#MeToo आंदोलन और मीडिया संस्थानों में महिलाओं की मौजूदगी का संकट

मीडिया संस्थानों में महिलाओं की कमजोर अनुपातिक उपस्थिति वहां के कामकाजी माहौल में शोषण की मजबूत जमीन तैयार करती है.

WrittenBy:अनिल चमड़िया
Date:
Article image
  • Share this article on whatsapp

मीडिया संस्थानों में महिलाओं की संख्या बेहद कम है. मीडिया स्टडीज ग्रुप ने 2006 में बड़े या मुख्यधारा के संस्थानों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को अपने सर्वे का हिस्सा बनाया था. इस सर्वे में दिल्ली के राष्ट्रीय मीडिया संस्थानों में शीर्ष 10 पदों पर महिलाओं की कुल हिस्सेदारी 17 फीसदी थी.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute
imageby :

लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर मीडिया स्टडीज ग्रुप द्वारा 2012 में जिले स्तर पर किए गए एक अन्य सर्वे में यह प्रतिनिधित्व मात्र 2.7 फीसद पाया गया. मीडिया में महिलाओं की भागीदारी के लिए पत्रकारिता संस्थानों में उनके दाखिले और मीडिया संस्थानों में उनके काम करने की संख्या में भारी अंतर के आधार पर देख सकते हैं. 1979 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के लिए प्रेस इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (पीआईआई) ने एक अध्ययन में पाया कि पत्रकारिता का पाठ्यक्रम महिलाओं में काफी लोकप्रिय है. इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि मद्रास और रोहतक (हरियाणा) में पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में दाखिला लेने वाली आधे से ज्यादा महिलाएं थीं, जबकि चंडीगढ़ में तकरीबन आधी और कोलकाता में 30 प्रतिशत महिलाएं पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही थीं.

इतनी बड़ी संख्या में पत्रकारिता संस्थानों में दाखिले के बावजूद मीडिया संस्थानों में महिलाओं की भागीदारी का नहीं होना यह साफ करता है कि मीडिया संस्थानों में कामकाजी माहौल पर अभी भी पुरुषवादी मानसिकता का वर्चस्व है, जिससे महिलाओं की उपस्थिति दबी हुई है. द्वितीय प्रेस आयोग (1982) की रिपोर्ट में भी यह बात निकल कर आई थी कि विश्वविद्यालयों के पत्रकारिता विभाग और संस्थानों में बड़ी संख्या में महिलाएं आ रही हैं लेकिन अख़बार और समाचार एजेंसियों में उनकी संख्या कम बनी हुई है. मीडिया में काम करने वाली महिलाएं ज्यादातर विज्ञापन और जनसंपर्क में हैं.

इसके अलावा यह भी देखने को मिलता है कि महिलाओं की छवि ‘मनोरंजन’ और ‘सामान’ के रूप में इस्तेमाल करने की रही है. संस्थान महिला पत्रकारों की बैद्धिक क्षमता के बजाय ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए उनका इस्तेमाल करते हैं. मीडिया संस्थान की कमाई पाठकों / दर्शकों के बजाय कॉरपोरेट घराने या विज्ञापनदाता से होती हैं. प्रभात शरण ने 2011 में न्यूज़रुम में प्रताड़ना विषय पर अपने एक लेख में बताया है- “कुछ साल पहले मुंबई से शुरू हुए एक अख़बार ने रिपोर्टर की भर्ती लिए विज्ञापन दिया जो ‘केवल महिलाओं’ के लिए था. इंटरव्यू लेते हुए अखबार के सर्वोच्च अधिकारी ने बिजनेस रिपोर्टरों को निर्देश दिया कि उन्हें बड़े उद्योगपतियों के साथ (एस्कोर्ट) देर रात की पार्टियों में रहना होगा.” यहां महिला पत्रकारों को बिजनेस बीट देखने के लिए नहीं कहा जा रहा है बल्कि उन्हें उद्योगपतियों के आगे-पीछे दिखने के लिए कहा जा रहा है ताकि उद्योगपति उन्हें अपने रुतबे को बढ़ाने में इस्तेमाल कर सके.

तहलका में हुए यौन उत्पीड़न प्रकरण के बाद कई मीडिया संस्थानों ने विशाखा गाइडलाइन के अनुसार महिला शिकायत प्रकोष्ठ का गठन करने की जहमत उठाई. इसके पहले 18 सालों से ज्यादातर मीडिया संस्थान इसे नजरअंदाज करते रहे. जबकि शोधपत्र और रिपोर्टें पहले भी इस पर सवाल उठाती रही हैं. रानू तोमर (2011) लिखती हैं कि उनसे बातचीत में लगभग सभी महिला पत्रकारों ने कहा कि उनके संस्थान में यौन उत्पीड़न की शिकायत या लैंगिक संवेदनशीलता के लिए किसी समिति का गठन नहीं किया गया है. हालांकि उनका ये भी कहना था कि ऐसा कोई मामला होने पर वो अपने ऊपर के अधिकारियों को कहने से हिचकती नहीं हैं लेकिन इस पर फैसला हमेशा बंद कमरों में होता है जिस पर सभी विश्वास नहीं करते. ज्यादातर मामलों में ऐसी शिकायतों को ‘छोटी बात’ या ‘खुलेपन’ के नाम पर नजरअंदाज कर दिया जाता है. तोमर के मुताबिक भारत के मीडिया संस्थानों में कार्यस्थल पर यौन शोषण कामकाज की संस्कृति का हिस्सा है, लेकिन महिलाएं या तो जानकारी के अभाव में या फिर कई अन्य तरह के कारणों के चलते कुछ भी करने से बचती हैं.
कुछ महिलाएं तमाम तरह के सामाजिक और आर्थिक जोखिम उठाकर आगे आती हैं और शोषण, प्रताड़ना का विरोध करती हैं. जैसा कि गुवाहाटी की पत्रकार सबिता लहकर 2003 में अमर असोम में चीफ सब-एडीटर थीं. इस दौरान उनके संपादक द्वारा कई बार उनका यौन और पेशागत उत्पीड़न किया गया. घटना के बाद सबिता ने अख़बार से इस्तीफा दे दिया था. इस पर कई पत्रकार संगठनों के विरोध के बाद मानवाधिकार आयोग ने उस संस्थान के प्रबंधन को विशाखा के अनुरूप कमेटी गठित करने और उसकी सुनवाई के आदेश दिए. अखबार ने कमेटी गठित की और सबिता को अपना पक्ष रखने के लिए पेश होने को कहा, लेकिन आरोपी संपादक को कमेटी ने पेश होने के लिए नोटिस तक नहीं दिया. पुलिस ने भी मामले की जांच में ढिलाई बरती और आरोपी संपादक को कभी पूछताछ के लिए बुलाने की हिम्मत ही नहीं कर सकी. सबिता का कहना है कि घटना के 10 साल बाद भी उन्हें न्याय नहीं मिला. ऐसी ज्यादातर घटनाओं के बाद महिलाएं नौकरी छोड़ देना ही मुनासिब समझती हैं.

2002 में राष्ट्रीय महिला आयोग की तरफ से भारतीय प्रेस संस्थान (पीआईआई) के एक अध्ययन में महिला पत्रकारों ने कार्यस्थल पर जिस तरह के बदलाव के लिए सुझाव पेश किए उसमें भर्ती के लिए बकायदा विज्ञापन देने, पारदर्शी चयन और साक्षात्कार की प्रक्रिया अपनाने, बराबरी के स्तर पर कामकाज के लिए पुरुषों को प्रशिक्षण देने, ठेके की नौकरी में सेवा-शर्तों में ईमानदारी रखने, मातृत्व और बच्चों की देखभाल के लिए छुट्टी और शिकायतों की सुनवाई के लिए समिति का चुनाव करने की मांग शामिल थी.

यह उस हालात के मद्देनजर कहा गया कि पुरुषों के वर्चस्व वाले मीडिया संस्थानों में आसान शिकार महिलाएं होती हैं जिन्हें नौकरी देने से लेकर पदोन्नति या आगे बढ़ाने के लिए अपने को समर्पित करने की मांग की जाती रही है. एक उदाहरण रियल एस्टेट कंपनी का है. रियल एस्टेट में बेतहाशा कमाई करने वाली उक्त कंपनी ने एक टेलीविजन चैनल वॉयस ऑफ इंडिया खोला. उस संस्थान में मध्य प्रदेश से काम करने वाली पत्रकार शैफाली ने महिलाओं की स्थिति का एक बयान पेश किया. थाने में दर्ज अपनी एफआईआर में उन्होंने ये बात दर्ज की है कि उनको स्टाफर बनाने के लिए ब्यूरो चीफ एसपी त्रिपाठी ने उनके साथ यौन संबंध बनाने की मांग की. इंकार करने पर के बाद भी एक दिन उस व्यक्ति ने शैफाली के साथ शराब पीकर जोर जबरदस्ती की. इस तरह #MeToo से पहले मीडिया संस्थानों में महिला पत्रकार यौन उत्पीड़न और प्रताड़ना के खिलाफ जूझती आ रही हैं.

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like