जब मेनस्ट्रीम मीडिया को देखने-सुनने या पढ़ने वाला कोई नहीं होगा

जनता से जुड़े मुद्दे अगर सत्ता के लिये दरकिनार होते गए तो मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी उपयोगिता को खो देगा और उसे देखने-सुनने-पढ़ने वाला कोई नहीं होगा.

Article image
  • Share this article on whatsapp

क्या पत्रकारिता की धार भोथरी हो चली है? क्या मीडिया-सत्ता गठजोड़ ने पत्रकारिता को कुंद कर दिया है? क्या टेक्नोलॉजी की धार ने मेनस्ट्रीम मीडिया में पत्रकारों की जरुरत को सीमित कर दिया है? क्या राजनीतिक सत्ता ने पूर्ण शक्ति पाने या वर्चस्व के लिये मीडिया को ही खत्म करना शुरू कर दिया है? जाहिर है ये ऐसे सवाल हैं जो बीते चार बरस में धीरे-धीरे ही सही उभरे हैं. खासकर न्यूज़ चैनलों के स्क्रीन पर रेंगते मुद्दों का कोई सरोकार ना होना. मुद्दों पर बहस न होकर असल मुद्दों से भटकाव हो. और चुनाव के वक्त में भी रिपोर्टिंग या कोई राजनीतिक कार्यक्रम इवेंट से आगे निकल नहीं पाए. या कहें कि सत्ता के अनुकूल लगने की जद्दोजहद में जिस तरह मीडिया खोया जा रहा है उसमें मीडिया के भविष्य को लेकर कई आशकाएं उभर रही है.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

आशकाएं इसलिए क्योंकि मेनस्ट्रीम मीडिया के सामानांतर डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया अब खुद ही ख़बरों को लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया को चुनौती देने लगा है. और ये चुनौती दोतरफा है. एक तरफ मीडिया-सत्ता गठजोड़ ने काबिल पत्रकारों को मेनस्ट्रीम से अलग कर दिया तो उन्होंने अपनी उपयोगिता डिजिटल या सोशल मीडिया में बनायी.

दूसरी तरफ मेनस्ट्रीम मीडिया में जिन खबरों को देखने की इच्छा दर्शकों में थी अगर वही गायब होने लगी तो बड़ी तादाद में गैर पत्रकार भी सोशल मीडिया या डिजिटल माध्यम से अलग-अलग मुद्दों को उठाते हुये पत्रकार लगने लगे. मसलन ध्रुव राठी कोई पत्रकार नहीं हैं. आईआईटी से निकले 26 बरस के युवा हैं. लेकिन उनकी क्षमता है कि किसी भी मुद्दे या घटना को लेकर आलोचनात्मक तरीके से तकनीकी जानकारी के जरिए डिजिटल मीडिया पर हफ्ते में दो 10-10 मिनट के वीडियो कैपसूल बना दें. उन्हें देखने वालों की तादाद इतनी ज्यादा हो गई कि मेनस्ट्रीम अंग्रेजी मीडिया का न्यूज चैनल रिपब्लिक या टाइम्स नाउ या इंडिया टुडे भी उससे पिछड़ गया.

यहां सवाल देखने वालों की तादाद का नहीं बल्कि मेनस्ट्रीम मीडिया की कुंद पड़ती धार का है, उसकी प्रासंगिकता का है. सवाल मीडिया का अपने विस्तार को सत्ता के कब्जे में करने के लिए मीडिया संस्थानों के नतमस्तक होने का भी है. और ये सवाल सिर्फ कन्टेट को लेकर ही नहीं है बल्कि डिस्ट्रीब्यूशन से भी जुड़ जाता है.

ध्यान दें तो मोदी सत्ता के विस्तार या उसकी ताकत के पीछे उसके मित्र कारपोरेट की पूंजी की बड़ी भूमिका रही है. मीडिया संस्थानों की फेहरिस्त में ये बात आम है कि मुकेश अंबानी ने मुख्यधारा के 70 फीसदी मीडिया हाउस पर लगभग कब्जा कर लिया है. हिन्दी में सिर्फ आज तक और एबीपी न्यूज चैनल को छोड़ दें तो कमोबेश हर चैनल में दाएं-बाएं या सीधे पूंजी अंबानी की ही लगी हुई है. यानी शेयर उसी के है.

यह भी महत्वपूर्ण है कि अंबानी का मीडिया प्रेम यूं ही नहीं जागा है. अगर मोदी सत्ता नहीं चाहती तो यह प्रेम जागता भी नहीं ये भी सच है. धीरुभाई अंबानी के दौर में मीडिया में ऑब्जर्वर ग्रुप के जरिए सीधी पहल जरुर हुई थी, लेकिन तब कोई सफलता नही मिली थी. एक और बात थी कि तब सत्ता की जरुरत भी अंबानी के मीडिया की जरुरत से कोई लाभ लेने की नहीं थी. मीडिया कोई लाभ का धंधा तो है नहीं. लेकिन सत्ता जब अपने फायदे के लिए मीडिया की नकेल कस ले तो इससे होने वाला लाभ किसी भी धंधे से ज्यादा होता है.

एक सच यह भी है कि सिर्फ विज्ञापनों से न्यूज़ चैनलों का पेट कितना भरता होगा? लगभग दो हजार करोड़ के विज्ञापन बजट से इसे समझा जा सकता है जो टीआरपी के आधार पर विभिन्न चैनलो में बंटता-खपता है. लेकिन राजनीतिक विज्ञापनों का आंकडा जब बीते चार बरस में बढ़ते-बढ़ते 22 से 30 हजार करोड़ तक जा पहुंचा है.

यानि मीडिया अगर सिर्फ धंधा है तो कोई भी मुनाफा कमाने में ही जुटा हुआ नजर आएगा. जो सत्ता से लड़ेगा उसकी साख जरुर मजबूत होगी लेकिन आय सिर्फ चैनल चलाने तक ही सीमित रह जाएगा. कैसे सत्ता कारपोरेट का खेल मीडिया को हड़पता है इसकी मिसाल एनडीटीवी पर कब्जे की कहानी है. यह मोदी सत्ता के दौर में राजनीतिक तौर पर उभरी. मोदी सत्ता ही उन तमाम संभावित कारपोरेट प्लेयर को तलाशती रही जो एनडीटीवी पर कब्जा करे. उसने एक तरफ सत्ता की मीडिया को अपने कब्जे में लेने की मानसिकता को उजागर किया तो उसका दूसरा सच यह भी है कि मीडिया चलाते हुये चाहे जितना घाटा हो जाये लेकिन मीडिया पर कब्जा कर अगर उसे मोदीसत्ता के अनुकूल बना दिया जाय.

मोदी सत्ता ही वह केंद्र है जो छद्म तरीकों से मीडिया पर कब्जा जमाए कारपोरेट को ज्यादा लाभ दिला सकती है. यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि सबसे पहले सहारनपुर के गुप्ता बंधुओं, जिनका वर्चस्व दक्षिण अफ्रीका में राबर्ट मोगाबे के राष्ट्रपति काल में रहा उनको एनडीटीवी पर कब्जे का प्रस्तव सबसे पहले मोदी सत्ता की तरफ से दिया गया. लेकिन एनडीटीवी की बुक घाटे वाली लगी तो गुप्ता बंधुओं ने कब्जे से इंकार कर दिया. चुंकि गुप्ता बंधुओं का कोई बिजनेस भारत में नहीं है तो उन्हें घाटे का मीडिया सौदा करने के बावजूद भी राजनीतिक सत्ता से मिलने वाले लाभ की ज्यादा जानकारी नहीं थी.

लेकिन भारत में काम कर रहे कारपोरेट के लिये यह सौदा आसान था. तो अंबानी ग्रुप इसमें शामिल हो गया. और माना जाता है कि आज नहीं तो कल एनडीटीवी के शेयर भी ट्रांसफर हो ही जाएंगे. और इसी कड़ी में अगर ज़ी ग्रुप को बेचने और खरीदने की खबरों पर ध्यान दें तो ये बात भी खुल कर सामने आई कि आने वाले वक्त में यह समूह भी अंबानी के हाथों में जा सकता है. मीडिया पर कारपोरेट के कब्जे के सामानांतर ये सवाल भी उभरा कि कहीं मीडिया कारपोरेशन बनाने की स्थिति तो नहीं बन रही है. यानी कारपोरेट का कब्जा हर मीडिया हाउस पर हो और वह कारपोरेट सीधे सत्ता से संचालित होने लगे. यानी कई मीडिया हाउस को मिलाकर बना सत्तानुकूल कारपोरेशन खड़ा हो जाय और सत्ता इसके एवज में कारपोरेट को तमाम दूसरे धंधों में लाभ देने लगे.

ऐसी स्थिति में किसी तरह का कंपटीशन भी चैनलों में नहीं रहेगा. और खर्चे भी सीमित होंगे. जो सामन्य स्थिति में खबरों को जमा करने और डिस्ट्रीब्यूशन के खर्चे से बढ़ जाता है. वह भी सीमित हो जाएगा. क्योंकि कारपोरेट अगर मीडिया हाउस पर कब्जा कर रहा है तो फिर जनता तक जिस माध्यम से खबरें पहुंचती हैं वह केबल सिस्टम या डीटीएच भी कारपोरेट कब्जे की दिशा में बढ़ेगा. यह स्थिति अभी भी है. अगर ध्यान दें तो यही हो रहा है. न्यूज़ चैनलों में क्या दिखाया जाय और किन माध्यमों से जनता तक पहुंचाया जाय जब इस पूरे बिजनेस को ही सत्ता के लिए चलाने की स्थिति बन जायेगी तो फिर मुनाफा के तौर तरीके भी बदल जाएंगे.

ऐसे में यह सवाल भी होगा कि सत्ता लोकतांत्रिक देश को चलाने के लिये सीमित प्लेयर बना रही है. और सीमित प्लेयर उसकी हथेली पर रहे तो उसे कोई परेशानी भी नहीं होगी. यानी एक ही क्षेत्र में अलग-अलग कई प्लेयरों से सौदेबाजी नहीं करनी होगी. भारत का मीडिया उस दिशा में चला जाए, इसके भरपूर प्रयास हो रहे हैं लेकिन क्या यह संभव है, या फिर जिस तर्ज पर रूस में हुआ करता था या अभी कुछ हद तक चीन में जो सत्ता व्यवस्था है उसमें तो यह संभव है लेकिन भारत में कैसे संभव है ये सवाल मुश्किल है.

राजनीतिक सत्ता हमेशा से एकाधिकार की स्थिति में आना चाहती है. और मोदी सत्ता इसके चरम पर है. लेकिन ऐसे हालात होंगे तो खतरा यह भी होगा कि मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी उपयोगिता या आवश्यकता को ही खो देगा. क्योंकि जनता से जुड़े मुद्दे अगर सत्ता के लिये दरकिनार होते हैं तो फिर हालात ऐसे बन सकते हैं कि मेनस्ट्रीम मीडिया तो होगा लेकिन उसे देखने-सुनने-पढ़ने वाला कोई नहीं होगा.

उस स्थिति में सवाल सिर्फ सत्ता का नहीं बल्कि कारपोरेट के मुनाफे का भी होगा. क्योंकि आज के हालात में ही जब मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी उपयोगिता सत्ता के दबाब में धीरे-धीरे खो रहा है तो फिर ये बिजनेस माडल भी धड़धड़ा कर गिरेगा. क्योंकि सत्ता भी तभी तक मीडिया हाउस पर कब्जा जमाए कारपोरेट को लाभ दे सकता है जब तक वह जनता में प्रभाव डालने की स्थिति में हो. इस कड़ी का दूसरा सच ये भी है कि जब मेनस्ट्रीम मीडिया सत्ता को अपने सवालों या रिपोर्ट से पालिश करने की स्थिति में नहीं होगी तो फिर सत्ता की चमक भी धीरे-धीरे कम होगी. उसकी समझ भी खुद की असफलता की कहानियों को सफल बताने वालों के इर्द-गिर्द ही घूमेगी. उस परिस्थिति में मेनस्ट्रीम मीडिया की परिभाषा बदल जाएगी, उसके तौर तरीके भी बदल जाएंगे.

उस स्थिति में सत्ता के लिये गीत गाने वाले मीडिया कारपोरेशन में ऐसे कोई भी पत्रकारीय बोल मायने नहीं रखेगें जो जनता के शब्दों को जुबां दे सकें. तब सत्ता भी ढहेगी और मीडिया पर कब्जा जमाए कारपोरेट भी ढहेंगे. उस समय घाटा सिर्फ पूंजी का नहीं होगा बल्कि साख का होगा. अंबानी समूह चाहे अभी सचेत ना हो लेकिन जिस दिशा में देश को सियासत ले जा रही है और पहली बार ग्रामीण भारत के मुद्दे चुनावी जीत हार की दिशा तय कर रहे हैं… उससे यही संकेत उभर रहे हैं कि सत्ता के बदलने पर देश का इकोनॉमिक माडल भी बदलना होगा. यानी सिर्फ सत्ता का बदलना भर अब लोकतंत्र का खेल नहीं होगा बल्कि बदली हुई सत्ता को कामकाज के तरीके भी बदलने होंगे. जो कारपोरेट आज मीडिया हाउस के जरिए मोदी सत्ता के अनुकूल ये सोच कर बने हैं कि कल सत्ता बदलने पर वह दूसरी सत्ता के साथ भी सौदेबाजी कर सकते हैं, उनके लिए यह खतरे की घंटी है.

(पुण्य प्रसून के फेसबुक पेज से साभार)

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like