दिल्ली हाईकोर्ट ने हाशिमपुरा नरसंहार के आरोपित पीएसी जवानों को किन आधार पर आजीवन कारावास की सजा दी है?
हाशिमपुरा मेरठ शहर का एक मुहल्ला, जिसकी पहचान ही यही है कि यहां आज 31 साल पहले एक नरसंहार हुआ था. ऐसा नरसंहार जो आज़ाद भारत के इतिहास में पुलिसिया बर्बरता की सबसे क्रूरतम घटनाओं में से एक है. इस हत्याकांड में करीब 38 निर्दोष लोगों की पुलिस ने गोली मारकर हत्या कर दी थी और उनके शवों को गंग नहर और हिंडन नदी में बहा दिया था.
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Contributeइस मामले में 28 साल की कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद भी मारे गए लोगों के परिजनों को गहरी निराशा हाथ लगी थी क्योंकि साल 2015 में दिल्ली की एक निचली अदालत ने सभी आरोपितों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया था. लेकिन इस घटना के पूरे 31 साल बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने इस मामले में न्याय किया है और निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए सभी दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई है.
साल 1987 में हाशिमपुरा में आखिर क्या हुआ था, किन परिस्थितियों में इस नरसंहार को अंजाम दिया गया, निचली अदालत ने किन कारणों से आरोपितों को बरी कर दिया था और दिल्ली हाई कोर्ट ने कैसे निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए सभी दोषियों को सजा सुनाई, इन तमाम सवालों के जवाब दिल्ली हाईकोर्ट के 73 पन्नों के हालिया फैसले से मिल जाते हैं. ये फैसला जस्टिस एस मुरलीधर और जस्टिस विनोद गोयल की पीठ ने सुनाया है. 73 पन्नों के इस फैसले की शुरुआत ही हाशिमपुरा में 31 साल पहले हुई घटनाओं के विवरण से होती है जो कुछ इस तरह है:
‘हाशिमपुरा मेरठ शहर का एक मोहल्ला है. 22 मई 1987 की शाम यह मोहल्ला एक त्रासदी का गवाह बना. करीब 42 से 45 मुस्लिम मर्दों को उस दिन पीएसी के जवानों ने घेरा और उन्हें एक ट्रक में बैठाकर अपने साथ ले गए. कुछ दूर ले जाकर इनमें से एक-एक को पीएसी के जवानों ने गोली मार दी और उनके शव नहर में फेंक दिए. कुछ लोगों के शव गंग नहर में फेंके गए जबकि कुछ अन्य लोगों के हिंडन नदी में. इनमें से पांच लोग जिंदा बच गए थे जिन्होंने बाद में इस नृशंस हत्याकांड की आंखो आंखो देखी बयान की. जो 38 लोग मारे गए, उनमें से सिर्फ 11 लोगों की पहचान हो पाई, कइयों के शव कभी बरामद ही नहीं हुए.
मई 1987 में मेरठ सांप्रदायिक दंगों की चपेट में था. इन दंगों के ही चलते हाशिमपुरा मोहल्ले में सुरक्षा के लिहाज से पुलिस, अर्ध-सैनिक बल और फ़ौज की तैनाती की गई थी. इनमें पीएसी की 41 वीं बटालियन की ‘सी-कंपनी’ भी शामिल थी. 31 मई के दिन हाशिमपुरा के बगल वाले मोहल्ले में फ़ौज के एक मेजर के भाई की हत्या हो गई और पीएसी की दो राइफल भी दंगाइयों ने लूट ली. इस संबंध में एक केस भी दर्ज हुआ जो आज भी मेरठ की अदालत में लंबित है.
22 मई की दोपहर हाशिमपुरा मोहल्ले से कुल 644 लोगों को गिरफ्तार किया गया. गिरफ्तार किए गए ये सभी लोग मुसलमान थे. सबसे पहले इन्हें हाशिमपुरा में ही एक पीपल के पेड़ के नीचे लाइन से खड़ा किया गया और दो अलग-अलग समूहों में बांट दिया गया. एक समूह में बूढ़े और बच्चे शामिल थे जबकि दूसरे में युवा. फिर इन्हें पीएसी, फ़ौज और सीआरपीएफ के ट्रकों में सिविल लाइन्स और पुलिस लाइन भेजा गया. जिन 42 लोगों को पीएसी के ट्रक में ले जाकर मारा दिया गया, वो पहले समूह में शामिल थे.’
घटनाओं का विस्तृत विवरण देने के साथ ही हाईकोर्ट ने अपने फैसले में उन पहलुओं पर भी चर्चा की है जो निचली अदालत के सामने रखे ही नहीं गए या जिन्हें अदालत ने नज़रंदाज़ कर दिया.
निचली अदालत से अलग रुख:
निचली अदालत ने माना था कि अभियोजन पक्ष ये साबित नहीं कर सका है कि पीएसी की ‘सी-कंपनी’ को हाशिमपुरा भेजा गया था. लिहाजा अभियोजन का यह दावा कि इन 42 लोगों को आरोपित ही उठाकर ले गए थे संदेहास्पद लगता है क्योंकि आरोपित वहां से करीब चार किलोमीटर दूर तैनात थे. लेकिन हाईकोर्ट ने इस बारे में कहा, “जनरल डायरी की एंट्री संख्या 6 में दर्ज है कि सुबह 7:50 बजे आरोपित पुलिस लाइन से निकल गए थे. इसमें स्पष्ट तौर से कमांडर सुरेंद्र पाल सिंह (जिनकी अब मृत्यु हो चुकी है) के साथ ही अन्य 18 आरोपितों के नाम दर्ज हैं.”
इस तथ्य के साथ ही हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि ‘इस संबंध में अभियोजन पक्ष के गवाह नंबर 72 ने भी बयान दिया है कि पीएसी के ये जवान उस दिन ट्रक नंबर यूआरयू 1493 से निकले थे और इनके पास 17 राइफल, उसकी 856 राउंड गोलियां, एक रिवाल्वर और उसकी 30 राउंड गोलियां थीं.’
हाईकोर्ट ने ये भी माना कि ‘इस ट्रक को मोकम सिंह ही चला रहे थे, ये भी सुनिश्चित हो चुका है.’ निचली अदालत में यह तथ्य भी संदेह से परे साबित नहीं हुआ था.
निचली अदालत ने कहा था कि ‘किसी भी गवाह ने मोकम सिंह को यूआरयू 1493 नंबर के ड्राईवर के रूप में नहीं पहचाना है और इस ट्रक का घटना से कोई सीधा संबंध भी स्थापित नहीं हो सका है.’ इसके उलट हाईकोर्ट ने माना कि ‘ट्रक रनिंग रजिस्टर’ में दर्ज एंट्रियों से ये साफ़ पता चलता है कि ये ट्रक उस दिन हाशिमपुरा गया था. साथ ही इसमें दर्ज एंट्री की पुष्टि अभियोजन पक्ष के गवाह राम चंद गिरी के बयानों से भी होती है जो उस वक्त मोटर ट्रांसपोर्ट विभाग में सब इंस्पेक्टर थे.’ हाईकोर्ट ने अपने फैसले में लिखा है, ‘रनिंग रजिस्टर की एंट्री, इन-मीटर और आउट-मीटर की रिकॉर्डिंग और अभियोजन के गवाहों के बयान आपस में मेल खाते हैं और यह बताते हैं कि उस रोज़ ट्रक नंबर यूआरयू 1493 का इस्तेमाल आरोपितों ने किया था और इसे मोकम सिंह ही चला रहे थे.’
निचली अदालत में आरोपितों का अपराध से सीधा संबंध भी सबूतों के अभाव में स्थापित नहीं हो सका था. निचली अदालत ने माना था कि आरोपितों और संबंधित ट्रक की पहचान सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त सबूत मौजूद नहीं है. लेकिन हाईकोर्ट ने इस संबंध में कहा है, ‘मेडिकल और फॉरेंसिक साक्ष्य ये बात संदेह से परे साबित करते हैं कि मृतकों को जो गोलियां लगी हैं वह आरोपितों को जारी की गई राइफल से ही चली हैं. एक मृतक के शरीर से .303 की गोली बरामद हुई है और फॉरेंसिक जांच में यह गोली आरोपित की बन्दूक से मेल खाती है. बचाव पक्ष के पास इस बात का कोई संतोषजनक जवाब नहीं है कि यह गोली मृतक के शरीर में कैसे लगी.’
फैसले के मुख्य बिंदु:
दिल्ली हाईकोर्ट ने इस मामले में जांच एजेंसी की खामियों पर भी विस्तृत चर्चा की है और साथ ही यह भी माना है कि यह हत्याएं ‘कस्टोडियल डेथ’ यानी पुलिस के संरक्षण में की गई हत्याओं की श्रेणी में आती हैं. अपने फैसले के अंत में कोर्ट ने कुल 15 बिन्दुओं में इस पूरे फैसले का निष्कर्ष लिखा है जो बेहद अहम हैं:
1. इस अपील में मुख्यतः पहचान सुनिश्चित की जानी है. पहली, उस ट्रक की जिसमें मारे गए लोगों को ले जाया गया था और दूसरा उन लोगों की जिन्होंने इस हत्याकांड को अंजाम दिया.
2. डायरी एंट्री और बयानों से यह स्थापित हो चुका है कि उस दिन सुबह आरोपित इसी ट्रक में राइफल और गोलियां लेकर निकले थे और ट्रक मोकम सिंह चला रहे थे.
3. रजिस्टर से स्थापित होता है कि यह ट्रक उस दिन हाशिमपुरा गया था.
4. आरोपित लोग उस ट्रक में मौजूद थे ये सिर्फ डायरी एंट्री से ही स्थापित नहीं होता बल्कि उन जवाबों से भी स्थापित होता है जो खुद आरोपितों ने धारा 313 के अंतर्गत अपने बयान दर्ज करवाते वक्त दिए थे.
5. लिहाजा इस तथ्य के पर्याप्त सबूत मौजूद हैं जो संदेह से परे स्थापित करते हैं कि 22 मई 1987 की शाम आरोपित ट्रक नंबर यूआरयू 1493 में मौजूद थे.
6. सात अलग-आग साक्ष्यों से यह स्थापित हो चुका है ट्रक के अन्दर भी गोलियां चली थी.
7. मेडिकल साक्ष्य बताते हैं कि मृतक के शरीर से बरामद हुई गोली आरोपितों की बन्दूक से ही चलाई गई थी.
8. छह डॉक्टरों ने मृतकों का पोस्ट मार्टम किया है और सभी ने यह बताया है कि उन लोगों की मौत गोली लगने से ही हुई थी.
9. अभियोजन पक्ष दोनों घटनाओं को संदेह से परे साबित करने में सफल रहा है. पहली, कुछ लोगों को मारकर गंग नहर में फेंका जाना और दूसरी, बाकी लोगों को मारकर हिंडन नदी में फेंका जाना.
10. जनरल डायरी रजिस्टर से आरोपितों का अपराध में शामिल होना साबित होता है. इसके अलावा किसी भी आरोपित ने यह नहीं कहा है कि वे उस दिन मेरठ में नहीं थे या उस ट्रक में मौजूद नहीं थे. उनकी और इस ट्रक की अपराध में संलिप्तता भी अब संदेह से परे साबित हो गई है.
11. साक्ष्य यह भी बताते हैं कि इन तमाम निर्दोष लोगों की हत्या करने से पहले आरोपितों से रणनीति बनाई थी. लिहाजा सभी आरोपित आपराधिक षडयंत्र, अपहरण और हत्या के दोषी हैं.
12. भले ही पीएसी के लोग उन पीड़ितों को किसी जेल या परिसर में नहीं ले गए और ट्रक में ही कैद रखा, लेकिन अदालत मानती है कि ऐसा करना अवैध हिरासत में रखने के समान है. लिहाजा इस मामले में ही हत्याएं ‘हिरासत में की गई हत्या’ की श्रेणी में आती हैं.
13. यह मामला ‘हिरासत में हुई हत्याओं’ का एक भयावह उदाहरण है. दो दशक से लंबी चली न्यायिक प्रक्रिया भी निराशाजनक है.
14. यह बेहद दुखद और परेशान करने वाला है कि इस घटना में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को पीएसी ने निशाना बनाकर मारा. बचाव पक्ष का यह तर्क इसीलिए स्वीकार नहीं किया जा सकता कि ह्त्या का उद्देश्य साबित नहीं हुआ है.
15. यह अदालत निर्देश देती है कि सभी राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण ऐसे नोडल अधिकारियों का चयन करें जो कस्टोडियल डेथ यानी हिरासत में हुई हत्याओं के मामलों में पीड़ितों की सहायता करें. यह सुनिश्चित किया जाय कि ऐसे पीड़ितों को तमाम योजनाओं का लाभ मिल सके और यह लाभ सिर्फ आर्थिक न हो बल्कि उनके अधिकारों और स्वाभिमान की रक्षा हो सके.
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