रूढ़िवादियों के दबाव में पूरी घटना को ट्विटर ने बहुत हल्के और गलत तरीके से हैंडल किया. यह कहीं न कहीं चालाकी बरतने की घटिया मिसाल लगता है.
पिछले सप्ताह, ट्विटर के सीईओ जैक डोर्से भारत के दौरे पर थे. इस दौरान उन्होंने, भारत में अपनी सहयोगी और ट्विटर की लीगल-पब्लिक पॉलिसी, ट्रस्ट और सेफ़्टी हेड विजया गड़े के साथ दिल्ली में कुछ महिला कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के साथ एक अनौपचारिक मुलाक़ात की. जिन महिलाओं के साथ मुलाक़ात रखी गई उनमें पत्रकार बरखा दत्त, एना वेट्टिकाड के अलावा एक्टिविस्ट नीलांजना रॉय, ऋतुपर्णा चटर्जी और संघपली अरुणा शामिल थीं. इस मुलाक़ात का मक़सद इन महिलाओं के उस अनुभव से दो-चार होना था, जो उन्हें ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करने और वहां अपनी बात कहने, दूसरों का विरोध करने के दौरान होता है. इसमें ज़ाहिर है, ट्विटर पर होने वाली ट्रोलिंग, बैशिंग और हैरेसमेंट शामिल था.
चूंकि, ऑनलाइन डिजिटल प्लेटफॉर्म पर होने वाली गाली-गलौज और फिकरेबाजी को अभी सेक्सुअल हैरेसमेंट की श्रेणी में स्वीकार्यता नहीं मिल पायी है, और इसकी वजह इसका वर्चुअल होना माना जाता है, ऐसे में इस बैठक में शामिल महिलाओं ने अपने साथ हुए अपमानजनक व्यवहार, उनके साथ वर्चुअल सेक्सुअल वॉयलेंस और कई दफ़ा उन पर हुई जातिगत टिप्पणियां, गाली-गलौज, रेप जैसी धमकी के अनुभव को जैक डोर्से और विजया गड़े के साथ साझा किया.
इसी बैठक के दौरान एक दलित कार्यकर्ता ने डोर्से को बताया कि कैसे उन्हें दिन-रात जाति आधारित अपमान का सामना करना पड़ता है. इसके कारण ऐसा भी हुआ है कि बहुत सारे लोग इस प्लेटफॉर्म को छोड़ कर चले गए. उस दलित महिला कार्यकर्ता ने आगे बताया कि– “इसकी एक बड़ी वजह ट्विटर के रिपोर्टिंग लिस्ट में जाति आधारित गालियां (यानी caste based slur) या हिंसा की शिकायत करने का कोई प्रावधान नहीं है. जैक डोर्से और उनकी टीम ने इस समस्या को स्वीकार किया और इसे नोट भी किया.
कार्यक्रम के अंत में एक ग्रुप फोटो खिंचवाया गया, जहां उस दलित महिला एक्टिविस्ट ने एक पोस्टर तोह़फे में दिया जिसमें बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था ‘स्मैश ब्राह्मिनिकल पैट्रियार्की’, यानि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का नाश करें.’ ये पोस्टर डोर्से को बतौर तोहफा दिया गया था, जिसे हाथ में लेकर फोटो खिंचवाना उनकी अपनी मर्ज़ी थी और किसी को भी इस तस्वीर को सोशल मीडिया पर शेयर करने से रोका नहीं गया, असल में सभी प्रतिभागियों को वो तस्वीर ट्विटर के ही एक स्टाफ़ ने मेल किया और शेयर करने के लिए प्रोत्साहित भी, क्योंकि मीटिंग ज़रूर अनौपचारिक थी लेकिन तस्वीर प्राइवेट बिल्कुल नहीं थी.
लेकिन, जैसे ही ये तस्वीर ट्विटर पर आई उसके तुरंत कुछ समूहों ने ट्विटर के ऊपर संगठित तरीके से हमला बोला. उन्होंने इस सोशल मीडिया साइट पर ब्राह्मण समुदाय के प्रति पूर्वाग्रही होने, उन्हें बदनाम करने और उनके तरफ़ पक्षपाती रवैया अपनाने का आरोप लगाया गया. और जैसा कि होता है, चारों तरफ़ निशाने पर आए ट्विटर और उसके सीईओ ने बिना देर किए तुरंत भारत और पूरी दुनिया में बैठे अपने भारतीय ब्राह्मण यूज़र्स को सामने एक के बाद एक, कई सफाईयां दे दीं.
ट्विटर के मुताबिक ‘यह एक प्राइवेट फोटो था, पोस्टर गिफ़्ट किया गया था, पोस्टर पर लिखे विचार, जैक या ट्विटर के नहीं हैं, हम हर वर्ग के यूज़र्स की राय जानना चाहते थे, हमसे ग़लती हुई, हमें सावधान रहना चाहिए था, हम भारत में रहने वाले अपने सभी यूज़र्स से माफ़ी मांगते हुए उन्हें बेहतर सर्विस का भरोसा देते हैं.’
लेकिन, इस सब के बावजूद ये विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है और अब इसमें समाज के अन्य वर्ग भी कूद पड़े हैं. ऐसे में जानना ज़रूरी है कि, उस पोस्टर में लिखे दो शब्द ‘ब्राह्मिनिकल पेट्रियार्की यानी ब्राह्मणवादी पितृसत्ता में ऐसे कौन से बारूद का इस्तेमाल हुआ है, जिसमें एक पोस्टर के जरिए विस्फोट हो गया. क्या ये किसी एक जाति विशेष के प्रति लोगों के मन में दबा गुस्सा या नफ़रत है, या किसी सामाजिक-धार्मिक मानसिकता का सूचक. क्या उस पोस्टर पर जो लिखा था, वो मौजूदा राजनीतिक–सामाजिक परिदृश्य में किसी साज़िश की कोशिश है?
यहां ये बताना भी ज़रूरी है कि जिस पोस्टर को लेकर ये बवाल हुआ है उसे दो साल पहले आर्टिस्ट तेनमौली सुंदरराजन ने बनाया था, और वो कहती हैं, “सोशल मीडिया पर ये पोस्टर दो साल से मौजूद है, लेकिन विवाद तब हुआ जब जैक डोर्से ने इसे अपने हाथों में लेकर फोटो खिंचवाई, क्योंकि लोगों को डर है कि भारतीय समाज की ये असलियत दुनिया के सामने उजागर न हो जाए.”
तो, वो सच जिसके सामने आने से देश का एक बड़ा वर्ग तिलमिला गया है या जिसके उजागर हो जाने की बात तेनमौली कर रही हैं, वो है क्या?
आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विषयों की प्रतिष्ठित शोध जर्नल इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में साल 1993 में छपे एक रिसर्च आर्टिकल, ‘कंसेप्चुअलाइजिंग ब्राह्मिनिकल पैट्रियार्की इन अर्ली इंडिया- जेंडर, कास्ट, क्लास एंड स्टेट’ में महिला विषयों की जानकार और लेखिका उमा चक्रवर्ती लिखती हैं, “भारत में जब महिलाओं की परतंत्रता या आधिपत्य की बात आती है तो उसे लागू करने के लिए धर्म नाम के हथियार का इस्तेमाल होता है, जिसे आगे चलकर सामाजिक स्वीकार्यता मिल जाती है.
ठीक उसी तरह से भारतीय समाज में ऊंची, पिछड़ी और नीची जाति के लोगों को सोशल स्ट्रैटिफिकेशन यानि सामाजिक अलगाव या विभाजन के ज़रिए ताक़तवर और कमज़ोर की श्रेणी में बांट दिया जाता है. तो मुख़्य तौर पर भारतीय समाज के नियम क़ायदे, जिसे मुख़्य तौर पर ब्राह्मण विचारकों ने अमली-जामा पहनाया है, वो दो लाठियों के सहारे अपना वर्चस्व कायम रखता है. पहला जाति आधारित वर्गीकरण और दूसरा जेंडर यानि लैंगिक वर्गीकरण और कई दफ़ा ये दोनों आपस में बहुत गहरे से गुंथे हुए होते हैं.”
पेट्रियार्की आसान शब्दों में महिलाओं पर, पुरुषों के शारीरिक, आर्थिक, लैंगिक, यौनिक और मानसिक वर्चस्व की हिमायत करता है. इसमें जीवन के हर मोड़ पर महिला के ऊपर एक पुरुष का वर्चस्व होता है. बचपन से शादी होने तक पिता और भाई और बाद में पति और बेटा. लेकिन, उमा चक्रवर्ती इस विमर्श को आगे ले जाते हुए कहती हैं, “ऊंची जातियों में महिलाओं की सेक्शुअलिटी को, ‘रेस’ या जाति की शुद्धता को बरक़रार रखने के मंसूबे से काबू करने की प्रथा को ही ब्राह्मिनिकल पैट्रियार्की कहा जाता है. ये समाज के ताने-बाने में ब्राह्मणों के वर्चस्व को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने के लिए उठाया गया ज़रूरी कदम था. हमारी धार्मिक किताबें और इतिहास इस बात की गवाह हैं कि चाहे मनुस्मृति हो या वैदिक काल के बाद का भारतीय धार्मिक साहित्य, उसे लिखने वाला अक्सर वो ताक़तवर पुरूष होता था जो ब्राह्मण समुदाय से आता था, और जिसने ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की नींव रखी, जिसके तहत महिलाओं पर ठीक वैसे ही नियंत्रण रखने की बात होती थी, जैसे दलितों और कमज़ोर वर्गों पर.”
हालांकि, पितृसत्ता एक विचार है जो दुनिया के हर समाज में अलग-अलग रूपों में मौजूद है और इसके होने के कारण भी अलग हो सकते हैं. यूरोपीय देशों में यह रेस और नस्लीय सोच के रूप में पाया जाता है. ये प्राचीन मेसोपोटामिया से लेकर सीलोन और मालाबार तक फैला हुआ था. ऐसे में ये कहना कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का विरोध करना एक पूरी क़ौम या समुदाय का विरोध करना है, ये थोड़ी ज़्यादती भी है और थोड़ी अज्ञानता भी.
इसलिए, ट्विटर ने जिस तरह से हड़बड़ी में इस पूरे मुद्दे को हैंडल किया है वो न सिर्फ ग़ैरज़रूरी है बल्कि हास्यपद भी है. इससे ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म पर होने वाले संवाद की गंभीरता न सिर्फ़ कम होती है बल्कि गहरे सवाल भी खड़ा करती है. क्योंकि, हम जिस समय और समाज में रहते हैं, वहां पेट्रियार्की और ब्राह्मिनिकल पेट्रियार्की एक मुख्यधारा की बहस से जुड़ा शब्द है. इसे आम करने में ट्विटर समेत अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का अहम योगदान है. ऊंची जातियों का वर्चस्व इन मंचों पर होने वाले संवाद में आसानी से पहचाना जा सकता है. ऐसे में जब कोई कहता है कि, ‘स्मैश ब्राह्मिनिकल पेट्रियार्की,’ तब वो ब्राह्मणों पर नहीं बल्कि ब्राह्मणों द्वारा जनित और पोषित एक विचार पर हमला करता है. उस विचार पर जिसने भारतीय समाज में एक ग़ैर-बराबरी वाली व्यवस्था को सामान्य बनाने में अहम योगदान दिया है.
मसलन मेरा पढ़ा लिखा होना, किसी अनपढ़ या दलित महिला या मुझसे कम पढ़ी-लिखी मेरी मां या दादी के संघर्षों को कमतर नहीं कर सकता. ठीक वैसे ही, एक ब्राह्मण कुल में पैदा हुई किसी महिला का संघर्ष बहुत बड़ा हो सकता है, पर वो एक दलित महिला के संघर्षों को तुच्छ या नकारा साबित नहीं कर सकती, क्योंकि वो महिला जाति और स्त्री द्वेष नाम की दोहरी मार झेलती है.
जैक डोर्से चूंकि एक विदेशी हैं तो उन्हें हमारे देश के इन गहरे आंतरिक फॉल्टलाइन्स की शायद जानकारी नहीं है और है भी तो शायद बेहद सतही समझ के साथ है. इसलिए हम उन्हें बेनेफिट ऑफ़ डाउट दे सकते हैं लेकिन, विजया गड़े एक भारतीय हैं और उन्हें इन बातों की जानकारी न हो ये मानना बहुत मुश्किल है. इसलिए, ये पूरी घटना ट्विटर की तरफ़ से इस मसले को बहुत ही हल्के में लेने, गलत तरीके से हैंडल करने और कहीं न कहीं चालाकी बरतने की घटिया मिसाल लगता है. जिस तरह से ट्विटर मैनेजमेंट अपने यूज़र्स के शुरुआती विरोध के बाद ही घुटनों के बल आ गया, उससे एक बार फिर ये साबित हुआ कि असल में वर्चुअल दुनिया में भी पेट्रियार्की, ब्राह्मिनिकल पेट्रियार्की और बिज़नेस पेट्रियार्की की जड़ें इतनी ग़हरी हैं कि उसमें भी समानता की ऑक्सिजन पहुंच पाना फ़िलहाल दूर की कौड़ी है.