जयपुर हाईकोर्ट का आदर्श भारतीय संविधान है या मनु?

राजस्थान हाईकोर्ट परिसर में लगी मनु की मूर्ति बनी विवादों का अखाड़ा. 29 साल से अनिर्णय की स्थिति में हाईकोर्ट.

WrittenBy:राहुल कोटियाल
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राजस्थान हाईकोर्ट में पिछले 29 सालों से एक याचिका लंबित है. याचिका भी ऐसी जिसका सीधा संबंध इसी हाईकोर्ट से है लेकिन फिर भी बीते तीन दशकों से इस याचिका पर कोई फैसला नहीं लिया जा सका है. यह याचिका है राजस्थान हाईकोर्ट के जयपुर परिसर में लगी मनु की मूर्ति को हटाने की. इस हाईकोर्ट में कार्यरत तमाम जज हर रोज़ इस मूर्ति को देखते हैं लेकिन बीते 29 सालों में यहां एक भी ऐसा जज नहीं आया जो इस  मूर्ति से संबंधित याचिका पर फैसला सुना सके.

इस मूर्ति की स्थापना 28 जुलाई, 1989 के दिन हुई थी. उस वक्त ‘राजस्थान उच्चतर न्यायिक अधिकारी एसोसिएशन’ ने यह मूर्ति एक निजी संस्था की आर्थिक सहायता से यहां लगवाई थी. इस मूर्ति की स्थापना के साथ ही इस पर विवाद होने भी शुरू हो गए थे. विवादों के चलते मूर्ति स्थापना के लगभग एक महीना बाद ही हाईकोर्ट ने मूर्ति को हटाने का प्रशासनिक आदेश जारी कर दिया था. लेकिन विश्व हिंदू परिषद् के नेता आचार्य धर्मेन्द्र ने इस आदेश को हाईकोर्ट में ही चुनौती दी और कोर्ट ने अंतिम निर्णय आने तक मूर्ति पर अस्थायी रोक लगा दी. बीते 29 सालों से यह अस्थायी रोक आज भी जारी है और वह याचिका आज भी अपने अंतिम निष्कर्ष की बाट जोह रही है.

जयपुर हाईकोर्ट में लगी मनु की यह मूर्ति इन दिनों इसलिए चर्चाओं में है क्योंकि बीते हफ्ते ही दो महिलाओं ने इस मूर्ति के मुंह पर कालिख पोत दी थी. बताया जा रहा है कि ये दोनों महिलाएं औरंगाबाद से जयपुर सिर्फ इसी उद्देश्य से आईं थी और इनका जयपुर हाईकोर्ट में अन्य कोई मामला नहीं था. इन दोनों ही महिलाओं को राजस्थान पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था और अशोक नगर थाणे में इनके खिलाफ मामला भी दर्ज किया गया है. राजस्थान पुलिस का यह भी कहना है कि इस घटना को एक साजिश के तहत अंजाम दिया गया है और संभव है कि आने वाले चुनावों से पहले जातीय हिंसा भड़काने के मकसद से ऐसा किया गया हो.
राजस्थान पुलिस इस घटना की जांच कर रही है. यह कोई पहला मामला नहीं है जब जयपुर हाईकोर्ट में लगी मनु की मूर्ति पर विवाद हुआ हो. बीते कई सालों से यह मूर्ति विवादों से घिरी रही है. इसे लेकर कई बार छोटे-बड़े प्रदर्शन होते ही रहे हैं. लेकिन इन तमाम प्रदर्शनों के बावजूद भी इस मूल सवाल का जवाब पिछले 29 सालों से नहीं खोजा जा सका है कि “क्या भारतीय संविधान से नियंत्रित होने वाले किसी भी न्यायालय में मनु की मूर्ति स्थापित की जा सकती है?”

‘राजस्थान हाईकोर्ट बार एसोसिएशन’ के पूर्व अध्यक्ष माधव मित्रा इस सवाल के जवाब में कहते हैं, “मनु वह व्यक्ति हैं जिन्होंने सबसे पहले ‘विधि’ शब्द इस्तेमाल किया. इससे पहले ‘रीति-रिवाजों’ के आधार पर ही व्यवस्थाएं चलती थी. वे विधि के आदिपुरुष हैं. जो लोग उनका, उनकी मूर्ति का या मनुस्मृति का विरोध करते हैं वो या तो अज्ञानता में ऐसा करते हैं या साजिश के तहत ऐसा करते हैं.” माधव आगे कहते हैं, “मनु को महिलाओं और दलितों का विरोधी घोषित करने की साजिश बहुत पुरानी है. लेकिन मनुस्मृति में कहीं भी दलितों या महिलाओं के खिलाफ कुछ नहीं लिखा गया है. लोगों को विरोध करने से पहले मनुस्मृति को पढना चाहिए. हमारा तो मानना है कि सिर्फ जयपुर में ही नहीं बल्कि भारत की प्रत्येक अदालत में मनु की मूर्ति होनी चाहिए.”

माधव मित्रा की बातों से उलट मनु का विरोध करने वाले तर्क देते हैं कि मनुस्मृति घोर जातिवादी और महिला विरोधी दस्तावेज है. दलित हितों की बातें करने वाले तमाम संगठन सालों से मनुस्मृति का विरोध करते रहे हैं. ऐसे दर्जनों लेख इंटरनेट पर भी उपलब्ध हैं जिनमें मनुस्मृति के हवाले से बताया गया है कि यह किताब किस हद तक दलितों और महिलाओं के खिलाफ है. मसलन, स्त्रीकाल नाम की एक वेबसाइट में प्रकाशित लेख के अनुसार मनुस्मृति कहती है- “पुरुषों को अपने जाल में फंसा लेना तो स्त्रियों का स्वभाव ही है. इसलिए समझदार लोग स्त्रियों के साथ होने पर चौकन्ना रहते है, क्योंकि पुरुष वर्ग के काम क्रोध के वश में हो जाने की स्वाभाविक दुर्बलता को भड़काकर स्त्रियां, मूर्ख  ही नहीं विध्द्वान पुरुषों तक को विचलित कर देती है. पुरुष को अपनी माता, बहन तथा पुत्री के साथ भी एकांत में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियों का आकर्षण बहुत तीव्र होता है और विद्वान भी इससे नहीं बच पाते.”

महिलाओं के बारे में कई अन्य अपमानजनक बातें भी मनुस्मृति में होने की बात कही जाती है. जैसे- “पुरुषों को अपने घर की सभी महिलाओं को चौबीस घंटे नियन्त्रण में रखना चाहिए और विषयासक्त स्त्रियों को तो विशेष रूप से वश में रखना चाहिए. बाल्य काल में स्त्रियों की रक्षा पिता करता है. यौवन काल में पति तथा वृधावस्था में पुत्र उसकी रक्षा करता है. इस प्रकार स्त्री कभी भी स्वतंत्रता की अधिकारिणी नहीं है. स्त्रियों के चाल ढाल में ज़रा भी विकार आने पर उसका निराकरण करना चाहिये. क्योंकि बिना परवाह किये स्वतंत्र छोड़ देने पर स्त्रियां दोनों कुलों (पति व पिता) के लिए दुखदायी सिद्ध हो सकती है.”

लैंगिक स्तर पर महिलाओं को पुरुषों से नीचा बताना और जातीय स्तर पर दलितों को अन्य व्यक्तियों से नीचा बताने के आरोप भी मनुस्मृति पर लगते रहे हैं. मनुस्मृति के हवाले से ऐसी तमाम बातें कही जाती हैं जिनमें ब्राह्मणों को सभी जातियों से श्रेष्ठ और शूद्रों को सबसे नीचे बताया गया है. जैसे- “जिस देश का राजा शूद्र अर्थात पिछड़े वर्ग का हो, उस देश में ब्राह्मण निवास न करें क्योंकि शूद्रों को राजा बनने का अधिकार नही है. जिस राजा के यहां शूद्र न्यायाधीश होता है उस राजा का देश कीचड़ में धंसी हुई गाय की भांति दुःख पाता है, ब्राह्मणों की सेवा करना ही शूद्रों का मुख्य कर्म है, इसके अतिरक्त शूद्र जो कुछ करता है उसका कर्म निष्फल होता है, यदि कोई शूद्र किसी द्विज को गाली देता है तब उसकी जीभ काट देनी चाहिए, निम्न कुल में पैदा कोई भी व्यक्ति यदि अपने से श्रेष्ठ वर्ण के व्यक्ति के साथ मारपीट करे और उसे क्षति पहुंचाए तो उसका क्षति के अनुपात में अंग कटवा दिया जाए. ब्रह्मा ने शूद्रों के लिए एक मात्र कर्म निश्चित किया है, वह है– गुणगान करते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करना. ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने से और वेद के धारण करने से धर्मानुसार ब्राह्मण ही सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी है, शूद्र को भोजन के लिए जूठा अन्न, पहनने को पुराने वस्त्र, बिछाने के लिए धान का पुआल और फटे पुराने वस्त्र देना चाहिए, शूद्रों को बुद्धि नही देना चाहिए अर्थात उन्हें शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार नही है. शूद्रों को धर्म और व्रत का उपदेश न करें…’

मनुस्मृति में लिखी ऐसी ही तमाम बातों के चलते सालों से इस ग्रन्थ का विरोध होता आया है. 25 दिसंबर, 1927 के दिन डॉक्टर भीम राव आम्बेडकर ने भी इन्हीं कारणों के चलते महाराष्ट्र में मनुस्मृति का विरोध करते हुए इसे को सार्वजनिक रूप से जलाया था. लेकिन यह विरोधाभास ही है कि उन्हीं बाबा साहब आम्बेडकर के बनाए संविधान से चलने वाले एक भारतीय न्यायालय में आज मनु की मूर्ति लगा दी गई है. संविधान के कई विशेषज्ञ इस मूर्ति के वहां होने का इसलिए भी विरोध करते हैं.

प्रख्यात कानूनविद और नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (नालसर) के कुलपति प्रोफेसर फैजान मुस्तफा इस बारे में कहते हैं, “मनु एक महान कानूनविद हैं. विधि के एक महान स्कॉलर के रूप में मैं उनका सम्मान करता हूं और उनकी प्रतिभा संदेह से परे है. लेकिन उनका कानून वर्गों पर आधारित था, वह कुछ वर्गों को कुछ अन्य वर्गों से श्रेष्ठ बताता था और हमारा संविधान मनु की इन बातों से इत्तेफाक नहीं रखता. भारतीय संविधान में छुआछूत को हटाने की बात मौलिक अधिकारों में ही कर दी गई है, यहां समानता की बात और जाति या लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव को मिटाने की बात भी मौलिक अधिकारों में की गई है. इस लिहाज से मनु हमारे संविधान की अवधारणा से मेल नहीं खाते. उनकी मूर्ति किसी भी न्यायालय में होना संविधान-सम्मत नहीं लगता.”

वैसे मनु की पैरवी करने वाले कई लोग यह भी तर्क देते हैं कि मनुस्मृति के मूल स्वरुप में ये सारी बातें नहीं लिखी गई हैं और इन्हें संभवतः बाद में जोड़ दिया गया है. इन लोगों का मानना है कि चूंकि आज मनुस्मृति की कोई भी मूल या प्रमाणित प्रति उपलब्ध नहीं है, लिहाजा यह नहीं कहा जा सकता मनुस्मृति में मूल रूप से महिला या दलित विरोधी बातें मौजूद थी. ऐसे तर्कों के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार और दलित चिन्तक दिलीप मंडल कहते हैं, “जिस ग्रन्थ की मूल या प्रमाणित प्रति मौजूद ही न हो और लोकमानस में जिसकी प्रचलित व्याख्या महिला और दलित विरोधी ही हो, ऐसे ग्रन्थ को स्वीकारना और ऐसे ग्रन्थ को लिखने वाले की मूर्ति एक उच्च न्यायालय में लगाना कैसे सही हो सकता है.”

दिलीप मंडल आगे कहते हैं, “बाबा साहब ने सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति को जलाया था. इसके बाद भी हमने उन्हें ही हमारा संविधान लिखने के लिए चुना. हमारा संविधान मनुस्मृति की बातों को जगह-जगह गलत ठहरता है. संविधान हाशिये के लोगों को विशेषाधिकार देने की बात करता है जबकि मनुस्मृति इसके उलट बात करती है. वह शक्तिशाली लोगों को विशेषाधिकार देने की बात करती है. वह दलितों और महिलाओं को पीटने को जायज़ ठहराता है. ऐसे ग्रन्थ को लिखने का श्रेय जिसे दिया जाता है, उसकी मूर्ति न्यायालय में होना साफ़ तौर से संविधान के खिलाफ है.”

जयपुर हाईकोर्ट में मनु की मूर्ति लगाए जाने को कुछ संविधान विशेषज्ञ मात्र एक प्रशासनिक फैसले के तौर पर भी देखते हैं. संविधानविद सुभाष कश्यप इस बारे में कहते हैं, “हाईकोर्ट में किसी की भी मूर्ति का होना एक प्रशासनिक फैसला है. यह जयपुर हाईकोर्ट के जजों को प्रशासनिक आधार पर तय करना चाहिए कि ये मूर्ति वहां रहे या नहीं. इसका संविधान से कोई लेना-देना नहीं है.”

लेकिन फैजान मुस्तफा इस तर्क से इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, “ये सिर्फ एक प्रशासनिक मसला नहीं है. यह मूर्ति टाउन हॉल में लगे किसी को आपत्ति नहीं होगी. लेकिन हाईकोर्ट में न्याय दिया जाता है. वहां सब बराबर होते हैं. जिस व्यक्ति की विचारधारा को हमारे संविधान ने नकार दिया उनकी मूर्ति हाईकोर्ट में कैसे हो सकती है.”

फैजान मुस्तफा आगे कहते हैं, “मूर्तियां सिर्फ एक आकार ही नहीं होती बल्कि उनके पीछे प्रेरणा भी होती है. क्या कोई हाईकोर्ट मनु से प्रेरणा लेकर चल सकता है?” सुप्रीम कोर्ट के वकील अमन हिंगोरानी भी इस मसले पर लगभग ऐसी ही राय रखते हुए कहते है, “कोर्ट किसी भी एक धर्म, जाति, भाषा समूह के साथ खड़ा नहीं होता. वह सबके लिए बराबर होता है. हमारा संविधान धर्मनिरपेक्षता की बात कहता है और न्यायालयों का काम इस बात को सुनिश्चित करना है. लिहाजा वहां मनु की ही नहीं बल्कि ऐसी कोई भी मूर्ति नहीं होनी चाहिए जो किसी एक वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करती हो.”
संविधान के तमाम जानकारों का मानना है कि एक न्यायालय में मनु की मूर्ति होना किसी भी तरह से संविधान के अनुरूप नहीं है. इसके बावजूद भी यह मूर्ति पिछले  सालों से जयपुर हाईकोर्ट में क्यों है और इस पर कोई भी फैसला आज तक क्यों नहीं लिया जा सका? इस सवाल के जवाब में जयपुर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष अनिल उपमन कहते हैं, “ये एक संवेदनशील मुद्दा बन गया है. जैसे राम मंदिर का मुद्दा कई सालों से लंबित है ऐसे ही यह मुद्दा भी है.”

कुछ साल पहले जयपुर हाईकोर्ट में इस मामले पर सुनवाई शुरू हुई भी थी लेकिन यहां के वकीलों ने ही इस पर इतना हंगामा किया कि यह सुनवाई टालनी पड़ी. इसके बाद से यह मामला एक बार फिर ठंडे बस्ते में जा चुका है. न्यायालय इस मूर्ति पर कोई भी फैसला लेने से बच रहे हैं लेकिन इस पर राजनीति लगातार जारी है. कभी इस मूर्ति पर एक वर्ग कालिख पोत देता है तो दूसरा वर्ग इसे दूध से नहला देता है.

जयपुर हाईकोर्ट में लगी मनु की यह मूर्ति हमारी न्याय व्यवस्था के बारे में भी काफी कुछ बयान करती है. जिस मनु के सिद्धांतों को हमारे संविधान ने पूरी तरह से नकार दिया, उसकी मूर्ति आज राजस्थान हाईकोर्ट परिसर में लगी है और न्यायालय 29 सालों से इस पर कोई निर्णय ले पाने में लाचार है.
इतने सालों में कोर्ट यही फैसला नहीं ले सका है कि उसके लिए भारतीय संविधान ज्यादा पवित्र है या मनुस्मृति?

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