श्रीलंका के मौजूदा राजनीतिक संकट में अगर चीन, कोलंबो तक पहुंचता है तो भारत के लिए बहुस्तरीय संकट पैदा हो जाएगा.
पड़ोसी देशों की कतार में पहली बार श्रीलंका में राजनीतिक संकट के पीछे जिस तरह चीन के विस्तार को देखा जा रहा है, वह एक नए संकट की आहट है. अब वाकई युद्ध विश्व बाजार पर कब्जा करने के लिये पूंजी के जरिए होंगे ना कि हथियारों के जरिए. ये सवाल उस तरीके पर पैदा हुआ जिस तरीके से श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रिपाला सिरीसेना ने प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को बर्खास्त कर पूर्व राष्ट्रपति महिन्दा राजपक्षे को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त किया. जबकि रानिल विक्रमसिंघे के पास राजपक्षे से ज्यादा सीटे हैं.
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Contributeउसके बाद के घटनाक्रम में संसद को ही भंग कर नए चुनाव के एलान की तरफ बढ़ना पड़ा. इन हालात को सिर्फ श्रीलंका के राजनीतिक घटनाक्रम के तहत देखना अब भूल होगी. क्योंकि राष्ट्रपति सिरीसेना और राजपक्षे दोनो ही चीन के प्रोजेक्ट के कितने हिमायती हैं ये किसी से छुपा नहीं है. और जिस तरह चीन ने श्रीलंका में पूंजी के जरिए अपना विस्तार किया है वह भारत के लिये नये संकट की आहट है. इससे दुनिया एक बार फिर उस उपनिवेशी सोच के दायरे में लौट रही है जिसके लिए पहला विश्वयुद्ध हुआ था.
ये लकीर बेहद महीन है लेकिन मौजूदा वक्त में या कहें इक्कीसवीं सदी में उपनिवेश बनाने के लिए किसी भी देश को कैसे कर्ज तले दबाया जाता है और फिर मनमानी की जाती है, ये एक के बाद एक कई घटनाओं से साफ होने लगा है. भारत की विदेश नीति इस दौड़ में ना सिर्फ जा चुकी है बल्कि चीन का सामना करने में इतने मुश्किल हालात पैदा हो गए हैं कि एक वक्त बिना किसी एजेंडे के सबंध ठीक करने भर के लिये प्रधानमंत्री मोदी दो दिन की चीन यात्रा पर चले जाते हैं.
दरअसल बात श्रीलंका से ही शुरू करें तो भारत और चीन दोनो ही श्रीलंका में भारी पूंजी निवेश की दौड़ लगा रहे हैं. और राजनीतिक उठापटक की स्थिति श्रीलंका में तब गहराती है जब कोलंबो पोर्ट को लेकर कैबिनेट की बैठक में भारत-जापान के साथ साझा वेंचर को खारिज कर चीन को यह परियोजना देने की बात होने लगती है. तब श्रीलंका के प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे इसका विरोध करते हैं. और उसके बाद राष्ट्रपति सिरीसेना 26 अक्टूबर को प्रधानमंत्री रानिल को ही बर्खास्त कर चीन के हिमायती रहे राजपक्षे को प्रधानमंत्री बना देते हैं.
मौजूदा सच तो यही है कि कोलंबो पोर्ट ही नहीं बल्कि कोलंबो में करीब डेढ़ बिलियन डालर का निवेश कर चीन होटल, जहाज, मोटर रेसिंग ट्रैक तक बना रहा है. इसके मायने दो तरह से समझे जा सकते हैं. पहला, इससे पहले श्रीलंका चीन के सरकारी बैंको का कर्ज चुका नहीं पाया तो उसे हम्बनटोटा बंदरगाह सौ बरस के लिये चीन के हवाले करना पड़ा और अब कोलंबो पोर्ट भी अगर उस दिशा में जा रहा है तो स्थितियां सामरिक संकट की हैं. क्योंकि भारत के लिये चीन उस संकट की तरह है जहां वह अपने मिलिट्री बेस का विस्तार पड़ोसी देशों में कर रहा है.
कोलंबो तक अगर चीन पहुंचता है तो भारत के लिये संकट कई स्तर पर होगा. यानी श्रीलंका के राजनीतिक संकट को सिर्फ श्रीलंका के दायरे में देखना अब मूर्खता होगी. ठीक वैसे ही जैसे चीन मालदीव में घुस चुका है. नेपाल में चीन हिमालय तक सड़क के जरिए दस्तक देने को तैयार हो रहा है. भूटान में नई वाम सोच वाली सत्ता के साथ निकटता के जरिए डोकलाम की ज़मीन के बदले दूसरी जमीन देने पर सहमति बनाने की दिशा में काम कर रहा है.
बांग्लादेश पूरी तरह से हथियारों को लेकर चीन पर निर्भर है. करीब 31 अरब डालर लगाकर बांग्लादेश की दर्जन भर परियोजनाओं पर चीन काम कर रहा है. हालांकि पहली बार बांग्लादेश ने पद्मा नदी पर बनने वाले 20 किलोमीटर लंबे पुल समेत कई अन्य परियोजनाओ को लेकर 2015 में हुए चीन के साथ समझौते से अब पांव पीछे खींच लिया है. लेकिन लगे हाथ बांग्लादेश ने ढाका स्टॉक एक्सचेंज को 11.99 करोड़ डालर में चीन को बेच दिया. इसी के सामानांतर पाकिस्तान की इकोनॉमी भी अब चीन ही संभाले हुए है. तो क्या पाकिस्तन चीन का नया उपनिवेश है. और नये हालात में क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि चीन की विस्तारवादी नीति पूंजी निवेश के जरिए कई देशों को उपनिवेश बनाने की दिशा में जा रही है.
ये पूरी प्रक्रिया भारत के लिये खतरनाक है. लेकिन समझना ये भी होगा कि इसी दौर में भारत की विदेश नीति ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को खत्म कर दिया. पड़ोसियों के साथ तालमेल बनाए रखने के लिये सार्क मंच भी ठप कर दिया. यानी जिस गुटनिरपेक्ष मंच के जरिए भारत दुनिया के ताकतवर देशों के सामने खड़ा हो सकता था. अपनी वैदेशिक सौदेबाजी के दायरे को विस्तार दे सकता था उसे अमेरिकी राह पर चलते हुए खत्म कर दिया.
क्या भारत की विदेश नीति आर्थिक हितों को पाने के लिये अमेरिकी उपनिवेश बनाने की दिशा में जाने लगी है. ये सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है कि आज भारत की इकोनॉमी तो खासी बड़ी है. लेकिन अमेरिका तय करता है कि भारत ईरान से तेल ले या नहीं. या फिर रुस के साथ हथियारों के समझौते पर उसका विरोध भारत के लिये महत्वपूर्ण हो जाता है.
एक सच ये भी है कि इंदिरा गांधी के दौर में भारत की अर्थव्यवस्था आज सरीखी मजबूत नहीं थी. लेकिन तब इंदिरा गांधी अमेरिका से भी टकरा रही थी. वाजपेयी के दौर में भी परमाणु परिक्षण अमेरिका को दरकिनार करने की सोच के साथ हुए.
तो आखिरी सवाल ये खड़ा हो सकता है कि अब रास्ता क्या है. भारत का संकट भी राजनीतिक सत्ता को पाने या गंवाने पर जिस तरह से जा टिका है उससे सारी नीतियां किस तरह प्रभावित हो रही हैं ये सभी के सामने है. हम ज्यादा से ज्यादा क्षेत्र में विदेशी पूंजी और विदेशी ताकतों पर निर्भर होते जा रहे है.
ताजा मिसाल रिजर्व बैक की है. जो देश के आर्थिक संकट का एक नायाब चेहरा है. चुनावी बरस होने की वजह से सत्ता चाहती है रिजर्व बैक 3.6 लाख करोड़ रिजर्व राशि वह मार्केट में झोंके. इतनी बड़ी राशि के बाजार में आने से तीन असर साफ पड़ेंगे. डॉलर और मंहगा होगा. दूसरा, मंहगाई बढ़ेगी. तीसरा, पेट्रोल की कीमतें और बढ़ेंगी. यानी सत्ता में बने रहने की तिकड़म अगर देश की इकोनॉमी से खिलवाड़ करें तो ये सवाल आने वाले वक्त में किसी भी सत्ता से पूछा जा सकता है कि विदेशी निवेश के जरिए राजनीतिक सत्ता जब उपनिवेश बन जाती है तो फिर देश को उपनिवेश बनाने से कोई कैसे रोकेगा.
(पुण्य प्रसून वाजपेयी की फेसबुक वॉल से साभार)
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