पार्ट 4: राष्ट्रवाद और प्रचलित राजनीति का मोहरा बन गई ऐतिहासिक फिल्में

ऐतिहासिक फिल्मों की श्रृंखला के इस अंतिम भाग में हम इक्कीसवीं सदी में बनी फिल्में और उसके सामाजिक और राजनीतिक नज़रिए पर बात करेंगे.

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आशुतोष गोवारीकर की ‘जोधा अकबर’ (2008) 21वीं सदी की खास ऐतिहासिक फिल्म है. गहन शोध और आमफहम संवाद के साथ तत्काल परिवेश की गहन अनुभूति से समृद्ध यह फिल्म मुग़ल साम्राज्य के एक ऐसे बादशाह के जीवन और दरबार में झांकती है, जिसने सद्भावना की तामीर रखी और देश को साथ रहने की मिसाल दी. यह अकबर के उदात्त चरित्र को लेकर चलती है और उनके प्रेम की बुनियादी बनावट जाहिर करती है.

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इस फिल्म के अंत में अमिताभ बच्चन के स्वर में सार सुनाई पड़ता है- “यह कहानी है जोधा अकबर की. इनकी मोहब्बत की मिसाल नहीं दी जाती और न ही इनके प्यार को याद किया जाता है. शायद इसलिए कि इतिहास ने उन्हें महत्व ही नहीं दिया. जबकि सच तो यह है कि जोधा अकबर ने एक साथ मिल कर चुपचाप इतिहास बनाया है.”

सात सालों के बाद संजय लीला भंसाली ने ‘बाजीराव मस्तानी’ (2015) में ‘जोधा अकबर’ के विपरीत हिंदू पेशवा और मुसलमान मस्तानी की प्रेम कहानी परदे पर रची. इस प्रेम कहानी में भी ‘जोधा अकबर’ की तरह तत्कालीन सामाजिक, वैचारिक और धार्मिक मुद्दों को समेटा गया. बाजीराव और मस्तानी के प्रेम की सबसे बड़ी बाधा दोनों का अलग-अलग मजहबों का होना है. भंसाली बाजीराव के बहाने अपनी धारणा पेश करते हैं.

मनोहारी दृश्यात्मक सौंदर्य से दर्शकों को रिझाने में पारंगत संजय लीला भंसाली कमोबेश उसी सोच के फ़िल्मकार हैं, जो देश की वर्तमान सत्ता की राजनीति पेश कर रही है. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार मूलरूप से इतिहास की हिंदूवादी अवधारणा है. इसके तहत प्राचीन भारत और मध्यकालीन भारत को खास नजरिए से देखा जाता है और गैरहिंदू शासकों को आततायी और आक्रान्ता के तौर पर पेश किया जाता है. इस साल के आरम्भ में रिलीज हुई संजय लीला भंसाली की ‘पद्मावत’ में हम इस सोच-समझ का स्पष्ट चित्रण देख चुके हैं.

21वीं सदी के दोनों महत्वपूर्ण और कामयाब फिल्मकारों की फिल्मों पर बारीक़ नज़र डालें तो वे ऐतिहासिक तथ्यों का काल्पनिक चित्रण करते हैं. वे ऐतिहासिक किरदारों के विवरण और निर्वाह में इतिहास की दक्षिणपंथी सोच और धारणा पर अधिक निर्भर करते हैं. आशुतोष गोवारीकर की फिल्मों में यह सोच और धारणा सूक्ष्म होती है और भाव के स्तर पर व्यक्त होती है, जबकि संजय लीला भंसाली अपने अप्रोच में स्थूल हैं और वे सौन्दर्य निरूपण में लीन दिखते हैं.

ऊपरी तौर पर भिन्न नज़र आने के बावजूद दोनों ऐतिहासिक फिल्मों के विषयों के चुनाव और उनके निर्माण में प्रगतिशील विचारों से परहेज करते हैं. उनके साक्ष्य और शोध मुख्य रूप से कथित ‘भारतीयता’ से प्रेरित और संचालित होते हैं. हमारे अकादमिक संस्थान लोकप्रिय संस्कृति सिनेमा के अध्ययन और विश्लेषण में खास रूचि नहीं रखते. ज़रुरत है कि देश में ‘भगवा सोच’ के उभार के समानांतर बन रही ऐतिहासिक फिल्मों के विषय, संधान और निष्कर्षों का सम्यक अध्ययन हो और यह समझने की कोशिश की जाये कि राष्ट्रवाद की वर्तमान चिंता को उकसाने में मनोरंजन के आवरण में लिपटी इन फिल्मों का क्या योगदान रहा है?

आशुतोष गोवारीकर की ‘लगान’ (2000), ‘जोधा अकबर’ (2008), ‘खेलें हम जी जान से’ (2010), ‘मोहेन्जो दाड़ो’ (2016) और निर्माणाधीन ‘पानीपत’ का विशेष अध्ययन होना चाहिए. इसी प्रकार संजय लीला भंसाली की ‘बाजीराव मस्तानी’ (2015) और ‘पद्मावत’ (2018) के चरित्रों पर ग़ौर करना चाहिए. आशुतोष गोवारीकर और संजय लीला भंसाली का झुकाव वास्तव में हिंदी फिल्मों की प्रचलित परंपरा और ऐतिहासिक सोच से प्रवाहित है. आज़ादी के पहले और बाद के दौर में राष्ट्रवाद और पुनर्जागरण के तहत ऐतिहासिक फिल्मों का निर्माण होता रहा है.

मराठा और राजपूत शासकों, योद्धाओं और राजाओं के शौर्य, वीरता और राष्ट्रप्रेम की कहानियां ही कही जाती रहीं, लेकिन वह राष्ट्रवाद ‘सांस्कृतिक’ नहीं था और उसमें गैरहिंदू शासकों से परहेज नहीं था. हुमायूं के त्याग, जहांगीर के न्याय और अकबर के प्रेम के साथ ‘मुगल-ए-आज़म’ जैसी भव्य और रागात्मक कहानियां भी देखने को मिलीं. भले ही वह कपोल कल्पना थी. अभी कल्पना नहीं की जा सकती ना ही किसी फ़िल्मकार में यह साहस होगा कि वह किसी मुसलमान नायक या शासक पर फिल्म बनाए. यकीन न हो तो घोषित और निर्माणाधीन फिल्मों की सूची देख लें.

इक्कीसवीं सदी के भारतीय सिनेमा में गोवारीकर और भंसाली के अतिरिक्त किसी और फ़िल्मकार ने व्यवस्थित तरीके से इतिहास में झांकने की कोशिश नहीं की. छिटपुट ऐतिहासिक फ़िल्में बनीं. कुछ फिल्मकारों ने स्वतंत्रता सेनानियों और शहीदों पर अवश्य फ़िल्में बनायीं. ऐसा कभी किसी एक निर्माता की चाहत और पसंद से हुआ. जैसे सहारा समूह के सुब्रतो राय चाहते थे कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पर फिल्म बननी चाहिए. आनन-फानन में श्याम बेनेगल ने एक फिल्म की तैयारी की और खास नज़रिए से उनकी ज़िन्दगी पेश कर दी.

कुछ-कुछ ऐसा ही बाबा साहेब अंबेडकर और वीर सावरकर की जीवनियों के साथ हुआ. इन फिल्मों के निर्माण तक ‘बायोपिक’ शब्द चलन में नहीं आया था. दरअसल बायोपिक ऐतिहासिक फिल्मों का समकालीन प्रस्फुटन है. ऐतिहासिक फिल्मों की तरह इनमें भी एक विशेष परिवेश में एक नायक की कथा कही जाती है. इन फिल्मों के ज्यादातर नायक कुछ दशक पहले आधुनिक भारत के सामाजिक जीवन में सक्रिय भूमिका निभा चुके होते हैं. सन 2002 में शहीद भगत सिंह की जन्म शताब्दी आई तो एक साथ पांच फिल्मकारों ने उनके जीवन और शाहदत पर फ़िल्में बनायीं, जिनमें से केवल ‘द लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह’ ही दर्शकों ने पसंद की.

21वीं सदी के बीते 18 सालों में फिल्मों के निर्माण में विविधता और भिन्न किस्म की सामाजिकता दिखती है. टीवी शो के अनुभव लेकर फिल्मों में आये युवा फिल्मकारों ने कथावस्तु और शिल्प का विस्तार किया. उन्होंने यथार्थ में घुली कहानियों को हिंदी सिनेमा के पारंपरिक ढांचे में रहते हुए चित्रित किया. भाषा, अभिनय और प्रस्तुति के लिहाज से उन्होंने ढांचे में रहने के बावजूद व्याकरण का पालन नहीं किया.

एपिक और ऐतिहासिक फिल्मों के निर्माण की पूंजी और कल्पना उनके पास नहीं थी. पिछले 18 साल देश की सामाजिक और राजनीतिक ज़िन्दगी में निराशा, मुद्रास्फीति, राजनीतिक उथल-पुथल और दक्षिणपंथी सोच के प्रभाव के साल रहे हैं. फ़िल्में उसी प्रभाव में कुछ नया रचने और दिखाने का प्रयास करती रहीं.

2001 में शाहरुख खान के निर्माण सहयोग से संतोष सिवन ने ‘अशोका द ग्रेट’ फिल्म के जरिये ऐतिहासिक फिल्मों के वितान को छोटा किया. उन्होंने न्यूनतम भव्यता के साथ देश के महान शासक के जीवन में आये परिवर्तन की व्याख्या की. शाहरुख खान और करीना कपूर की जोड़ी भी दर्शकों को लुभा नहीं सकी. अगर यह फिल्म सफल हो गयी होती तो कम लागत में ऐतिहासिक फिल्मों के निर्माण की तरफ निर्माता-निर्देशकों का ध्यान जाता. भारत के इतिहास के अनेक किरदार परदे पर लाये जा सकते हैं. उनके जीवन में ड्रामा और एक्शन है. उन्होंने अपनी ज़िन्दगी से सदियों को प्रभावित किया है. दिक्कत यह है की ऐतिहासिक फिल्मों का ज़िक्र होते ही उसकी भव्यता और विशालता के लिए अपेक्षित लागत के बारे में सोचते ही निर्माताओं के पसीने छूटने लगते हैं. केतन मेहता की ‘मंगल पाण्डेय: द राइजिंग’ (2005) की असफलता ने निर्माताओं को ऐतिहासिक फिल्मों से विमुख किया.

2015 और 2017 में आई ‘बाहुबली 1-2′ ने निर्माताओं की आंखें खोल दीं. मूल रूप से तेलुगू में बनी इस फिल्म ने देश के सभी इलाकों के दर्शकों का दिल जीता. विजयेन्द्र प्रसाद ने भारतीय इतिहास के एक कल्पित काल में इसे रोपा और कुछ ऐसे किरदार गढ़े, जिनमें भारतीय मानस में स्थित भाव थे. उन्होंने भारतीय सिनेमा में प्रचलित इमोशन को ही कॉस्टयूम ड्रामा बना दिया और बड़ा कर दिया. फिल्म चली और खूब चली. एक साल पहले आई भाजपा नेतृत्व की सरकार के राष्ट्र गौरव की धारणा को फिल्म ने दृश्यात्मक आधार दिया.

निश्चित ही बहुसंख्यक हिंदू समाज को वर्तमान समाज से उमीदें थीं. पिछले 20-22 सालों में निर्मित राष्ट्रीय सोच की हवा ने फिल्म के असर को लहका दिया. नतीजतन ‘बाहुबली 1-2′ पहली इवेंट फिल्म के तौर पर स्वीकृत हुई. हिंदी फिल्मों के निर्माताओं को नया भविष्य दिखा.

उसके बाद से अनेक ऐतिहासिक फिल्मों की घोषणा हो चुकी है. कुछ फ़िल्में रिलीज के लिए तैयार है और कुछ निर्माणाधीन हैं. इनमें सबसे पहले कंगना रनोत की ‘मणिकर्णिका’ आएगी. ’बाहुबली’ के लेखक विजयेन्द्र प्रसाद ने ही इसे लिखा है. घोषणा के समय इसके निर्देशक कृष थे. उन्होंने ही फिल्म निर्देशित की, लेकिन अंतिम चरण में कंगना रनोट ने अभिनय के साथ निर्देशन की भी कमान संभाल ली है. देखना होगा की इसका हश्र क्या होता है?

दशकों पहले सोहराब मोदी ने अपनी बीवी महताब को लेकर ‘झांसी की रानी’ का निर्माण और निर्देशन किया था. लगभग 75 लाख की लागत से 1953 में बनी यह फिल्म दर्शकों की पसंद नहीं बन पाई थी. सारागढ़ी के युद्ध पर दो फ़िल्में बन रही हैं. ‘केसरी’ में अक्षय कुमार हैं. इसके निर्देशक अनुराग सिंह हैं. दूसरी फिल्म राजकुमार संतोषी की है, जिसमें रणदीप हुड्डा मुख्य भूमिका में हैं. इस फिल्म के निर्माण में अनेक अवरोध आये हैं. अजय देवगन की ‘तानाजी’ पूरी हो चुकी है. मराठा इतिहास में तानाजी की वीरता के किस्से सुनाये जाते हैं. इनके जीवन पर पहले भी एक फिल्म बन चुकी है.

आशुतोष गोवारीकर ने ‘पानीपत’ की शूटिंग आरम्भ कर दी है. सभी जानते हैं कि पानीपत में तीन युद्ध हुए थे. आशुतोष गोवारीकर की ‘पानीपत’ तीसरे युद्ध की पृष्ठभूमि में है, जिसमें अफगानी और मराठा योद्धाओं के बीच भिड़ंत हुई थी. यशराज फिल्म्स के लिए डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ‘पृथ्वीराज’ का निर्देशन कर रहे हैं. यह फिल्म शूरवीर योद्धा पृथ्वीराज चौहान के जीवन को पेश करेगी.

इतिहास और मिथकीय कहानियों के दृश्यात्मक रूपांतर के लिए विख्यात डॉ. द्विवेदी की ‘पृथ्वीराज’ से टीवी शो ‘चाणक्य’ जैसी उमीदें हैं. चाणक्य नीति और राजनीति पर नीरज पाण्डेय इसी नाम से फिल्म बना रहे हैं, जिसमें अजय देवगन शीर्षक भूमिका निभाएंगे. और अंत में करण जौहर की ‘तख़्त’ की घोषणा ने स्थापित कर दिया है कि 2019 और 2020 हिंदी सिनेमा के इतिहास में ऐतिहासिक फिल्मों के नाम रहेगा, जिसे इन दिनों इवेंट फिल्म कहा जा रहा है.

प्रसंग

1928 में दादा साहेब फाल्के ने इंडियन सिनेमैटोग्राफ कमेटी को खास इंटरव्यू दिया था. इस इंटरव्यू में उन्होंने सिनेमा के निर्माण और प्रभाव के सभी मुद्दों पर महत्वपूर्ण बातें की थीं. अगली बार यह इंटरव्यू हम यहां प्रकाशित करेंगे. फ़िलहाल ‘पानीपत’ से जुड़े दादा साहेब फाल्के का जवाब जानिए…

-क्या पानीपत के युद्ध पर फिल्म बनाने में कोई खतरा?

दादा साहेब फाल्के: मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई नुकसान है.

-उस युद्ध में मराठों की हार हुई थी. शायद यह बात उन्हें अच्छी न लगे?

दादा साहेब फाल्के: हां,कभी मराठा जीतेंगे और कभी मुसलमान जीतेंगे. पानीपत के युद्ध के मामले में मराठों को यह बात पसंद नहीं आएगी.

-तो क्या ऐसी फ़िल्में बनाना खतरनाक है?

दादा साहेब फाल्के: मुझे नहीं लगता. व्यावहारिक तौर पर कोई खतरा नहीं है. मुमकिन है भावनात्मक विरोध हो.

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