#राजस्थान चुनाव: बेड़ा पार लगाने में लगी अमित शाह की ‘सुपर गुजराती टीम’

पूरे राज्य में फैली 100 सदस्यों वाली टीम का एक सदस्य जो भिवाड़ी में बैठकर आंकड़ों के सूक्ष्म प्रबंधन का तानाबाना बुन रहा है.

WrittenBy:वृंदा गोपीनाथ
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राजनीतिक वर्ग के लोग जब अमित शाह-नरेंद्र मोदी की चुनावी मशीन के बारे में बात करते हैं, खासकर 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद, तो उनकी बातों में एक आश्चर्य और परेशानी झलकती है. यह मुख्यधारा मीडिया की भी मदद करता है जो इस जोड़ी को जादुई जोड़ी मानता है, जो हर चुनाव की जीत को मास्टरस्ट्रोक, विजय, तख्तापलट और ऐसी ही अन्य अतिशयोक्तियों से सजा कर बताता है.

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यह चुनाव मशीन क्या है जिसे बीजेपी अध्यक्ष शाह ने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को प्रेरित और उत्साहित करने के लिए बनाया है और अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को परेशान किया है? शाह मुख्य रूप से अपनी “सुपर टीम” पर क्यों भरोसा करते हैं जो गुजरात से आती है, और राज्य के स्थानीय पार्टी संगठन को कुचलती है और उपेक्षा करती है? उनकी बहुदिशीय रणनीति कैसे काम करती है? क्या शाह के चुनावी मॉडल, जो गुजरात मॉडल की नकल है, और देश के बाकी हिस्सों में लागू किया जा रहा है, ने आज चुनाव लड़ने का तरीका बदल दिया है? क्या राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को भाजपा का सामना करने के लिए शाह मॉडल को अपनाना चाहिए?
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या शाह का आंकड़ों, डेटा और सूक्ष्म प्रबंधन वाला बड़ा चुनावी प्रबंधन मतदाता की निराशा, अस्वीकृति और एंटी-इंकम्बेंसी का सामना कर सकता है?
सबसे पहले, याद रखें कि 2014 के बाद, मुख्यधारा के मीडिया की पसंदीदा जादुई जोड़ी ने कुछ चुनाव हारे भी हैं- दिल्ली विधानसभा में एक बड़ी हार वो भी मई 2014 में मोदी के सत्ता में आने के आठ महीने बाद. इसके अगले ही वर्ष नवंबर में बिहार के विधानसभा चुनाव हुए जिसमें एक बार फिर से बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा. 2016 में, भाजपा केरल, पुदुच्चेरी, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु चुनावों में कोई भी छाप छोड़ने में नाकाम रही. 2017 में वह पंजाब विधानसभा का चुनाव हार गयी और गोवा में उसने छल-बल से सत्ता छीन ली. हालांकि, यह भी सच है कि 2014 में सात से बढ़कर पार्टी ने अपने बल पर या गठबंधन के दम पर 20 राज्यों में शासन स्थापित किया, और इसके अपने 17 मुख्यमंत्री हैं.
शाह की चुनावी मशीनरी कैसे काम करती है, यह देखने के लिए, हम राजस्थान के भिवाड़ी जिले में गए, जो कि दिल्ली से सटा हुआ राजस्थान की एक औद्योगिक नगर है. शहर आज यानि 7 दिसंबर को होने जा रहे चुनावी बुखार से ग्रसित है. धूल से भरी भिवाड़ी, जहां कारखानें धुआं उगलते हैं और खेत मौसमी फसल सरसों के पीले फूलों से भरे हुए हैं. तिजारा विधानसभा क्षेत्र इनमें से एक है जिसे बीजेपी ने 2013 के चुनाव में भी जीता था. भिवाड़ी के पांच तिजारा के पांच मंडलों में से एक है. यहां के विधायक बीजेपी नेता ममन सिंह यादव हैं, और तिजारा अपने प्रभावी यादव समुदाय और मेव मुसलमानों के लिए जाना जाता है, और स्वतंत्रता के बाद से कम से कम पांच यादव यहां से विभिन्न चुनावों में चुने गए हैं.

हालांकि, अलवर संसदीय क्षेत्र में पड़ने वाले तिजारा ने इसी साल की शुरुआत में जनवरी के उपचुनाव में शाह की बीजेपी को झटका दिया था जब उसके उम्मीदवार जसवंत सिंह यादव कांग्रेस के करण सिंह यादव से 1.96 लाख वोटों से हार गए थे. स्वर्गीय महंत चांद नाथ योगी, जिनकी मौत की वजह से उपचुनाव जरूरी हो गए थे, ने 2.64 लाख वोटों के साथ 2014 में यहां का चुनाव जीता था. बीजेपी ने मौजूदा विधायक ममन सिंह यादव को इस बार टिकट नहीं दिया. उनकी जगह भिवाड़ी के स्थानीय, संदीप दायमा जो कि युवा हैं, पूर्व कबड्डी चैंपियन हैं और भिवाड़ी नगर परिषद के वर्तमान अध्यक्ष भी हैं, को टिकट दिया है. उन्हें कांग्रेस के एमादुद्दीन खान का सामना करना है. तीन अन्य मुस्लिम उम्मीदवार हैं, एक समाजवादी पार्टी से है.
दयामा उन भाग्यशाली उम्मीदवारों में से एक है जिनके लिए बीजेपी अध्यक्ष की “सुपर टीम” काम करेगी, जिसने गुजरात के सूरत में क्लीन स्वीप किया था. यह शाह के सबसे भरोसेमंद लोगों का एक समूह है. इसमें सूरत के लिंबयायत विधानसभा क्षेत्र के बीजेपी के प्रभारी दिनेश राजपुरोहित हैं, और पार्टी के उनके दो सहयोगी और दोस्त हैं, जो भिवाड़ी में चार सितारा गोल्डन ट्यूलिप होटल की लॉबी से बिना चूक, अनवरत काम करते हैं. पुरोहित स्वयं सूरत में होटल का पारिवारिक व्यवसाय चला रहा है, उनके अन्य सहयोगी भी व्यवसायी हैं.

पुरोहित कहते हैं कि वह भिवाड़ी में अपने दोस्त दायमा के लिए व्यक्तिगत तौर पर काम कर रहे हैं. लेकिन उनकी गतिविधियों से इस बात में कोई संदेह नहीं बचता कि वे इस चुनाव अभियान के मुख्य प्रभारी हैं, जो मतदान के अंतिम दिन तक यहां रहेंगे. “गुजरात से लगभग 100 टीमें आई हैं जो राजस्थान के चुनाव की माइक्रोमैनेजिंग (सूक्ष्म प्रबंधन) कर रही हैं. बूथ समितियों, मंडल नेताओं और शक्ति केंद्रों (जो बूथों के एक समूह की देखरेख करते हैं) का बहु-स्तरीय संगठन पार्टी ने महीनों पहले से वहां पर लगा रखा है. एक केंद्र पालक (प्रभारी) हैं जो पन्ना प्रमुखों या “पेज लीडरों” के साथ मिलकर काम करते हैं.

पुरोहित “पन्ना प्रमुखों” से संतुष्ट हैं. हर एक पन्ना प्रमुख को मतदाता सूची (प्रत्येक पृष्ठ पर लगभग 60 नाम) के एक-एक पन्ने सौंपे गए हैं. ये पन्ना प्रमुख नियमित रूप से परिवारों से मिलने का अपना काम कर रहे हैं.
उन्होंने बताया, “पन्ना प्रमुखों ने अपनी रिपोर्टें भेजी हैं जिसमें बताया है कि कितने लोग बीजेपी के खिलाफ, कितने बीजेपी के साथ हैं और कितने तटस्थ हैं. हमने उन्हें तटस्थ लोगों को पार्टी के लिए वोट देने के लिए समझाने का काम सौंपा है.” पुरोहित कहते हैं कि यह कोई कठिन काम नहीं है क्योंकि मतदाताओं की सूची में ज्यादातर पड़ोसियों का नाम है या उन निवासियों का नाम है जो एक ही मोहल्ले में रहते हैं, इसलिए उन तक पहुंचना मुश्किल नहीं है. वे आपस में परिचित हैं और जाने पहचाने चेहरे हैं. पुरोहित के अनुसार तिजारा में 2.23 लाख मतदाता हैं, और प्रति पृष्ठ औसतन 60 मतदाता हैं, कम से कम 4000 पन्ना प्रमुख हैं, जिन्हें स्वयंसेवकों और पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच से चुना गया है.

अभय सिंह बूथ संख्या 28 के पन्ना प्रमुख हैं, और उन्हें पूरा भरोसा है कि उनके 60 प्रतिशत मतदाता भाजपा के लिए वोट देंगे. “केवल 20 प्रतिशत कांग्रेस के साथ हैं, और 20 प्रतिशत तटस्थ है.” हालांकि, स्थानीय बीजेपी काउंसलर और समर्पित पार्टी कार्यकर्ता सुबे सिंह बिधूड़ी, सावधानी के साथ अलवर संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव की याद दिलाते हुए कहते हैं कि न केवल बीजेपी हार गई बल्कि 15,000 की बड़ी संख्या में नोटा पर भी वोट पड़े थे.

पुरोहित और उनकी टीम भिवाड़ी के नए भाजपा कार्यालय में जाते हुए बेपिक्र दिखे. वहां स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं की भीड़ है. वे ग्राउंड में और विभिन्न कमरों के सोफे पर बैठे हुए हैं. उनके सात लोग “कॉल सेंटर” से विभिन्न नेताओं के साथ मोबाइल पर तीखी आवाज़ में बात कर रहे हैं. कॉल सेंटर सिर्फ एक दिन पुराना है और मतदान की आखिरी शाम तक काम करेगा. “प्रमुखों और मंडल प्रमुखों को कॉल सेंटर में एक निश्चित संख्या दी गई है और मंडल प्रमुखों का काम सूचना के प्रवाह को आसानी से चलाना है- मतदाताओं को जुटाना और उनकी संख्या पर प्रतिक्रिया प्राप्त करना. खासतौर पर मतदान वाले दिन. जो हमें और स्थानीय नेतृत्व को तत्काल प्रभाव से सौंपा गया है.”

क्या स्थानीय नेतृत्व को ऐसा नहीं लगता की वो बाहरी लोगों द्वारा घिरा हुआ है और उनसे अभिभूत है? एक पार्टी कार्यकर्ता समझदारी से कहता है कि कॉल सेंटर नियुक्त प्रधानों पर नज़र रखने के लिए है कि वे कहां हैं और क्या कर रहे हैं, उनपर लगातार निगरानी रखी जा रही है कि वे अपने कर्तव्यों से किसी भी प्रकार भाग न पाएं. कार्यकर्ता का कहना है कि वह अक्सर “बाहरी लोगों” के बारे में उपहास और मजाक सुनता है, मसलन उन्हें स्थानीय मुद्दों के बारे में कोई जानकारी नहीं है आदि.

पुरोहित कहते हैं कि शाह की गुजरात टीमों का स्थानीय नेतृत्व ने स्वागत किया है क्योंकि वे केवल सहायता करने के लिए हैं ना कि घुसपैठ करने के लिए. उन्होंने कहा, “हम अपने आंकड़ों का उपयोग करके उन्हें यह बताते हैं कि मतदाताओं तक वैज्ञानिक रूप से और भरोसेमंद तरीके से कैसे पहुंचे.” उन्होंने आगे बताया, “हम उन्हें दिखाते हैं कि डेटा कैसे समय बचाने और सटीकता प्राप्त करने का काम करता है, इसके बाद यह सब उम्मीदवार, नेतृत्व, विवादास्पद मुद्दों पर, लोगों की मांग, और अन्य सामान्य चुनावी समय की चिंताओं और विषयों पर निर्भर करता है.”

तो क्या भिवाड़ी में पुरोहित के डेटा माइनिंग और माइक्रो-मैनेजमेंट में कोई अंतर है? एक तरफ, लैपटॉप नए सदस्यों, स्वयंसेवकों, या तिजारा के उत्साहित लोगों के 1.5 लाख मोबाइल नंबर के आंकड़े दिखा रहा है; और जयपुर से लेकर दिल्ली तक के कॉल सेंटर रोज संदेशों की बमबारी करके, फोन करके बीजेपी को वोट देने के लिए कह रहे हैं. फिर वहां एक्सेल शीट्स पर विधिवत स्थानांतरित मतदाता सूचियां हैं, जिन्हें पन्ना प्रमुखों के लिए हजारों की संख्या में फोटो कॉपी किया गया है. जिसमें नाम, परिवार का नाम, पता, वार्ड नंबर और विशेष रूप से जातियां सूचीबद्ध हैं. 38,000 आधार कार्ड धारकों की सूची के अलावा, केंद्रीय और राज्य सरकार की योजनाओं से प्राप्त लाभ की सूची भी है.

दरअसल, शाह की टीम की नयी रणनीति में ये जोर दिया गया है कि वो राजस्थान के गरीबों के लिए भामाशाह स्वास्थ्य बीमा योजना, या केंद्रीय पेंशन योजना, या निर्वाचन क्षेत्र में आधार कार्ड धारकों जिन्हें सीधे अपने बैंक खाते में पैसा मिलता है, से संपर्क करें ताकि बीजेपी यह उम्मीद कर सके कि इसका फायदा उठाया जाय और अपने पक्ष में वोट करवाया जाय. पुरोहित गर्व से कहते हैं, “तिजारा में 15,000 परिवार हैं, जो प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना, जिसमें सब्सिडी वाला गैस सिलिंडर मिलता है, से लाभान्वित हुए हैं, मुझे यकीन है कि जिन महिलाओं को कल्याण योजना से लाभ मिला है जब उनसे पन्ना प्रमुख मिलेंगे तो उन्हें बीजेपी के लिए वोट देने के लिए ज्यादा समझाना नहीं पड़ेगा.”

दूसरी तरफ, जब राज्य में लोगों की भावनाओं की बात आती है तो व्यग्रता और गुस्सा दिखता है. स्थानीय पार्टी कार्यकर्तों में स्पष्ट गुस्सा है, ऐसा बताते हुए एक नेता ने कहा, “महारानी, मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पार्टी संरचना के प्रमुखों पर भरोसा करती है और पूरी तरह से नौकरशाहों और प्रशासन के साथ काम करती है. संगठनात्मक ढांचे, जो कि जमीन पर कार्यबल है, का निर्वाचन क्षेत्र में महत्व कम कर दिया गया और उन्हें ठेका देने में, काम देने में और नीतिगत निर्णय लेने में अनदेखा किया गया है.”

वो गुस्से में आगे बताते हैं, “हम एक उपहास के पात्र बन गए हैं क्योंकि न तो हम योजनाओं और अनुबंधों के वितरण में शामिल हैं और न ही हम अपने लोगों को कोई फायदा पहुंचाने में सक्षम हैं. हमारा अधिकार कम हो गया है, यहां तक कि स्थानीय एसएचओ किसी भी विवाद में हमारे अनुरोधों को अनदेखा करता है. जयपुर में सभी फैसले किए जाते हैं.”

एक अन्य कार्यकर्ता बताता है कि पहली बार चुनाव लड़े लोगों के खिलाफ भी एंटी-इंकम्बेंसी है- 2013 में जब राजे ने 200 में 163 सीटें जीती थी तो कम से कम 90 लोग पहली बार विधायक बने थे- जो वास्तव में अपनी जमीन नहीं समझ पाए वो भी इस बार भाजपा के खिलाफ जायेगा. एक नेता कहते हैं कि इसके अलावा, उम्मीदवारों का चयन और योजनाओं के वितरण का निर्णय ज्यादातर राज्य की राजधानी में हुआ था, हालांकि, कई प्रमुखों ने लाभार्थियों की स्वयं की मदद की है. लेकिन इसे उनकी वफादारी और समर्पण के लिए एक पुरस्कार के रूप में देखा जाता है. दया भाव से एक अन्य नेता ने बताया कि राज्य की कांग्रेस में नेतृत्व भ्रम, नौसिखिया सचिन पायलट और पुराने चावल अशोक गहलोत के बीच सत्ता का संघर्ष, जातिगत प्रतिद्वंदिता के अलावा कई निर्वाचन क्षेत्रों में दागी उम्मीदवारों का चयन एंटी-इंकम्बेंसी के बावजूद कांग्रेस के लिए चुनावी जीत को मुश्किल कर सकता है.

तो, इस बार राजस्थान में शाह की चुनावी मशीन के बारे में पुरोहित कितना आश्वस्त है? सूरत में भाजपा के नेता ने कर्नाटक और बिहार राज्य चुनावों में भी शाह की टीम के हिस्से के रूप में काम किया था, लेकिन बीजेपी दोनों राज्यों में हार गई थी. पुरोहित बेरुखी से बताते हैं कि हालांकि पार्टी ने चुनाव नहीं जीते थे, लेकिन 64 सीटें हासिल करने के बाद यह आखिरी टैली दोगुनी हो गई थी, और असेंबली में बहुमत से सिर्फ नौ सीटें दूर थी. बिहार में, उन्होंने बताया कि जेडी (यू) और आरजेडी गठबंधन बुलेटप्रूफ था, लेकिन जेडी (यू) अब भाजपा के सहयोगी के रूप में वापस आ गया है.

ऐसा लगता है कि यह चुनाव एक असाधारण, करोड़ों खर्च वाला, महंगे डेटा संचालित माइक्रो-मैनेजमेंट चुनाव मशीन और मतदाताओं की उत्तेजित और गहन भावनाओं के बीच है. यह मतदाताओं के उत्साह और असंतोष के अनुपात में उठता और गिरता है. क्या एक उत्तेजित मतदाता एक तकनीकि सक्षम डेटा मशीन से लड़ सकता है? 11 दिसंबर को राजस्थान राज्य चुनाव और अन्य तीन राज्यों के नतीजे बताएंगे कि भविष्य में क्या माहौल होने वाला है.

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