‘गांधी के पास राष्ट्र था, वाद नहीं’

न्यूज़लॉन्ड्री हिंदी की पहली सालगिरह के मौके पर आयोजित विशेष परिचर्चा में गांधी और आरएसएस की राष्ट्ररवाद की परिकल्पना और उसके विरोधाभासों पर हुई चर्चा.

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2 अक्टूबर यानि गांधी जयंती के दिन न्यूज़लॉन्ड्री हिन्दी के एक साल पूरे हो गए. इस मौके पर न्यूज़लॉन्ड्री हिन्दी ने “गांधी का राष्ट्रवाद बनाम संघ का राष्ट्रवाद” विषय पर एक विशेष परिचर्चा कार्यक्रम का आयोजन किया. कार्यक्रम का संचालन एनडीटीवी इंडिया की पत्रकार और एंकर नगमा शहर ने किया. इस कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रूप में कुमार प्रशांत (अध्यक्ष, गांधी शांति प्रतिष्ठान) और अजय उपाध्याय (नेता, स्वदेशी जागरण मंच) रहे.

कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए न्यूज़लॉन्ड्री के एक्ज़क्यूटिव एडिटर अतुल चौरसिया ने कहा कि महात्मा गांधी के राष्ट्रवाद की झलक उनकी पुस्तक “हिन्द स्वराज” में मिलती है. साथ ही 1930 के दशक में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से किए गए पत्र व्यवहार में भी गांधी के राष्ट्रवाद की संकल्पना ज़ाहिर होती है. आगे उन्होंने कहा, “गांधी ने जिस राष्ट्रवाद की बात हिन्द स्वराज में की थी, वह विविधताओं को समेटने की बात करता था. उसमें सामूहिकता, धर्मनिरपेक्षता का समागम था. लेकिन आज का राष्ट्रवाद पूरी तरह से “एक” के पीछे घूम रहा है. एक भाषा, एक बोली, एक पहनावा, एक ही संस्कृति पर जोर दिया जा रहा है. जो सीधा-सीधा यूरोपियन राष्ट्रवाद से प्रेरित दिखता है. और यह साफ दिखाई देता है कि गांधी और आज के राष्ट्रवाद में द्वन्द्व है.”

चर्चा में गांधीवाद पर बोलते हुए कुमार प्रशांत ने कहा कि गांधी के पास राष्ट्रवाद शब्द नहीं है, जो है वह है राष्ट्र. 1946 में गांधी और जिन्ना के विभाजन पर हुए वार्तालाप का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि जिन्ना ने जब उन्हें केवल हिन्दू राष्ट्र के प्रतिनिधि होकर बात करने को कहा तब गांधी ने साफ शब्दों में जवाब देते हुए कहा कि मैंने जो जीवन भर साधना की है, वह आपसे बातचीत करने के लिए मिटा दूं, यह नहीं हो सकता. इसके बाद कभी जिन्ना और गांधी की बात नहीं हुई.

प्रशांत ने वाद शब्द पर रोशनी डालते हुए बात जारी रखी कि वाद एक बंधा हुआ चौखट है, जिसके अंदर आप हर चीज को बांध कर रखना चाहते हैं. वाद जितना मजबूत होगा, वह उतनी आसानी से फ़ासीवाद में बदल जाएगा. गांधी के राष्ट्र की जो कसौटी है, वह राष्ट्र के लोग हैं, आम आदमी हैं. उसमें कोई भेदभाव नहीं है. लेकिन राष्ट्रवाद की पश्चिमी अवधारणा किसी न किसी चौखट में डालती रहेगी. फिर चाहे वह धर्म हो, जाति हो या फिर भाषा.

अपनी बात समाप्त करते हुए प्रशांत कुमार ने कहा कहा कि जो गांधी के राष्ट्रवाद से विपरीत राष्ट्रवाद खेल रहे हैं, वह दरअसल वही राष्ट्रवाद खेल रहे हैं, जो जिन्ना ने खेला था.

संघ के राष्ट्रवाद का स्वरूप समझाते हुए अजय उपाध्याय ने कहा कि भारत में संघ ने सदैव गांधी के राष्ट्रवाद को माना है. भारत न तो वाद की जगह है, न इज़्म की जगह है और न ही विवाद की जगह है. बल्कि भारत एक राष्ट्र की जगह है. हमारी राष्ट्रीयता भारत माता है. यह जाति, धर्म, उच्च-नीच, लिंगभेद, धनबहुलता और क्षेत्रीयता से नहीं पोषित है.

उपाध्याय ने आगे बताया कि यदि भारत माता से माता हटा दिया जाये तो भारत एक भूखंड रह जाएगा. यूरोप की तरह मिटता-टूटता चला जाएगा. हिन्द स्वराज से गांधी को उद्धृत करते हुए अजय उपाध्याय ने कहा कि रोम, यूनान और ग्रीस मिट गया और केवल इसलिए क्योंकि उनके यहां एक आत्मा नहीं घूमती थी. वह आत्मा जिसे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्र की आत्मा कहा है.

आगे उन्होने कहा कि डॉ. हेडगवार ने 1920 में जब नागपुर कांग्रेस कमेटी की बैठक हुई, जिसमें वह सचिव थे, एक प्रस्ताव बनाया कि कांग्रेस के दो ध्येय होने चाहिए- पहला भारत को स्वतंत्र करते हुए गणतन्त्र कि स्थापना होनी चाहिए. दूसरा कि विश्व के समस्त देशों को पूंजीवाद से मुक्ति दिलाना है. यह बात तब की है जब राष्ट्रीय सेवक संघ का जन्म भी नहीं हुआ था. उन्होंने साफ-साफ कहा कि संघ किसी इज्म ने नहीं फंसा है और न ही उसने कभी भेदभाव किया है. लेकिन यह बात जरूर है, जब भी वंदे मातरम का उद्घोष होगा और कुछ लोग यहां से निकल जायेंगे, तब हम उन्हें कहेंगे कि वह देशभक्त नहीं हैं.

आख़िर में उन्होने अपना निष्कर्ष देते हुए कहा कि देश में 21वीं सदी में भी जाति, रंग, आय आदि के आधार पर भेदभाव व्याप्त है. इसका बहिष्कार करना होगा. प. दीनदयाल उपाध्याय ने जिस राष्ट्र की कल्पना की थी, जिसमें वह अपना नवराष्ट्रवाद खड़ा करते, उसमें किसी भी तरह का भेदभाव नहीं होगा. और आज यह राष्ट्रवाद जमीन पर उतरता दिखाई दे रहा है.

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