “दिल्ली से आए अफसरों ने हमसे ऐसा बोलने को कहा था तो बोल दिया वरना आमदनी का हाल पुराना ही है.”
दो- मई का महीना है, उत्तराखंड पुलिस के एक सब इंस्पेक्टर, गगनदीप सिंह के सीने से एक भयभीत मुसलमान लड़का चिपका हुआ है और भगवा गमछे डाले, ‘लव जिहाद’ का विरोध करने वाले भाजपाइयों की एक भीड़ उसे खींच कर मार डालना चाहती है. यह लड़का अपनी हिंदू गर्लफ्रेंड के साथ रामनगर में एक मंदिर के पास बैठा हुआ था. पुलिस के खिलाफ नारे लगे, उसके परिवार को धमकियां दी गईं, सब इंस्पेक्टर को छुट्टी पर भेज दिया गया.
इस तस्वीर दूसरा पहलू दिसंबर में भाजपा के ही राज वाले यूपी के बुलंदशहर के चिंगरावठी कस्बे में देखने को मिला. इस तस्वीर में एक इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह का धड़ एक जीप से लटका हुआ है, सिर जमींन में गड़ा हुआ है. इंस्पेक्टर प्रायोजित गौकसी के विरोध में सड़क जाम कर रहे भाजपाइयों को समझाने गया था. उसे उसी की रिवाल्वर से गोली मार दी गई.
गनदीप किसी तरह मुसलमान लड़के को बचा ले गया लेकिन बौराई भीड़ ने बुलंदशहर में एक कर्तव्यनिष्ठ अफसर की जान ले ली क्योंकि इन दोनों के बीच हुई भीड़ द्वारा तथाकथित धर्मरक्षा की बीसियों घटनाओं में नागरिक समाज का एक बहुत छोटा हिस्सा सुरक्षित दूरी से सोशल मीडिया पर अगर मगर के साथ भर्त्सना तो करता रहा लेकिन धरातल पर सत्ता के कोप के डर से हमेशा की तरह मौन रहा. ये दोनों अफसर अपवाद थे वरना इस बीच की अवधि में तेल और तेल की धार देखने वाले सेना और पुलिस के अफसरान, हिंदुत्व के सत्तासीन रंगबाजों के पक्ष में फर्जी कहानियां बनाते रहे, पीड़ितों पर ही कार्रवाई कर कानून का पालन करते रहे. कश्मीर में पैलेट गन के छर्रे बारिश की फुहारों की तरह बरसते रहे, आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब देने के दावों के बावजूद घुसपैठ और हत्याएं होती रहीं. यहां आपको ऐसे ही छर्रों से एक आंख गंवाने वाली 18 महीने की बच्ची, हिबा की तस्वीर दिख सकती है और उस फैक्स मशीन की भी जिसके खराब होने के कारण राज्यपाल, सतपाल मलिक को जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा.
जो सुनाई दियाः
जनता के कान, उन जहाजों के शोर के अभ्यस्त हो गए जो बारी-बारी से अरबों का चूना लगाने वाले ललित मोदी, विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी समेत कई अन्य को विदेश लेकर गए और वे वहां बैठकर एक ही बात कह रहे हैं कि भारतीय जेलों की हालत ऐसी नहीं कि वे उनमें सड़ने के लिए वापस लौट सकें.
इन्होंने ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’ का उद्घोष करने वाली सरकार को किस तरह झांसा दिया, इसके बजाय यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि इनमें से हर एक को भगाने में किसी न किसी सरकारी एजेन्सी के अफसर या बड़े नेता का योगदान रहा है. सबसे तगड़ी ग्यारह हजार करोड़ की चोट खाने वाले पंजाब नेशनल बैंक के प्रबंधन ने फैसला किया है कि अब बोर्ड की सालाना बैठकों की शुरुआत और समापन राष्ट्रगान से होगा. यही मोदी-मैजिक है जिसमें हर वास्तविक समस्या को नकली राष्ट्रवाद के बहरा कर देने वाले शोर और चौंधिया देने वाली चमक से ढंक दिया जाता है.
इन जहाजों से भी ऊंचा शोर फ्रांस से खरीदे गए लड़ाकू विमान राफेल और ‘चौकीदार ही चोर है’ के नारे का सुनाई दिया जिसने सरकार को वास्तविक मुसीबत में फंसा रखा है. अगर एक ही दिन मुंबई एयरपोर्ट पर उतरे उन 1,007 चार्टर्ड विमानों की मद्धिम आवाजों को भी ध्यान में रखा जाए जो दुनिया भर से मेहमानों को मुकेश अंबानी की बेटी की शादी में लाए थे तब यह भ्रष्टाचार का संगीत आर्केस्ट्रा के साथ सुनाई देगा. अंबानी घराने की ही एक शाखा को पहली बार सरकार ने रक्षा सौदा करने की छूट दी और उसकी डूबती कंपनी को मालामाल करने के लिए राफेट जेट की कीमतें बढ़ाई गईं.
सीबीआई मुख्यालय के भीतर से निकल कर सड़क और सुप्रीम कोर्ट तक सुनाई देने वाली झगड़े की आवाजें, नोटबंदी के समर्थक आरबीआई के गर्वनर उर्जित पटेल की कराह और खुद सुप्रीम कोर्ट के चार सर्वोच्च जजों की जनता से न्यायपालिका को बचाने की गुहार करती आवाजों, चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव और हिंदुत्ववादी हुड़दंग के बीच विश्वविद्यालयों से उठते त्राहिमाम के स्वरों से अंदाजा हुआ कि मुट्ठी भर लोगों को फायदा पहुंचाने और जेल जाने से बचाने के लिए संवैधानिक संस्थाओं का क्या हाल किया जा चुका है.
सबसे क्रुद्ध और असरदार मीटू-मीटू की आवाजें उन सैकड़ों औरतों की सुनाई दीं जो यौन उत्पीड़न करने वाले सफेदपोशों का लंबे समय तक पीछा करती रहेंगी. इन औरतों की हिम्मत के कारण मोदी सरकार के मंत्री और पत्रकारिता की ओट में दशकों तक हरम चलाने वाले एमजे अकबर को इस्तीफा देकर अंधेरे में मुंह छिपाना पड़ा. न्यायपालिका, पत्रकारिता, ब्यूरोक्रेसी, फिल्म, कला सभी जगहों तक चिंगारी पहुंच चुकी है, भीतर ही भीतर बहुत कुछ सुलग रहा है जिसकी लपटें आने वाले दिनों में हवा लगने पर दिखाई देंगी.
पितृसत्ता यानि मर्दों की मनमानी के खिलाफ यह मुहिम बहुत लंबे समय तक चलने वाली है और एक दिन राजनीति में भी अभी सर्वशक्तिमान दिख रहे घाघ पुरुष नेताओं का वर्चस्व खत्म करेगी.
जो महका और गंधायाः
इस साल शहरों की हवा सिर्फ प्रदूषण से नहीं, षडयंत्रों की गंध से भी जहरीली हुई है. वेतन लेकर व्हाटसैप के जरिए हर तरह की अफवाहें फैलाने वाले को राजनीतिक कार्यकर्ता कहा जाने लगा. पूरे देश में सत्ता के संरक्षण में, संगठित ढंग से ऐसे फंदे तैयार किए जाने लगे जिनमें गाय के साथ दिखने वाले निर्दोषों को गौ-हत्यारा बताकर उनका वध किया जाए, फलस्वरूप होने वाले हिंदू ध्रुवीकरण का फायदा चुनावों में मिल सके.
मॉब लिंचिंग की दर्जनों घटनाओं के बावजूद एक समुदाय के तौर पर मुसलमानों की भयभीत चुप्पी ने पहले की तरह दंगों को संभव नहीं होने दिया. प्रतिक्रिया नहीं हुई इसलिए मकसद भी पूरा नहीं हुआ. यह हताशा अयोध्या में राममंदिर के लिए संसद में अध्यादेश लाने की मांग और सुप्रीम कोर्ट को जल्दी फैसला देने के लिए धमकाने तक गयी.
यह सबसे स्पष्ट सबरीमाला में महसूस हुआ जहां मासिक धर्म की उम्र वाली महिलाओं को मंदिर प्रवेश का अधिकार मिलने के बावजूद सत्ताधारी भाजपा अदालत का फैसला मानने को तैयार ही नहीं है, बल्कि उसके खिलाफ जनमत भी बना रही है. प्रगतिशील औरतें इसे खुद को कमतर नागरिक और अछूतों जैसी हालत में रखने के षडयंत्र के रुप में देख रही हैं.
एक षडयंत्र की शुरुआत तो साल के पहले दिन महाराष्ट्र के कोरेगांव-भीमा में ब्राह्मणवादी पेशवाई सेना पर, दो सौ साल पहले ब्रिटिश फौज की अछूत महार रेजीमेंट द्वारा दर्ज विजय का उत्सव मनाने जुटे दलितों और हिंदुत्ववादियों के बीच हिंसक झड़पों के साथ ही हो गई थी. पहले एक मजाकिया सा शब्द ‘अर्बन नक्सल’ चलन में आया फिर अगस्त महीने में देश के कई प्रमुख मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं व पत्रकारों को गिरफ्तार और नज़रबंद कर दिया गया.
पूरे साल सीबीआई के जज लोया की हत्या कराने और गुजरात में फर्जी मुठभेड़ों में कइयों को मरवाने वाले एक प्रमुख राजनेता को बचाने के दांव-पेंच चलते रहे जो आगे भी जारी रहेंगे.
आरक्षण की समीक्षा, संविधान की जगह मनुस्मृति और लोकतंत्र की जगह भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की सुगबुगाहट लंबे समय से हवा में थी जिस पर इस साल दलितों के चौंका देने वाले एक स्वतःस्फूर्त आंदोलन ने पानी फेर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला देकर अनुसूचित जाति/ जनजाति अत्याचार निवारण एक्ट-1989 के तहत मुकदमा दर्ज कराने एवं गिरफ्तारी के कई प्रावधानों को भोथरा कर दिया था. बिना किसी राजनीतिक दल के आह्वान और भागीदारी के दलितों के सामाजिक संगठनों और युवाओं के नए बने समूहों ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके दो अप्रैल को सफलतापूर्वक भारत बंद करा दिया और सरकार को संसद में संशोधन लाकर कोर्ट के फैसले को पलटना पड़ा.
सिर्फ इतना ही नहीं हुआ आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत को सितंबर महीने में पहली बार संविधान को पूरी तरह मानने की घोषणा करनी पड़ी. दलितों का पुराना नेतृत्व अवसरवादी चुनावी राजनीति की भेंट चढ़ चुका है लेकिन इस साल कई मौकों पर उनकी स्वतःस्फूर्त कार्रवाईयों ने मजबूत संकेत दिया कि उनके भीतर एक नए तरह की सामाजिक चेतना पक रही है जिससे नया नेतृत्व भी भविष्य में उभर सकता है.
स्वाद और स्पर्शः
उद्योगपतियों के अधाधुंध पैसे और प्रबंधन की विद्या सीखे भाड़े के दिमागों से निकली, एक नाकारा सरकार से नाराज जनता का मन फेरने और छवि बनाने की कामयाब मार्केटिंग रणनीतियों से दो औसत से भी नीचे की क्षमता के व्यक्ति सत्ता के शीर्ष तक ही नहीं मिथक और किंवदंती होने के करीब जा पहुंचे. दिक्कत यह हुई कि एक हाथ से मुनाफा केंद्रित-आधुनिक कारपोरेट और दूसरे से प्राचीन वर्णाश्रमी हिंदुत्व का असंभव संतुलन साधना था, नहीं संभाल पाए, भहरा गए.
बुलेट ट्रेन, डिजिटल इंडिया, नोटबंदी, जीएसटी, मेक इन इंडिया, काला धन के पंद्रह लाख हर आदमी के खाते में डालने और शब्द संक्षेप-विस्तार के जरिए भारत को ‘सुप्पर पॉवर’ बनाने की अपनी मौलिक कल्पनाओं को साकार करने के लिए उन्होंने जो किया वह सामने है.
यह भी साबित हुआ कि लोकतंत्र से अधिकार, विज्ञान और तकनीक से सुविधाएं, सुविधाओं से नई आदतें और जीवनशैली पाए हिंदू को एक सीमा से अधिक पीछे लेकर जाकर इतिहास के धर्म, जाति और संस्कृति के प्रश्नों पर नहीं लड़ाया जा सकता है. भाजपा-आरएसएस का असल विपक्ष सेकुलर पार्टियां नहीं बदला हुआ समय है. लिहाजा वे मार्केटिंग और ब्रांडिंग से बनाए गए उग्र हिंदू-गौरव की ऊंचाई से अब गिर रहे हैं और इसे महसूस करना ही अपने समय का स्पर्श जानना है.
अपने समय में मिर्च-मसाले मिलाकर पकाने के बाद टीवी, अखबार और मोबाइल के स्क्रीन पर परोसने वाले आधुनिक रसोईये का नाम मीडिया है. इस मीडिया के व्यंजनों को न चाहकर भी खाते हुए जो मानसिक, शारीरिक अनुभूतियां होती हैं वह हमारे समय का स्वाद है. मीडिया की मुख्यधारा का अधिकांश इस वक्त 2019 का आम चुनाव जिताने-हराने का ठेका लेकर, झूठा इतिहास पढ़ाने और मुसलमानों के प्रति नफरत को सनसनीखेज रचनात्मक तरीकों से भड़काने में लगा हुआ है और उसके लिए एक शब्द ‘गोदी मीडिया’ प्रचलन में आ चुका है.
मीडिया को पालतू बनाकर गोद में बिठाना महंगा सौदा है इसलिए दूर की सोचने वाले आरएसएस-भाजपा ने कुटीर उद्योग शैली में, कम लागत पर, स्वदेशी आईटी सेल के जरिए इच्छित नतीजे देने वाले काल्पनिक वीडियो, अफवाहों और विरोधियों को बदनाम करने के लिए बनाई सूचना जैसी लगती कहानियों को विपुल मात्रा में पैदा करने का कारखाना लगा दिया है.
आने वाले दिनों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तकनीक की उपलब्धता के साथ यह कारखाने दूसरी राजनीतिक पार्टियां भी लगाने जा रही हैं जिससे स्पर्धा के साथ भ्रम बढ़ेगा, सच और झूठ का फर्क कर पाना अब की तुलना में ज्यादा कठिन होता जाएगा. आम आदमी झूठ और अफवाहों के बीच गोते खाते रहने के लिए अभिशप्त होगा. सिर्फ मसाले बचेंगे, अपने वक्त का स्वाद महसूस कर पाना कठिन होता जाएगा. यह एक बड़ी चुनौती है जो जल्दी ही विकराल रुप में सामने आने वाली है.
और अंत मेः
बाकी दुनिया क्या कर रही थी, इसे समझने के लिए अमेरिका में रहने वाले एक पत्रकार, जमाल खाशोगी को सऊदी अरब के राजकुमार मोहम्मद बिन सलमान के इशारे पर अपने दूतावास के भीतर बुलाकर बोटी-बोटी काट डाला गया. इस पर उदारवाद-लोकतंत्र-मानवाधिकार-प्रेस की स्वतंत्रता-कानून का राज आदि तकाजों के जवाब में दुनिया के सबसे शक्तिशाली नेता, डोनॉल्ड ट्रंप ने जो कहा उस पर गौर किया जाना चाहिए. ट्रंप राष्ट्रवादी चोला धारण कर कहते हैं- “मैंने सऊदी अरब के राजा को अमेरिका में रिकार्ड 450 बिलियन डालर निवेश करने के लिए राजी किया है. इससे हजारों अमेरिकियों को रोजगार मिलेगा, आर्थिक तरक्की होगी और समृद्धि आएगी. सऊदी अरब सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है, वहां का राजा मेरे कहने पर तेल की कीमतों को उचित दर पर रखने के लिए राजी है. मैं इस खतरनाक दुनिया में अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचाने वालों से आपकी रक्षा कर रहा हूं. इसे ही संक्षेप में ‘अमेरिका फर्स्ट’ की नीति कहा जाता है. ”
और यह भी कहा, “यह पूरी दुनिया ही अनैतिक है और इसलिए पूरी दुनिया ही उन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार है जिनके कारण खाशोगी की हत्या हुई.”
इस तरह आप भी उस हत्या के जिम्मेदार हुए जिसका न्याय बेचारे डोनॉल्ड ट्रंप भी नहीं कर सकते क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रवाद खतरे में पड़ सकता है.
नए साल की शुभकामनाएं.
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