सीबीआई डीआईजी मनीष सिन्हा द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल पर जांच में हस्तक्षेप का आरोप लगाना संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता में दखल का सबूत है.
सीबीआई, सीवीसी, सीआईसी, आरबीआई और सरकार. मोदी सत्ता के दौर में देश के इन चार प्रीमियर संस्थान और देश की सबसे ताकतवर सत्ता की नब्ज पर आज की तारिख में कोई अंगुली रख दे तो धड़कने उसकी अंगुलियों को भी छलनी कर देगी. क्योंकि ये सभी ऐसे हालात को पहली बार जन्म दे चुके है जहां सत्ता का दखल, क्रोनी कैपिटलिज्म, भ्रष्टाचार की इंतहा और जनता के साथ धोखाधड़ी का खुला खेल है. और इन सारे नजारों को सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक दायरे में देखना-परखना चाह रहा है. लेकिन सत्ता का कटघरा का इतना व्यापक है कि संवैधानिक संस्थाएं भी बेबस नज़र आ रही हैं.
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Contributeएक-एक कर परतों को उठाएं तो रिजर्व बैंक भले ही सरकार की रिजर्व मनी की मांग का विरोध कर रहा है लेकिन बैंको से कर्ज लेकर जो लोग देश को चूना लगा रहे हैं उनके नाम सामने नहीं आने चाहिये, इस पर उसकी सहमति है. यानी एक तरफ सीवीसी रिजर्व बैंक को नोटिस देकर पूछ रहा है कि जो देश का पैसा लेकर देश छोड़ कर चले गये, और जो जा सकते है, या फिर खुले तौर पर बैंको को ठेंगा दिखाकर कर्ज लिया और अब पैसा ही लौटाने को तैयार नहीं हैं उनके नाम तो सामने आने ही चाहिये. लेकिन इस पर रिज़र्व बैंक की खामोशी और मोदी सत्ता का नाम सामने आने पर इकोनॉमी के डगमगाने का खतरा बताकर खामोशी बरती जा रही है.
एक तरफ बीते चार बरस में देश के 109 किसानों ने खुदकुशी इसलिये कर ली क्योंकि पचास हजार रुपए से नौ लाख रुपए तक का बैंक से कर्ज लेकर न लौटा पाने की स्थिति में बैंको ने उनके नाम नोटिस बोर्ड पर चस्पा कर दिये. तो सामाजिक तौर पर उनके लिये हालात ऐसे हो गए कि जीना मुश्किल हो गया. इसके सामानांतर बैंको के बाउंसरों ने किसानों के मवेशी से लेकर घर के कपड़े-भांडे तक उठाना शुरू कर दिया. तो जिस किसान को सहन नहीं हुआ, उसने खुदकुशी कर ली.
इसी के सामानांतर देश के करीब सात सौ से ज्यादा रईसों ने कर्ज लेकर बैंकों को रुपया नहीं लौटाया और रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर ने जब इन कर्जदारों के नामों को सरकार को सौंपा तो सरकार ने ही इसे दबा दिया. अब सीआईसी कुछ नहीं कर सकता सिवाय नोटिस देने के. तो उसने नोटिस दे दिया.
यानी सीआईसी दंतहीन है. लेकिन सीवीसी दंतहीन नहीं है. ये बात सीबीआई के झगड़े से सामने आ गई. खासकर जब सरकार सीवीसी के पीछे खड़ी हो गई. सीबीआई के डायरेक्टर आलोक वर्मा ने सोमवार को जब सीवीसी की जांच को लेकर अपना पक्ष सुप्रीम कोर्ट को सीलबंद लिफाफे में सौंपा तो तीन बातें साफ हो गई. पहला, सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर आस्थाना के बीच सीवीसी खड़ी है. दूसरी, सीवीसी बिना सरकार के निर्देश के सीबीआई के डायरेक्टर की जांच कर नहीं सकती है यानी सरकार का साथ मिले तो दंतहीन सीवीसी के दांत हाथी सरीखी नजर आने लगेंगे. और तीसरा, जब संवैधानिक संस्थानों से सत्ता खिलवाड़ करने लगे तो देश में आखरी रास्ता सुप्रीम कोर्ट का ही बचता है. आखरी रास्ते का मतलब संसद इसलिये नहीं है क्योकि संसद में अगर विपक्ष कमजोर है तो फिर सत्ता हमेशा जनता की दुहाई देकर संविधान को भी दरकिनार कर सकती है. और यहां सरकार वाकई ‘सरकार’ की भूमिका में होगी ना कि जनसेवक की भूमिका में. जो कि हो रहा है और दिखायी दे रहा है.
लेकिन इस कड़ी में अगर सत्ता के साथ देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी जुड़ जाएं तो देश किस मोड़ पर खड़ा है इसका एहसास भर ही हो सकता है. इस बारीक लकीर को जब कोई पकड़ना या छूना नहीं चाहता है. जब किसी संस्था का नाम देश की साख से जुड़ जाता है और अपनी साख बचाने के लिये सत्ता संस्था की साख का इस्तेमाल करने लगती है तो क्या-क्या हो सकता है.
संयोग देखिये सोमवार को ही सीबीआई डायरेक्टर ने अपने ऊपर स्पेशल डायरेक्टर आस्थाना के लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों का जवाब जब सीवीसी की जांच रिपोर्ट के जवाब में सुप्रीम कोर्ट में सौंपा तो चंद घंटो में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा सीबीआई के डीआईजी रहे मनीष कुमार सिन्हा ने खटखटाया. और सबसे महत्वपूर्ण तो ये है कि सिन्हा ही आलोक वर्मा के निर्देश पर आस्थाना के खिलाफ लगे करप्शन के आरोपों की जांच कर रहे थे. जिस रात सीबीआई डायरेक्टर और स्पेशल डायरेक्टर आस्थाना की लड़ाई के बाद सरकार सक्रिय हुई, और सीबीआई हेडक्वार्टर में आधी रात को सत्ता का ऑपरेशन हुआ, उसमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने सबसे प्रमुख भूमिका निभाई. तब देश को महसूस कुछ ऐसा कराया गया कि मसला तो वाकई देश की सुरक्षा से जुड़ा है. हालाकि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार कभी भी सीबीआई या सीवीसी सरीखे स्वायत्त संस्थानों में दखल नहीं दे सकते. लेकिन जब सत्ता का ही दखल हो जाय तो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और क्या कर सकते हैं. या उनके सामने भी कौन सा विकल्प होगा.
लेकिन यहां बात रात के ऑपरेशन की नहीं है बल्कि आस्थाना के खिलाफ जांच कर रहे सीबीआई डीआईजी मनीष कुमार सिन्हा के उस वक्तव्य की है जो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को सौपी है. चूंकि सिन्हा का तबादला रात के ऑपरेशन के अगले ही दिन नागपुर कर दिया गया. उन्हें आस्थाना के खिलाफ जांच से हटा दिया गया. वही मनीष कुमार सिन्हा जब ये कहते हैं कि अस्थाना के खिलाफ जांच के दौरान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने दो मौकों पर तलाशी अभियान रोकने के निर्देश दिए थे. दूसरी ओर एक बिचौलिए ने पूछताछ में बताया था कि गुजरात से सांसद और मौजूदा कोयला व खनन राज्यमंत्री हरिभाई पार्थीभाई चौधरी को कुछ करोड़ रुपए की रिश्वत दी गई थी. तो इसके क्या अर्थ निकाले जाएं. क्या सत्ता सिर्फ अपने अनुकुल हालात को अपने ही लोगों के जरिए बनाने को देश चलाना मान रही है. और जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ही कटघरे में है तो फिर बचा कौन?
सिन्हा ने सोमवार को अदालत से तुरंत सुनवाई की मांग करते हुए जब ये कहने की हिम्मत दिखा दी कि, “मेरे पास ऐसे दस्तावेज हैं, जो आपको चौंका देंगे.” तो इसके मायने दो है. पहला दस्तावेज सत्ता को कटघरे में खड़ा कर रहे है. दूसरा देश के हालात ऐसे हैं कि अधिकारी या नौकरशाह अब सत्ता के इशारे पर नाचने को तैयार नहीं हैं और इसके लिए नौकरशाही अब गोपनीयता बरतने की शपथ को भी दरकिनार करने की स्थिति में आ गई है. क्योंकि करोड़ों की घूसखोरी में नाम अब सीबीआई के स्पेशल डायरेक्टर का आ रहा है. गुजरात के सांसद जो मोदी सरकार में कोयला खनन के राज्यमंत्री है उनका भी नाम आ रहा है और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दागियों को बचाने की पहल करने के आरोपों के कटघरे में खड़े हैं.
तो क्या सरकार ऐसे चलती है कि रिजर्व बैंक को भी सरकार ही चलाना चाहती है. सीवीसी जांच को सरकार करना चाहती है. सीबीआई की हर जांच खुद सरकार करना चाहती है. सीआईसी के नोटिस को कागज का पुलिंदा भर सरकार ही मानती है. और जब कोई आईपीएस सुप्रीम कोर्ट में दिये दस्तावेजों में ये लिख दे कि ‘‘अस्थाना के खिलाफ शिकायत करने वाले सतीश सना से पूछताछ के दौरान कई प्रभावशाली लोगों की भूमिका के बारे में पता चला था.’’ और संकेत ये निकलने लगे कि प्रभावशाली का मतलब सत्ता से जुड़े या सरकार चलाने वाले ही हैं तो फिर कोई क्या कहें.
सुप्रीम कोर्ट में दी गई सिन्हा की याचिका के मुताबिक, “सना ने पूछताछ में दावा किया कि जून 2018 के पहले पखवाड़े में कोयला राज्य मंत्री हरिभाई चौधरी को कुछ करोड़ रुपए दिए गए. हरिभाई ने कार्मिक मंत्रालय के जरिए सीबीआई जांच में दखल दिया था.” और चूंकि सीबीआई डायरेक्टर कार्मिक मंत्रालय को ही रिपोर्ट करते है तो फिर आखरी सवाल यही है कि सत्ता चलाने का तानाबाना ही क्या इस दौर में ऐसा बुना गया है जहां सत्ता की अंगुलियो पर नाचना ही हर संस्था से लेकर हर अधिकारी की मजबूरी है. नहीं तो आधी रात का ऑपरेशन अंजाम देने के लिये राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सक्रिय हो जाते हैं.
(पुण्य प्रसून वाजपेयी के फेसबुक वाल से साभार)
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