वरुण गांधी के कांग्रेस-गमन की कहानी में तथ्य कम, गल्प ज्यादा है

वरुण गांधी के कांग्रेस में शामिल होने की अटकलों में उनके राजनीतिक भविष्य की कोई गुलाबी तस्वीर नज़र नहीं आती.

WrittenBy:राहुल कोटियाल
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2014 की बात है. देश भर में लोकसभा चुनावों की धूम थी. भाजपा नरेंद्र मोदी पर दांव लगा कर उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर चुकी थी और वे तूफानी रफ़्तार से देश भर में चुनावी रैलियां कर रहे थे. बिहार में कई रैलियां करने के बाद नरेंद्र मोदी को उत्तर प्रदेश का रुख करना था. यहां आंबेडकर नगर में उनकी एक बड़ी रैली आयोजित की गई थी.

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आंबेडकर नगर पहुंचने से पहले नरेंद्र मोदी का जहाज करीब एक घंटे के लिए अमहट हवाई पट्टी पर रुका. ये इलाका सुल्तानपुर जिले में आता है जहां से वरुण गांधी भाजपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे. इस दिन वरुण गांधी सुल्तानपुर में ही थे. लेकिन नरेंद्र मोदी के यहां पहुंचने की सूचना मिलने पर भी वे उनसे मिलने अमहट नहीं गए और अपने चुनाव प्रचार में ही व्यस्त रहे.

सुल्तानपुर भाजपा जिला इकाई के एक कार्यकर्ता बताते हैं, “वरुण गांधी का ये क़दम निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी को बुरा लगा. उस चुनाव में भाजपा का हर प्रत्याशी चाह रहा था कि नरेंद्र मोदी एक बार उसके लोकसभा क्षेत्र में आ जाएं. लेकिन वरुण गांधी के क्षेत्र में मोदी खुद पहुंचे थे पर वरुण गांधी ने उनसे मिलना भी जरूरी नहीं समझा. शायद यहीं से पार्टी में वरुण के बुरे दिनों की नींव पड़ गई थी.”

पहचान गुप्त रखने की की शर्त पर सुल्तानपुर भाजपा इकाई के कार्याकर्ता आगे बताते हैं, “पार्टी की व्यापक जीत में मोदी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता. लेकिन ये भी किसी से छिपा नहीं है कि वे बहुत अहंकारी हैं. वे अपने सामने पार्टी में किसी को कुछ नहीं समझते. पार्टी के दिग्गज और वरिष्ठ नेताओं को तो उन्होंने कब का किनारे कर दिया है. इसलिए वरुण गांधी के दुस्साहस को वे कैसे हजम कर सकते थे. कई लोगों को यह बहुत छोटी बात लग सकती है लेकिन नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व ऐसा ही हैं. सच्चाई आपके सामने है, एक वो दिन था और एक आज का दिन है. वरुण की पार्टी में हैसियत गिरती ही गई है.”

साल 2013 में वरुण गांधी को भाजपा का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया था. भाजपा के इतिहास में वे पहले व्यक्ति थे जो इतनी कम उम्र में इस पद पर पहुंचे थे. लेकिन अगले ही साल, जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने पहला महत्वपूर्ण काम किया अपने दाहिने हाथ कहे जाने वाले अमित शाह को पार्टी अध्यक्ष बनाने का. जैसे ही अमित शाह ने कमान संभाली, उन्होंने वरुण गांधी को महासचिव पद से हटा दिया.

इसके बाद से वरुण गांधी के साथ भाजपा में जो कुछ भी हुआ, बुरा ही हुआ. कहां तो उन्हें उत्तर प्रदेश चुनावों से पहले मुख्यमंत्री पद का दावेदार माना जा रहा था और कहां पार्टी ने उन्हें ‘स्टार प्रचारक’ की पहली सूची में भी शामिल करना जरूरी नहीं समझा.

वरुण के राजनीतिक सफ़र में आए इन ज़बरदस्त उतार-चढ़ावों और उनके भविष्य की संभावनाओं को समझने की शुरुआत वहीं से करते हैं जहां उन्होंने अपना राजनातिक सफ़र शुरू किया था.

हिंदू हृदय सम्राट से गंभीर राजनेता में परिवर्तन

‘वरुण नहीं ये आंधी है, दूसरा संजय गांधी है.’ साल 2009 में इसी तूफानी नारे के साथ वरुण के राजनीतिक सफ़र की शुरुआत हुई थी. जितना तूफानी नारा था उतनी तूफ़ानी उनकी शुरुआत भी थी. पीलीभीत संसदीय सीट से अपना पहला चुनाव लड़ने उतरे वरुण गांधी ने अपने सांप्रदायिक भाषणों से मुसलामानों के खिलाफ जो ज़हर उगला, उसने चुनावों के पूरे माहौल को ही एक सांप्रदायिक लड़ाई में बदल दिया. इसके चलते वरुण के खिलाफ मुक़दमे दर्ज हुए, उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाया गया और उन्हें जेल भी हुई. लेकिन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का पूरा फायदा भी उन्हें मिला और वे आसानी से यह चुनाव जीत गए.

चुनावी राजनीति के इतर वरुण की राजनीतिक यात्रा 2004 में ही भाजपा नेता प्रमोद महाजन की कोशिशों से शुरू हो गई थी. वे अपने भाषणों में वरुण की जमकर तारीफ करते थे और राहुल गांधी से तुलना करते हुए उन्हें बेहतर राजनीतिज्ञ बताते थे. वरुण ने तभी से चुनावी सभाओं में भाषण देना भी शुरू कर दिया था लेकिन तब उनकी उम्र इतनी नहीं थी कि वे खुद चुनाव लड़ पाते. लिहाजा उन्होंने पहला चुनाव साल 2009 में लड़ा.

दिलचस्प यह भी है कि हिंदुत्व के नए ‘पोस्टर बॉय’ की जिस छवि के साथ वरुण राजनीति में आए थे, उस छवि को उन्होंने ज्यादा समय तक बरकरार नहीं रखा. बल्कि इसके उलट वे गंभीर आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर लागातार लिखते-बोलते मिले और उन्होंने अपनी छवि एक अकादमिक बुद्धिजीवी के रूप में स्थापित करने की कोशिश शुरू की जो आज भी जारी है.

वरुण के करीबी रहे एक भाजपा कार्यकर्ता बताते हैं, “हिन्दू हृदय सम्राट की अपनी छवि को वरुण गांधी ने बहुत सोच-समझकर तोड़ा था. वे बहुत महत्वकांक्षी हैं और उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में अहम जगह बनानी है. वे जानते हैं कि किसी कट्टर छवि के साथ उनकी राष्ट्रीय स्वीकार्यता कमज़ोर होगी. इसीलिए उन्होंने चुनाव जीतने के साथ ही अपनी उस कट्टर छवि को त्याग दिया और गंभीर आर्थिक/सामाजिक मुद्दों पर लिखना-बोलना शुरू किया.”

2014 के लोकसभा चुनावों से पहले वरुण गांधी काफी मजबूत स्थिति में थे. वे सबसे कम उम्र के भाजपा राष्ट्रीय महासचिव बन चुके थे और पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी मिलने की उम्मीद लगाए बैठे थे. यह वो दौर था जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए घोषित नहीं किया था. नरेंद्र मोदी के नाम पर चर्चा चल रही थी लेकिन वरुण गांधी उनकी जगह राजनाथ सिंह की वकालत कर रहे थे. ये बात नरेंद्र मोदी भी जानते थे.

अंततः नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार घोषित हो गए. वे चुनावी रैलियां कर रहे थे और उनकी रैली में जनसैलाब उमड़ रहा था. ऐसी ही एक रैली के बारे में वरुण गांधी ने उस समय बयान दिया, “मोदीजी की रैली सफल रही लेकिन उसमें करीब 50  हजार लोग ही शामिल हुए.” इस बयान से भाजपा की काफी किरकिरी हुई क्योंकि पार्टी ये दावा कर रही थी मोदी की इस रैली में दो लाख से ज्यादा लोग मौजूद थे.

इसके बाद नरेंद मोदी का सुल्तानपुर आना हुआ जिसका जिक्र शुरुआत में आया है. इसने दोनों के बीच की दूरी को कुछ और बढ़ा दिया. 2014 के चुनावों से पहले शायद वरुण गांधी को भी इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा इतनी बड़ी सफलता हासिल कर लेगी और नरेंद्र मोदी जल्द ही भाजपा के सर्वेसर्वा हो जाएंगे. लेकिन जब ऐसा हो गया तो वरुण गांधी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा. 2014 में ही उन्हें राष्ट्रीय महासचिव के पद से हटा दिया गया.

इसके बाद वरुण गांधी ने पार्टी में अपनी पकड़ मजबूत करने के जितने भी प्रयास किये, सब एक-एक कर ध्वस्त होते चले गए. इसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान मिला. इन चुनावों से पहले इलाहाबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की एक बैठक हो रही थी. इस बैठक के दौरान इलाहाबाद के संगम से लेकर शहर के तमाम इलाकों में ऐसे हजारों पोस्टर नज़र आने लगे जिनमें वरुण गांधी को भावी मुख्यमंत्री घोषित करने की मांग की गई थी. ये पोस्टर ‘वरुण गांधी यूथ ब्रिगेड’ की ओर से लगाए गए थे. वरुण गांधी को मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल माना भी जा रहा था और कई सर्वे उनकी लोकप्रियता पर मुहर भी लगा रहे थे.

इस दौरान कई अखबारों में वरुण गांधी की तारीफों वाले लेख भी छपे. इनमें बताया जा रहा था कि वरुण गरीबों के लिए काम कर रहे हैं, मकान बनवा रहे हैं, किसानों के कर्ज खुद चुका रहे हैं आदि. यह माना जाता है कि वरुण की टीम के लोग ही ऐसे लेख अखबारों में लिखवा रहे थे. यानी ये लेख प्रायोजित थे. बहरहाल, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की दौड़ में वरुण गांधी अच्छी-खासी रफ़्तार से दौड़ रहे थे लेकिन अचानक ही वे धड़ाम से गिर पड़े जब उनका एक कथित सेक्स-टेप सामने आया.

उन पर डिफेन्स से जुड़ी कुछ गोपनीय जानकारी एक आर्म्स डीलर को देने के आरोप लगे और इसके साथ ही उनका मुख्यमंत्री बनने का सपना चकनाचूर हो गया. इतना ही नहीं, वरुण को भाजपा ने अपने स्टार प्रचारकों की सूची में भी शामिल नहीं किया और अपने संसदीय क्षेत्र से बाहर चुनाव प्रचार करने पर भी रोक लगा दी.

इस मुकाम तक आते-आते वरुण भी जान चुके थे कि उन्हें भाजपा में अब पूरी तरह से हासिए पर पहुंचा दिया गया है. पार्टी में अब उनके लिए बड़ी जिम्मेदारी तब तक संभव नहीं है जब तक पार्टी की कमान मोदी-शाह के हाथों में है. लिहाजा यहां से वरुण गांधी की राजनीति में एक दिलचस्प बदलाव आया. कई अखबारों और वेबसाइटों इस तरह की ख़बरें दिखने लगी जिनका लब्बोलुआब था कि ‘क्या वरुण गांधी कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं?’

वरुण ने ऐसी ख़बरों का कभी खंडन नहीं किया. बल्कि उन्होंने समय-समय ऐसे परोक्ष संकेत भी दिए जिनसे इन संभावनाओं को ही बल मिला. फिर चाहे राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव प्रचार करने से इनकार करना हो, राहुल के संसदीय क्षेत्र अमेठी में हुए कामों की तारीफ़ करना हो या फिर अपनी ही सरकार की नीतियों की आलोचना करना हो. वरुण बड़ी चालाकी से कांग्रेस में शामिल होने की ख़बरों पर चुप्पी साधे रहे जिसके चलते आज भी यह सवाल कई बार उठता रहता है.

स्वाति चतुर्वेदी की चमत्कारिक पत्रकारिता

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता का अनुमान है कि इस तरह की ख़बरें खुद वरुण की सहमति से ही प्रकाशित होती होंगी, ताकि पार्टी को उनके जाने से होने वाले संभावित नुकसान का भान हो और उनकी स्थिति पार्टी में कुछ मजबूत हो सके. हालांकि भाजपा नेता का यह बयान उनका निजी आकलन है लेकिन उनकी बात को इससे बल मिलता है कि वरुण गांधी के कांग्रेस में जाने की संभावनाओं को लेकर कुछ गिने-चुने पत्रकार ही बार-बार लिखते रहे हैं. इनमें से एक नाम है स्वतंत्र पत्रकार स्वाति चतुर्वेदी का. हाल के कुछ वर्षों में स्वाति ने वरुण गांधी की सकारात्मक छवि निर्मित करने वाले लेख लगातार विभिन्न मीडिया प्लेटफॉर्म पर लिखा है.

उत्तर प्रदेश चुनावों से पहले स्वाति ने डेलीओ वेबसाइट पर एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने भाजपा के संभावित मुख्यमंत्रियों का जिक्र किया था. इस लेख में उन्होंने वरुण गांधी का नाम सबसे ऊपर लिखा था. इसके बाद जब वरुण गांधी सेक्स टेप मामले में फंसते नज़र आए तो स्वाति ने स्कूप-व्हूप नामक वेबसाइट पर अपने एक लेख में लगभग उन्हें क्लीन चिट देते हुए लिखा कि कैसे भाजपा इस संकट के समय में वरुण की कोई मदद नहीं कर रही.

इसके बाद भाजपा ने जब वरुण गांधी को ‘स्टार प्रचारक’ की सूची में शामिल नहीं किया तो भी स्वाति चतुर्वेदी ने एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे भाजपा के इस फैसले से पार्टी में ‘बड़ा विद्रोह’ होने की संभावनाएं बन रही हैं और कैसे इन ‘संभावनाओं ने नरेंद्र मोदी और अमित शाह की रातों की नींद छीन ली है.’ बहरहाल, ऐसा कोई विद्रोह तो भाजपा में नहीं हुआ जिससे मोदी-शाह की नींद उड़ जाए लेकिन वरुण गांधी की स्थिति जरूर पार्टी में और कमज़ोर होती चली गई.

इसके बाद आया वो दौर भी आया जब वरुण के कांग्रेस में शामिल होने की संभावनाओं के बारे में लिखा जाने लगा. दिलचस्प है कि इसकी शुरुआत भी स्वाति चतुर्वेदी ने ही की. सबसे पहले साल 2016 में उन्होंने एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने सवालिया अंदाज़ में कहा कि वरुण गांधी अब किस तरफ रुख करेंगे. इस लेख में उन्होंने बताया कि वरुण गांधी कांग्रेस में जा तो सकते हैं लेकिन इसकी संभावनाएं फिलहाल काफी कम हैं.

अप्रैल 2017 में स्वाति ने फिर से एक लिखा और इस बार उन्होंने वरुण गांधी के कांग्रेस में शामिल होने की प्रबल संभावनाएं बताई. इस लेख में उन्होंने बताया कि कैसे वरुण गांधी ने खुद का पुनर्विष्कार किया है, कैसे वे लगातार देश भर के छात्रों से मिल रहे हैं, वे कितनी किताबें लिख चुके हैं, कितने अखबारों में वे नियमित स्तंभ लिखते हैं और कैसे उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी की तरह ही ‘गलत पार्टी में सही व्यक्ति’ कहा जाता है. स्वाति ने अपने लेख में लिखा कि वे प्रियंका गांधी से संपर्क में हैं और काफी संभव है कि वे आने वाले समय में कांग्रेस में शामिल हो जाएं.

2017 में ही इंडिया टुडे में भी एक खबर छपी जिसमें वरुण गांधी के कांग्रेस में जाने की संभावनाएं जताई गई. इसके बाद तो यह ख़बर लगभग हर अखबार में छपी लेकिन न तो वरुण गांधी ने और न ही कांग्रेस के बड़े नेताओं ने इस बारे में कोई टिप्पणी की. तब से एक साल बीत चुका है और ऐसा कुछ नहीं हुआ है जिसकी संभावना इन ख़बरों में जताई गई थी. वरुण के कांग्रेस में जाने की चर्चा ख़त्म ही होने लगी थी लेकिन हाल ही में स्वाति चतुर्वेदी ने एक और लेख गल्फ न्यूज़ की वेबसाइट पर लिख मारा. वरुण गांधी इन दिनों अपनी नई किताब- ‘ए रूरल मैनिफेस्टो’ के सिलसिले में तमाम पत्रकारों से बात रहे हैं. स्वाति चतुर्वेदी के लेख में भी उनकी इस किताब का जिक्र हैं लेकिन साथ ही वरुण गांधी से जुड़े कई भावनात्मक पहलुओं पर भी इस लेख में चर्चा की गई है.

इसमें स्वाति ने बताया है कि कैसे वरुण गांधी अपनी नवजात बिटिया की मौत के बाद पूरी तरह बदल गए हैं. वे अब पहले की तरह नहीं हैं, काफी मृदुभाषी हो गए हैं. उन्होंने इस लेख में लिखा है कि इस घटना के बाद से वरुण की राजनीति और उनका जीवन, दोनों ही पूरी तरह से बदल गए हैं.

एक बेटी की मौत किसी भी व्यक्ति को पूरी तरह बदल सकती है और यह संभव है कि वरुण में भी ऐसे बदलाव आए हों. लेकिन यह बात थोडा अटपटी लगती है कि वरुण में आए इन बदलावों का जिक्र स्वाति साल 2018 में कर रही हैं जबकि उनके साथ यह दुखद हादसा साल 2012 में हुआ था (स्वाति ने अपने लेख में यह हादसा 2011 का लिखा है). यानी वरुण गांधी ने अपने कुल राजनीतिक सफ़र का अधिकांश हिस्सा इस हादसे के बाद ही तय किया है. यह भी दिलचस्प है कि इसी समय के बीच में स्वाति ने वरुण गांधी से संबंधित तमाम लेख लिखे (6 लेख) लेकिन उनके व्यक्तित्व में बदलाव की बात उन्होंने 6 साल बाद नोटिस की.

इस लेख के अंत में स्वाति ने यह भी लिखा है कि ‘वरुण गांधी राजनीति में तो रहेंगे लेकिन आने वाला लोकसभा चुनाव वो भाजपा के टिकट पर नहीं लड़ेंगे.’ इसी के साथ उन्होंने वरुण के कांग्रेस में जाने की संभावना पर साल 2016 और 2017 की ही तरह एक बार फिर से अटकलबाजी की है. स्वाति चतुर्वेदी जिस संभावना पर लगातार पिछले दो-तीन साल से लिख रही हैं, उन संभावनाओं में कितना दम है? इस सवाल के जवाब में भाजपा के ही वरिष्ठ नेता कहते हैं, “वरुण तो कांग्रेस में चले जाएं, लेकिन क्या कांग्रेस उन्हें शामिल करेगी?”

ये नेता कहते हैं, “वरुण गांधी के सामने जो समस्या भाजपा में है, वही कांग्रेस में भी होगी. समस्या है उनकी महत्वाकांक्षा. वो सिर्फ एक सांसद होने के लिए तो कांग्रेस में शामिल नहीं होंगे. सांसद तो वे भाजपा में भी हैं ही. बड़ी जिम्मेदारी उन्हें कांग्रेस भी नहीं देगी क्योंकि वहां वे राहुल गांधी के लिए चुनौती बन जाएंगे. वरुण में योग्यता है और यह बात सभी जानते हैं. उन्हें अगर मौका मिलेगा तो वे भाजपा के बड़े नेताओं को भी गौण कर सकते हैं. उनके व्यवहार से स्पष्ट है कि वे बंध कर नहीं रह सकते. ऐसे में कांग्रेस उन्हें पार्टी में शामिल क्यों करेगी.”

उत्तर प्रदेश कांग्रेस इकाई के एक बड़े नेता भी लगभग यही बात दोहराते हैं. वे कहते हैं, “वरुण का कांग्रेस में आना उनके और कांग्रेस पार्टी, दोनों के लिए फायदेमंद है क्योंकि उनकी एक अपील है और एक सफल राष्ट्रीय नेता बनने के सभी गुण भी उनमें हैं. लेकिन राहुल गांधी के लिए ये बिलकुल भी फायदेमंद नहीं है. कई सालों की मेहनत के बाद राहुल गांधी राष्ट्रीय नेता के तौर पर स्थापित होने की स्थिति में पहुंचे हैं. वे क्यों चाहेंगे कि कांग्रेस में आकर वरुण पार्टी के भीतर उनके लिए चुनौती बन जाएं. इसके अलावा मेनका गांधी भी ये कभी मंज़ूर नहीं करेंगी कि वरुण कांग्रेस में शामिल हों. कम से कम सोनिया गांधी और मेनका गांधी के रहते तो इसकी संभावनाएं बिलकुल नहीं हैं कि वरुण गांधी कांग्रेस में आएं.”

वरुण की भाजपा में स्थिति किसी से छिपी नहीं है. वे खुलकर अपनी इस स्थिति पर कुछ बोल भी नहीं सकते क्योंकि पार्टी के पास ये तर्क मौजूद है कि मेनका गांधी केन्द्रीय मंत्री हैं और एक परिवार के एक ही सदस्य को बड़ी जिम्मेदारी दी जा सकती है. ऐसे में सीमित जिम्मेदारियों के साथ ही गुज़ारा करना वरुण की नियति बन गया है. इस स्थिति में तब तक किसी तरह के बदलाव आने की संभावना नहीं हैं जब तक पार्टी की कमान मोदी-शाह की जोड़ी के पास है.”

कुछ लोग यह जरूर मान रहे हैं कि पांच राज्यों के चुनावी नतीजों के बाद वरुण गांधी की स्थिति कुछ बेहतर हो सकती है. जिस तरह से भाजपा सभी राज्यों में हारी है, उससे मोदी-शाह के नेतृत्व पर सवाल आने वाले समय में उठेंगे. मोदी-शाह के गठजोड़ को पार्टी के भीतर से कमज़ोर करने की क्षमता जो भी रखता है, उसे बल मिलेगा. ऐसे लोगों में एक नाम वरुण गांधी का हो सकता है. हालांकि 2019 से पहले तो ये दूर की कौड़ी लगता है.

कांग्रेस के नेता रहे हेमवती नंदन बहुगुणा ने एक बार इंदिरा गांधी के बारे में कहा था- “इंदिराजी उन लोगों में से हैं जो पहले एक पौधा लगाती हैं और फिर खुद ही उसे उखाड़ कर देखती हैं कि कहीं ये जड़ तो नहीं पकड़ गया.” आज इंदिरा गांधी का पोता (वरुण) वही पौधा बन गया है जिसे बार-बार उखाड़ कर पार्टी आलाकमान आश्वस्त होना चाहता है कि कहीं वह जड़ तो नहीं पकड़ रहा.

(न्यूज़लॉन्ड्री ने इस संदर्भ में स्वाति चतुर्वेदी से उनका पक्ष जानने के लिए कई संदेश भेजा पर उनका अब तक कोई जवाब नहीं मिला है. उनका जवाब मिलने की स्थिति में हम उसे इस स्टोरी में शामिल करेंगे.)

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