एडल्टरी क़ानून: स्त्री-पुरुष समीकरण में दीर्घकालिक बदलाव का बायस

इस फ़ैसले ने क़ानूनी और संवैधानिक तौर पर एक सेक्स (पुरुष) की दूसरे सेक्स (स्त्री) पर संप्रभुता–सत्ता-प्रभुत्व को बड़े ही कलात्मक तरीके से ख़ारिज कर दिया है.

WrittenBy:स्वाति अर्जुन
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भारत की सर्वोच्च अदालत ने एक ही महीने में लगातार दूसरी बार देश के सामाजिक ताने-बाने को बदलने वाला अभूतपूर्व फ़ैसला सुनाया है. पहला फैसला जहां समलैंगिक जोड़ों के बीच रिश्तों को कानूनी मान्यता देता है, तो दूसरा फैसला एडल्टरी यानि शादी से बाहर किसी अन्य पुरुष या महिला के बीच पनपे यौन संबंध को अपराध मानने से इंकार करता है.

जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंगटन नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदू मल्होत्रा की खंडपीठ ने अपने अलग-अलग लिखे फैसलों में एकमत से एडल्टरी की क़ानूनी वैधता को ख़ारिज कर दिया है. कोर्ट का फैसला आने के साथ ही इस-पर बहस भी शुरू हो गई है, इस बात को बिना जाने-समझे कि 157 साल पुराने इस कानून को बदलने या फिर ख़त्म करने की ज़रूरत हमारी ज्यूडिशियरी को क्यों लगी?

तक़रीबन डेढ़ सौ साल पहले 1860 में बने जिस कानून को कोर्ट ने निरस्त किया है उसे आईपीसी की धारा 497 में परिभाषित किया गया है. यह धारा कहती है- “अगर कोई पुरुष किसी दूसरी शादीशुदा औरत के साथ उसकी सहमति से शारीरिक संबंध बनाता है, तो उस औरत का पति क़ानून की शरण में जा सकता है और दूसरे पुरुष को एडल्टरी क़ानून के तहत सज़ा दिलवा सकता है. दोषी साबित होने पर उसे पांच साल की क़ैद और जुर्माना या फिर दोनों ही सज़ाएं दी जा सकती हैं.”

यही क़ानून एक और बात कहता है- “अगर कोई शादीशुदा मर्द किसी कुंवारी या विधवा औरत से शारीरिक संबंध बनाता है तो वह एडल्टरी के तहत दोषी नहीं माना जा सकता. (यानि विधवा या कुंवारी औरत का कोई मालिक न होने के कारण वो सर्वसुलभ थी, और जिस औरत का पति मौजूद है वहां वो उसकी यौन रुचियों को नियंत्रित करने का अधिकार उसके पति के हाथ में हैं).

पुराने क़ानून में ये भी कहा गया था कि “स्त्रियां कभी किसी पुरुष को उकसाती ही नहीं हैं, ना ही वो विवाह के बाद किसी अन्य के साथ संबंध की शुरुआत करती हैं.” इसी तर्क को आधार बनाकर इस क़ानून के तहत स्त्रियों को एडल्टरी का दोषी नहीं माना जाता था. ज़ाहिर है, इस लिहाज़ से धारा 497 स्त्रियों के पक्ष में ही था. लेकिन यह क़ानून अपने आप में एकतरफा और भेदभाव भरा भी था. क्योंकि विवाहेत्तर संबंधों का अस्तित्व हमारे देश में या कहें कि दुनिया के किसी भी समाज में उतना ही पुराना है जितना स्त्री-पुरुष का संबंध. हमारा इतिहास इस तरह की कहानियों से भरा पड़ा है. पौराणिक और लोककथाओं में ऐसे संबंधों को विविध विधियों से दर्शाया गया है.

समाज में व्यभिचार का बोलबाला हो जाएगा, सामाजिकता समाप्त हो जाएगी जैसे तर्कों के आधार पर जो लोग इस ताज़ा फ़ैसले का विरोध कर रहे हैं, उन्हें असल में ख़ुश होना चाहिए, क्योंकि अब पहली बार ऐसा होगा कि रिश्ता चलाने से लेकर बिगाड़ने तक की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ एक पर नहीं बल्कि दोनों यानि पति और पत्नी पर आ गई है. धारा 497 के तहत दिक्कत ये थी, कि उसने ये मान लिया था कि स्त्री की भूमिका सिर्फ सेक्स के लिए सहमति देने तक ही सीमित थी. यह क़ानून इस बात पर विचार ही नहीं करता था कि इस सहमति में स्त्री का मन और इच्छा भी शामिल हो सकती है. इस सच को स्वीकार करने में हमारी व्यवस्था और समाज को काफी लंबा वक्त़ लग गया. यह सच स्वीकारने में हमें डेढ़ सौ साल लग गए कि शादी-सेक्स-इच्छा और मर्ज़ी के बीच एक महीन सी रेखा है, जो ज़रूरी नहीं है कि हर तयशुदा वैवाहिक बंधन में मौजूद हो ही.

पांचों जजों की खंडपीठ ने साफ़ तौर पर कहा कि एडल्टरी या परस्त्रीगमन या विवाहेत्तर संबंध (एडल्टरी के लिए व्यभिचार के अलावा इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द भी हैं) के आधार पर एक सिविल केस बन सकता है, इसके आधार पर तलाक़ लिया जा सकता है, लेकिन यह अपराध या जुर्म नहीं है.

जो डर आज तमाम लोगों को है कि शादी की संस्था टूटने या उसकी पवित्रता को बरकरार रखना नामुमकिन हो जाएगा, वही डर एक साल पहले केंद्र सरकार को भी हुई थी. उसने सुप्रीम कोर्ट से गुज़ारिश करते हुए कहा था कि विवाह की संस्था को बचाए रखने, उसकी पवित्रता को बरक़रार रखने के लिए कोर्ट को एडल्टरी के खिलाफ़ सख़्त कानून लाने की ज़रूरत है, लेकिन आज जो फैसला आया है, उससे ये तय हुआ कि कानून की इस मसले पर राय, सरकार से बहुत अलग है.

भारत की सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में जो कहा उसे आसान शब्दों में ‘सेक्सुअल ऑटोनोमी’ कहते हैं, यानि महिलाओं की यौनिक स्वायत्तता. इस बात से फर्क़ नहीं पड़ता है कि वो कुंवारी है, विधवा है या शादीशुदा, उसे किसके साथ यौन व्यवहार रखना है, इसका चुनाव और फैसला दोनों ही उसका होना चाहिए, क्योंकि हम 1860 में नहीं बल्कि 2018 में रह रहे हैं. आईपीसी की धारा 497, भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करती है, जो भारत के हर नागरिक को मानवीय गरिमा और समाज में बराबरी का अधिकार देती है.

सेक्सुअल रिलेशनशिप के दौरान महिलाओं की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए जस्टिस नरीमन ने कहा, “विवाहेत्तर रिश्तों की शुरुआत हमेशा पुरुष ही करते हैं और महिलाएं पीड़ित होती हैं, ये गए समय की बात है. ये औरतों की गरिमा के खिलाफ़ तो है ही, काफी हद तक अवास्तविक भी है.”

देश का सामाजिक ताना-बाना बदल चुका है, इसकी ख़बर हमारी सर्वोच्च अदालत को है. जस्टिस नरीमन की बात को आगे बढ़ाते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, “व्यक्ति की स्वायत्तता देश के किसी भी नागरिक के गरिमापूर्ण जीवन का मूल सिद्धांत है. जो ऐसा नहीं करते हैं, वे एक पितृसत्तात्मक समाज की वक़ालत करेंगे.” पहले का कानून जो विवाहेत्तर संबंध रखने पर पत्नी को सज़ा से मुक्त रखता है, वहीं वो उसे इस तरह के रिश्ते में जाने वाले पति के खिलाफ़ शिकायत करने का भी अधिकार नहीं देता था.

पांचों जजों की खंडपीठ ने धारा 497 को आदिम, मनमाना और असंवैधानिक करार देते हुए कहा- “कोई भी पति, पत्नी का मालिक नहीं होता है कि उसे अपना ग़ुलाम समझे, उन्हें पत्नियों के साथ बराबरी का बर्ताव करना चाहिए. और ऐसा कानून जो महिलाओं की यौनिकता को कंट्रोल करने की बात करता हो, वो उनके नागरिक अधिकारों और संप्रभुता का हनन करता है.”

साफ़ है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले के साथ शादी जैसी पुरातन और हमारे देश के सबसे मूलभूत सामाजिक ढांचे पर प्रहार किया है, जिसका विरोध स्वाभाविक है. लेकिन, ये भी सच है कि अदालत ने बार-बार ये बताने की कोशिश की कि वो दो व्यस्क लोगों के बीच घर की चारदिवारी के भीतर क्या होता है, उसमें घुसने की मंशा नहीं रखता है. उसकी मंशा समाज में महिलाओं को बराबरी और सम्मान का स्थान देने की ज़्यादा है.

इस पूरे मामले में जिस मुद्दे को सर्वोच्च अदालत एड्रेस करना चाहती है, वो महिलाओं की सेक्सुअल फ्रीडम है. जिसे बार-बार एडल्टरी या विवाहेत्तर संबंध समझ लिया जा रहा है. एक शादी के भीतर एडल्टरी सही है या ग़लत– ये बहस उस पर है ही नहीं, ये किन्हीं भी दो लोगों के बीच की आपसी समझदारी का मसला है (जो काफी हद तक नैतिकता और एक-दूसरे के प्रति ईमानदारी पर आधारित है).

सर्वोच्च न्यायालय ने जिस मुद्दे पर ये फैसला सुनाया है, वो महिलाओं की आज़ादी और उनकी इच्छा से जुड़ा है. ये एक पेचीदा और संवेदनशील मामला भी है कि क्या एडल्टरी और सेक्सुअल फ्रीडम एक ही चीज़ है? या क्या दोनों को अलग-अलग कर के देखा जा सकता है. क्या हम इस ताज़ा फ़ैसले को पिछले कुछ समय में देश की अदालतों द्वारा दिए गए कई फ़ैसलों के साथ जोड़ कर देख सकते हैं? जिसमें समलैंगिकों के बीच संबंधों को मान्यता देना, लिव-इन रिलेशनशिप को शादी के बराबर मान्यता देना, मर्ज़ी से प्रेमी के साथ शारीरिक संबंध को रेप न मानने जैसे कई फ़ैसले सुनाए गए हैं. क्या इन सभी फैसलों में व्यक्ति की नागरिक आज़ादी, उसकी इच्छा, उसकी यौनिक ज़रूरतों को महत्व नहीं दिया गया है? अगर हां, तो फिर सिर्फ़ शादीशुदा महिलाओं के लिए अलग मापदंड या अलग कानून क्यों होना चाहिए? क्या वे इस देश की दोयम दर्जे की नागरिक हैं, या उनका हमारे घर-समाज और देश के प्रति कोई योगदान ही नहीं है?

ये ज़रूर है कि इस फैसले का कुछ लोग ग़लत तरीके से इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगे, उससे समाज के स्थापित नियम-क़ायदों में बदलाव आ सकता है, कई नई स्थितियां पैदा होंगी– जिससे सामाजिक स्तर पर निपटना होगा. सुप्रीम कोर्ट का ये अभूतपूर्व फ़ैसला एक नए युग की शुरुआत है. ये सदियों से चल रहे स्त्री-पुरुष के संबंधों को नए सिरे से न सिर्फ़ परिभाषित करेगा बल्कि समाज में व्याप्त ‘मैन-वुमन-इक्वेशन’ को भी बदलने की क्षमता रखता है. इसके अलावा– ये सरकार, समाज और अदालतों के रिश्तों को भी नए नज़रिए से देखना-सुनना शुरू करेगा.

इस फ़ैसले ने क़ानूनी और संवैधानिक तौर पर एक सेक्स (पुरुष) की दूसरे सेक्स (स्त्री) पर संप्रभुता–सत्ता-प्रभुत्व और आधिपत्य को, बड़े ही कलात्मक तरीके से ख़ारिज कर दिया है.

इसकी आदत दोनों में से एक को अब तक नहीं थी.

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