धुआंसी दिल्ली में संतों का धर्मादेश

वो कौन लोग हैं जो संविधान संचालित एक संप्रभु लोकतांत्रिक देश के मुखिया को धर्मादेश जारी कर रहे हैं?

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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संतों ने धर्मादेश जारी किया है. सरकार या तो राम मंदिर के लिए कानून बनाए या अध्यादेश लाए. इस धर्मादेश में संतों ने यह भी जोड़ा है कि बहन-बेटी संस्कृति की रक्षा के लिए भारत की जनता को 2019 में हर हाल में मोदी को ही पुन: प्रधानमंत्री बनाना चाहिए. वोट उसे ही दिया जाय जिसकी आस्था गाय, गंगा, गीता, गायत्री और गोविंद में हो. अनुप्रास की इस विकट छटा में संतों की विद्रूप सियासत छिपी हुई है. ये दुनिया से विरक्त होकर सत्य की खोज में नहीं लगे हैं, बल्कि दीन की चादर ओढ़ दुनिया को छल रहे हैं. माया के मोह से परे न रहते हुए, माया में आकंठ धंसे हुए हैं.

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रविवार को दिल्ली में संपन्न हुए संतों के कार्यक्रम के आगे शरीर अखिल भारतीय संत समिति का था, पीछे दिमाग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदु परिषद का था. अखिल भारतीय संत समिति, संघ के देश भर में फैले उन सैंकड़ों मुखौटा संगठनों में से ही एक संगठन है, जिन्हें आनुषंगिक संगठन कहा जाता है. संत समिति के शीर्ष संत है हंसदेवाचार्य जिन्होंने इस कार्यक्रम का संचालन किया. बड़े चेहरों में श्री श्री रविशंकर नजर आए.
इस आयोजन का खुला और छिपा दोनों मकसद देखना-समझना जरूरी है. यह कहना कि चुनावों से ठीक पहले भाजपा और संघ मंदिर के नाम पर माहौल गरमा रहे हैं, एक हद तक सच है लेकिन इसके कई और आयाम हैं. साधुओं ने भाजपा की पिच पर खेलने का तय कर लिया है. इसका एक पूरा रोडमैप देखिए- 25 नवंबर को अयोध्या, नागपुर और बंगलोर में धर्मसभा, यानी उत्तर, मध्य से लेकर दक्षिण तक पूरे देश को हिलोरा जाएगा. फिर 9 दिसंबर को दिल्ली में महा धर्मसभा आयोजित की जाएगी. 18 दिसंबर से पूरे देश में 500 के करीब छोटी-छोटी संत सभाएं होंगी. संत जब यह सब कर रहे होंगे उसी दौरान देश पूरे जोश के साथ 2019 के आम चुनाव की दहलीज पर पहुंच चुका होगा. संतई का प्रहसन लोकतंत्र के लिए सुरीला संगीत बन चुका होगा.

बीते 3 दशकों में भाजपा और संघ की सबसे बड़ी सफलता यह नहीं है कि उसने मोदी को पूर्ण बहुमत से सत्ता में बिठा दिया है. उसकी सफलता यह है कि उसने बड़ी खूबी से धर्म को सियासत में सान दिया है. देश पर सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस की सबसे बड़ी असफलता यह है कि दबे-छिपे वह इस खेल को शह देती रही और आज खुद इसकी चपेट में झुलस गई है.

सवाल उठता है कि वो कौन लोग हैं जो संविधान संचालित एक संप्रभु लोकतांत्रिक देश के मुखिया को धर्मादेश जारी कर रहे हैं? इनके तार किससे जुड़े हैं? ये बेमौसन बेसुरे संगीत के तार कहां से झंकृत हो रहे हैं?

सीधे-सीधे तौर पर यह कहना कि कार्यक्रम को संघ या वीएचपी ने आयोजित किया सही नहीं होगा. लेकिन यह बात जरूर है कि इसके लिए जरूरी सपोर्ट सिस्टम दिल्ली वीएचपी के लोगों ने ही मुहैया करवाया. संघ की एक शैली है, वह अपने स्वयंसेवकों को फुटसोल्ज़र के तौर पर ऐसे कार्यक्रमों में झोंक देता है. वैसे ही जैसे चुनावों के दौरान वो भाजपा के पक्ष में मतदान करवाने के लिए करता है.

हजारों की संख्या में संत-महात्मा दिल्ली पहुंचे तो उनके रहने की व्यवस्था करना, खाने की व्यवस्था करना, गाड़ियों की व्यवस्था करना, यह सारे काम संघ और विहिप के लोगों ने किया. जहां तक आयोजन पर खर्च होने वाले पैसे की बात है तो वह अखिल भारतीय संत समिति ने ही किया था. मसलन कार्यक्रम में मौजूद एक संत के मुताबिक समिति के अध्यक्ष हंसदेवाचार्य और दिल्ली संघ और विहिप के पदाधिकारी आपस में करीबी समन्वय के साथ जुड़े हुए थे. हंसदेवाचार्य विहिप के पदाधिकारियों को समय-समय पर जरूरी दिशा निर्देश देते हुए दिखे.
हंसदेवाचार्य और श्री श्री के अलावा इस आयोजन में शंकराचार्य वासुदेवानंद सरस्वती, अविचलदास महाराज, स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती, स्वामी गोविंददेव गिरी और स्वाम बालकानंद गिरी आदि प्रमुख थे. प्रमुख चेहरा और आयोजनकर्ता हंसदेवाचार्य महाराज थे. इनका अतीत जानने के बाद पाठकों को दिल्ली में जारी हुए धर्मादेश का भविष्य समझने में आसानी होगी.
2010 से पहले रामानंदाचार्य हंसदेवाचार्य महाराज को उनके भक्त स्वामी हंसदास के नाम से जानते थे. 2010 में महानिर्वाणी अणि अखाड़े ने इन्हें आचार्य की पदवी देकर इनका नाम हंसदेवाचार्य महाराज कर दिया. हरिद्वार में इनके आश्रम का नाम जगन्नाथधाम आश्रम है. हंसदेवाचार्य इसके संस्थापक हैं. संघ और उससे भी अधिक संघ प्रमुख मोहन भागवत के साथ हंसदेवाचार्य के गहरे और पुराने रिश्ते हैं. अपने आश्रम में हंसदेवाचार्य हर वर्ष अपने गुरु का प्रकाशोत्सव मनाते हैं. इस कार्यक्रम में मोहन भागवत लंबे समय से शिरकत करते आए हैं. तब से जब वे संघ प्रमुख नहीं हुआ करते थे. आश्रम के भक्त और साधू बताते हैं कि भागवत गुरुदेव के प्रकाशोत्सव में घंटों तक मंच पर हंसदेवाचार्य के साथ मौजूद रहते थे.

इसके अतिरिक्त हंसदेवाचार्य की नजदकी उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी के साथ भी थी. हंसदेवाचार्य एक समय में आज के संतों के सिरमौर बाबा रामदेव के गुरू सरीखे थे. जानकार बताते हैं कि रामदेव को हरिद्वार में पैर जमाने में हंसदेवाचार्य ने काफी मदद की. लेकिन एक सच यह भी है कि कुछ सालों से दोनों का साथ दिखना एकदम बंद हो गया है. इसके पीछे की कहानी फिर कभी.

संघ प्रमुख भागवत से इतने करीबी रिश्ते रखने वाले हंसदेवाचार्य महाराज फिलहाल अखिल भारतीय संत समिति के अध्यक्ष भी हैं. लिहाजा मंदिर के नाम पर जारी इस धींगामुश्ती में पक्ष और विपक्ष, दोनों के तार एक ही संस्था घुमा रही है, आरएसएस.
इसके अलावा इस पूरे आयोजन का एक पक्ष विश्व हिंदु परिषद है. परिषद का पूरा अस्तित्व राम मंदिर आंदोलन की बुनियाद पर निर्मित हुआ है. विहिप के नजरिए से देखें तो राम मंदिर पर बीते साढ़े चार साल में कुछ नहीं हो पाना उसकी अपनी प्रतिष्ठा के लिए बहुत नुकसानदेह है. वह भी तब जब पूरे देश में भाजपा की सरकारे हैं. केंद्र में भी पूर्ण बहुमत की सरकार है. कम से कम परसेप्शन के स्तर पर विहिप को कोई न कोई संदेश देना है. क्योंकि उसने अब तक मंदिर निर्माण के नाम पर देश-विदेश से अरबों रुपए का चंदा इकट्ठा किया है. वह अयोध्या में मंदिर बनाए या न बनाए लेकिन ऐसा करते हुए दिखने के भारी दबाव में है.
संतों के कार्यक्रम में शामिल रहे एक संत के मुताबिक विहिप की दिल्ली इकाई ने इस पूरे आयोजन में प्रमुख भूमिका निभाई. लिहाजा संतों के दिल्ली में हुए आयोजन के पीछे संघ का दिमाग मानने की हर वजह मौजूद है. इस कार्यक्रम से एक और फॉल्टलाइन सामने आई है. प्रधानमंत्री मोदी का वृहदतर व्यक्तित्व, जिसके आगे फिलहाल संघ और उसके आनुषंगिक संगठन बौने हो चले हैं. उनके खौफ का असर संतो द्वारा पारित प्रस्ताव में दिखता है. एक तरफ वो सरकार को संकट में डालने वाले विवादित कानून की मांग करते हैं तो साथ ही उसी प्रस्ताव में 2019 में जनता से मोदी को पुन: प्रधानमंत्री बनाने की अपील भी कर डालते हैं. मोदी से टाकराव की मंशा या हिम्मत किसी में नहीं है.

यह भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. 2014 के पहले और बाद की स्थितियों की तुलना करें तो उस समय यूपीए सरकार को अस्थिर करने के लिए अन्ना के आंदोलन और बाबा रामदेव के आंदोलन को संघ पीछे से संचालित कर रहा था. आज भी संघ ही पीछे से संतों के जरिए आंदोलन चला रहा है. देश में विपक्ष पूरी तरह शून्य, संसाधनविहीन और रणनीतिविहीन है. 2019 के मुहाने पर भारत के लिए यह भयावह स्थिति है.

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