पार्ट-3: वह दौर जिसमें हिंदी पत्रकारिता का शब्द सौष्ठव निर्मित हुआ

बनारस से शुरू हुआ 'आज' आधुनिक हिंदी की प्रयोगशाला बना, जिसने हिंदी पत्रकारिता के अनगिनत लोकप्रिय शब्द, व्याकरण और शब्द-शिल्प को गढ़ा.

WrittenBy:आनंद वर्धन
Date:
Article image

नई सदी में हिंदी की विकास-यात्रा की गति को उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में स्थापित नागरी प्रचारिणी सभा से काफ़ी बल मिला. भारतेन्दु काल और आने वाली शताब्दी में हिंदी के प्रचार-प्रसार की महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में नागरी प्रचारिणी सभा 1893 में वाराणसी के क्वीन्स कॉलेज में गठित हुई. समय के साथ यह एक ऐसा संगठन बना जिसने न केवल देवनागरी लिपि की व्यापक प्रशासनिक और शैक्षणिक स्वीकृति के लिए निरंतर काम किया बल्कि हिंदी के व्याकरण, शब्दकोष उसकी साहित्यिक निधि को संजोने और विकसित करने के लिए भी प्रयास करता रहा. प्रकाशन के क्षेत्र में इसका योगदान बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में हिंदी की सबसे प्रभावशाली पत्रिका सरस्वती को स्थापित करने में इसकी सक्रियता दिखी.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

इलाहाबाद में प्रतिष्ठित प्रकाशन समूह इंडियन प्रेस के मालिक चिंतामणि घोष ने हिंदी में एक उत्कृष्ट साहित्यिक पत्रिका प्रकाशित करने का प्रस्ताव रखा और उन्हें नागरी प्रचारिणी सभा ने प्रोत्साहित किया. जनवरी 1900 से प्रकाशन शुरू होने के तीन साल बाद सरस्वती को महाबीर प्रसाद द्विवेदी के रूप में एक ऐसा संपादक मिला जिसके योगदान को हिंदी भाषा और साहित्य के द्विवेदी युग के रूप में जाना जाता है.

भाषाविद् बच्चन सिंह (आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, 2003) के अनुसार 1930 से संपादन का दायित्व संभालने वाले आचार्य द्विवेदी ने सरस्वती को खड़ी बोली में लिखी जाने वाली श्रेष्ठ गद्य और पद्य की स्थाई जमीन बनाया. इसी प्रक्रिया में सरस्वती न केवल हिंदी में साहित्य आलोचना और लघुकथा जैसी विधाओं की जननी बनी बल्कि खड़ी बोली के व्याकरण और प्रयोग-नियमों को भी सुदृढ़ किया. ब्रैकेट के ज़रिए वैज्ञानिक शब्दों का अनुवाद और हिंदी में ऐसे शब्दों का विकास भी सरस्वती की संपादन-शैली की पहचान बनी.

उस समय के उभरते लेखकों, जैसे प्रेमचंद और कवियों, जैसे मैथिलीशरण गुप्त की कृतियों को सरस्वती में जगह मिलती रही. 1903 में प्रेमचंद स्वयं हंस नामक साहित्यिक पत्रिका के संस्थापक संपादक बने लेकिन 1936 में उनकी मृत्यु के साथ यह पत्रिका भी बंद हो गयी. 50 वर्षों बाद राजेंद्र यादव ने 1986 में हंस को पुनर्जीवित किया.  इलाहाबाद विश्वविद्यालय की साहित्यिक दीर्घाओं, नए लेखन शैली की ओर रुझान और द्विवेदीजी के सम्पादकीय नेतृत्व के मिश्रित प्रभाव से सरस्वती खड़ी बोली को स्पष्ट आकर दे रही थी. सरस्वती की हिंदी में अवधी और ब्रज के लिए जगह नहीं थी, वह खड़ी बोली की बहुआयामी उपयोगिता से प्रेरित थी. सरस्वती की भाषा में तत्सम शब्दों के अधिक प्रयोग से संस्कृत को अभिव्यक्ति में विशेष जगह मिली.

इस सन्दर्भ में अवधी और ब्रज को सरस्वती में जगह नहीं मिलने से नाराज़ भाषाविद और ब्रिटिश सरकार में अधिकारी जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन और संपादक आचार्य द्विवेदी के बीच पत्राचार रोचक है.

ग्रियर्सन के ऐसे ही एक पत्र के जवाब में, जिसमें उन्होंने हिंदी साहित्य में अवधी और ब्रज की सिकुड़ती भूमिका पर चिंता व्यक्त की थी, द्विवेदी जी ने लिखा, “हम हिंदी बोलते है और यह उचित रहेगा कि हम इसी भाषा में कविता लिखे. सूरदास, बिहारी और केशव का युग अब हिंदी का अतीत हो चुका है. हमें वर्तमान काल की जरूरतों के अनुसार अपने को ढालना होगा. ऐसा प्रतीत होता है कि आप आधुनिक हिंदी के साहित्य से परिचित नहीं हैं. मुझे यह विश्‍वास है कि आने वाले 20 वर्षों में ब्रज या अवधी में हिंदी कविता का एक छंद भी नहीं लिखा जाएगा. मैं सरस्वती के साथ आपको कन्याकुंज पत्रिका के दो संस्करणों की प्रतियां भेज रहा हूं. दोनों में खड़ी बोली की कविताएं हैं जिनके लिए, महिलाएं समेत, प्रशंसा के कई पत्र मिले हैं.”

महावीर प्रसाद द्विवेदी के साथ सरस्वती के सम्पादकीय नेतृत्व में श्रीनाथ सिंह और देवीदत्त शुक्ल जैसे सम्पादकों का भी योगदान रहा.

इसी बीच नागरी प्रचारिणी सभा की पहल पर हिंदी भाषा और साहित्य के प्रचार और प्रसार के उद्देश्य से हिंदी साहित्य सम्मेलन का आयोजन 1910 में मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में हुआ. हालांकि पहला सम्मेलन तो वाराणसी में हुआ, 1911 में जब यह इलाहाबाद में आयोजित हुआ तो एक संस्थान का रूप लेकर इलाहाबाद इसका मुख्यालय हो गया और इसकी देशव्यापी शाखाएं फैलती गईं तत्कालीन इलाहाबाद विश्वविद्यालय की साहित्यिक अभिरुचियों से भी इसे बहुत बल मिला. उस दौर में इलाहाबाद हिंदी के कई महान लेखकों और कवियों का गढ़ रहा.

फिर भी सबसे महत्वपूर्ण रुझान था हिंदी को राष्ट्रीय आंदोलन की चेतना से जोड़ना. हिंदी साहित्य सम्मेलन के इस प्रयास को महात्मा गांधी की उपस्थिति ने प्रोत्साहित किया. महात्मा गांधी 1918 और 1935 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति भी बने. अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज (1909) के बाद इन संस्थागत आयोजनों में गांधी उस विचारधारा के साथ दिखे जो बहुभाषीय भारत में हिंदी को एक संपर्क-सूत्र के रूप में विकसित करने की संभावनाएं टटोल रही थी.

एक ओर जहां हिंदी की अहमियत व्यावहारिक तर्क और समावेशी राष्ट्रवाद से प्रेरित व्यापक दृष्टि थी, वहीं उसका वो रूप भी दिखा जिसमें हिंदी को एक आराध्या के रूप में महिमामंडित किया जाने लगा. नवंबर 2001 में इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में प्रकाशित लेख में प्रोफेसर चारु गुप्ता ने इन दशकों में हिंदी को देवी के रूप में सामने रखने की प्रवृति का विश्लेषण किया है. इस प्रवृति की अभिव्यक्ति सरल काव्यात्मक नारों में भी गयी, जैसे 1922 में राष्ट्रीय मुरली में प्रकाशित ये पंक्तियां: “हम हिंदी तन हैं, हिंदी माता हमारी/ भाषा हम सबकी हिंदी है, आशा हम सबकी एक मात्र हिंदी है/ भारत की तो प्राण यही हिंदी है.”

स्वरुप कुछ भी हो, इस काल में हिंदी की महत्वाकांक्षा दो अलग-अलग दिशा में थी. एक तरफ तो हिंदी उत्तर, मध्य, और पूर्वी भारत के कुछ हिस्सों की जनभाषा बनना चाहती थी, दूसरी तरफ वो राष्ट्रीय बौद्धिक जीवन में संवाद के लिए प्रबुद्ध भाषा के रूप में उभारना चाहती थी. हिंदी समाचार पत्रकारिता में ये दोनों रूप दिखे.

1913 से पहले एक साप्ताहिक और बाद में एक दैनिक के तौर पर प्रकाशित होने वाली प्रताप में जनभाषा की प्रबलता थी. आम बोलचाल की भाषा में सम्पादकीय शैली को संथापक-संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी ने विकसित किया. क्षेत्रीय बोलियों को भी इसमें जगह मिली. हालांकि विद्यार्थीजी ने प्रभा  नामक साहित्यिक पत्रिका का भी संपादन इसके साथ-साथ किया, प्रताप की छवि हमेशा जनभाषा के अख़बार के रूप में बनी रही.

हिंदी समाचार पत्रकारिता का आधुनिक हिंदी पर सबसे बड़ा प्रभाव सात वर्ष बाद आया. अजमतगढ़ के पूर्व शासक और क्षेत्र के अमीर ज़मींदार शिवप्रसाद गुप्ता राष्ट्रीय आंदोलन में कांग्रेस पार्टी से समीपता के कारण जुड़े हुए थे. महात्मा गांधी समेत राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के कई कार्यक्रमों का उन्होंने वित्तीय दायित्व अपने कंधों पर लिया. 1920 में अपने विश्व-यात्रा से लौटने के बाद लंदन से प्रकशित टाइम्स अख़बार से वो काफी प्रभावित हुए. उनकी इच्छा राष्ट्रीय आंदोलन के ख़बरों और उससे जुड़े विचारों को व्यापक जनता तक पहुंचने वाले एक अख़बार को स्थापित करने की थी.

इसका परिणाम 6 सितम्बर 1920 से अपनी यात्रा शुरू करने वाले आज  दैनिक अखबार के रूप में दिखा. इसके संपादन के लिए बाबूराव विष्णु पराड़कर को चुना गया जो ब्रिटिश सरकार विरोधी क्रन्तिकारी होने के साथ-साथ एक विद्वान भी थे. पराड़कर हितवर्ती (हिंदी संस्करण) और भारत मित्र जैसे अखबारों में पत्रकारिता का भी अनुभव रखते थे. लेकिन उनके साथ-साथ बाबू श्रीप्रकाश को प्रधान संपादक बनाया गया. इसका  कारण था रायटर्स समाचार-एजेंसी की सेवाओं का उपयोग कर यूरोप तथा पूरे विश्व की खबरें आज में प्रकाशित करना जिससे पाठकों को अंग्रेजी अख़बार पढ़ने की जरूरत न रहे. 1924 में श्रीप्रकाश के जाने के बाद पराड़कर, आर खाडिलकर के साथ, अगले 30 वर्षों तक आज के सम्पादकीय नेतृत्व के पर्याय हो गए.

लक्ष्मीशंकर व्यास (पराड़करजी और पत्रकारिता,  भारतीय ज्ञानपीठ, 1960) और शेवंती नाइनन (हेडलाइंस फ्रॉम द हार्टलैंड, सेज,2007) ने ऐसे कई आयामों और प्रसंगों का उल्लेख किया है जिसमें हिंदी में समाचार पत्रकारिता की भाषा विकसित करने में आज अखबार और पराड़कर की भूमिका की केन्द्रीयता दिखती है.

न्यूयॉर्क टाइम्स की आचार-संहिता से प्रेरित आज  के सम्पादकीय मूल्यों की बात करें तो यह साहित्यिक पत्रकारिता से अलग समाचार-पत्रकारिता के लिए हिंदी को एक नयी दिशा देने का भी प्रयास था. आज आधुनिक हिंदी की प्रयोगशाला बनी, जिसने न केवल नाम के पहले श्री लगाना और राष्ट्रपति जैसे शब्दों को लोकप्रिय किया, बल्कि इसके दफ्तर में व्याकरण और शब्द-शिल्प की बारीकियों पर निरंतर संवाद होता था. किन वाक्यों में संज्ञा के बाद ‘को’ आना चाहिए जैसे बहस या फिर अख़बार के मालिक शिवप्रसाद गुप्त की यह जिज्ञाषा की अंग्रेजी शब्द माइन के लिए ‘सुरंग’ कितना उपयुक्त है जबकि इसके और अर्थ भी हो सकते हैं.

पराड़कर स्वयं हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में देखते थे. उन्होंने हिंदी को समृद्ध करने के लिए अन्य भारतीय भाषाओं से करीब 200 शब्द लिए जो आज  में प्रयोग होते थे.

हिंदी पत्रकारिता की भाषा विकसित करने के लिए आज कितना गंभीर था इसका अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है की अखबार ने ज्ञान मंडल नामक एक ट्रस्ट का गठन किया. इस ट्रस्ट का दायित्व पत्रकारिता-उपयुक्त शब्दावली विकसित करना और देवनागरी फोंट्स पर अनुसन्धान करना था. खाडिलकर ने हिंदी अखबारों को उपयुक्त वैज्ञानिक शब्द दिए और आर्थिक पत्रकारिता में प्रयोग होने वाले भी कई शब्द आज से ही जन्मे, जैसे मुद्रास्फीति. ऐसा नहीं है की पराड़कर केवल प्रबुद्ध भाषा की सराहना करते थे. उन्होंने प्रेमचंद की कई लघु-कथाएं आज में प्रकाशित की और उनका ये मानना था कि प्रेमचंद ने हिंदी को आम लोगों तक पहुंचाया.

उसी दौर में एक और प्रवृति बहस का मुद्दा बनी. हिंदी पत्रकारिता की एक धारा ने हिंदी में संस्कृत को प्रबल करते हुए, उर्दू और फ़ारसी के शब्दों कि छंटनी शुरू की, उससे जुड़े ध्वनियों और प्रतीकों की भी. जैसे 1930 में स्थापित अभ्युदय में सम्पादकीय लिखते हुए मदन मोहन मालवीय ने पूछा- “हिंदी में बिंदी क्यों?” कुछ लेखकों, जैसे अमृत राय (हिंदी नेशनलिज्म, ओरिएंट लोंगमेन, 2000) के अनुसार इसमें हिंदी राष्ट्रवाद के बीज थे.

1930 और 1940 वह दशक भी था जब हिंदी में ऐसे अखबार प्रकाशित होने शुरू हुए जो स्वतंत्र भारत में बड़े अखबार बन गए. 1936 में हिन्दुस्तान टाइम्स समूह ने हिंदी में हिन्दुस्तान प्रकाशित करना शुरू किया तो 1942 में दैनिक जागरण का प्रकाशन झांसी से आरम्भ हुआ.

स्वतंत्र भारत में हिंदी को राष्ट्र भषा की संवैधानिक स्वीकृति तो नहीं मिली लेकिन यह राजभाषा के रूप में स्वीकार की गयी. इसके बाद हिंदी की यात्रा में पत्रकारिता का क्या योगदान रहा- राष्ट्रवादी, संस्कृत-प्रेरित शुद्धता की प्रबलता या फिर जनभाषा की सहजता या फिर इन सबका मिश्रित रूप? इससे भी महत्वपूर्ण बात ये की पिछले लगभग तीन दशकों  में आर्थिक उदारीकरण और खगौलीकरण के प्रभावों से गुजरती हिंदी पत्रकारिता ने हिंदी पर क्या असर डाला? ऐसे ही कुछ सवालों पर हम इस श्रृंखला के अंतिम भाग में चर्चा करेंगे. 

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like