क्या इस युग में रावण विजयी होगा?

भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर का सियासी भविष्य और भविष्य की चुनौतियां.

WrittenBy:फैसल फरीद
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पिछले एक हफ्ते से शायद ही कोई दिन ऐसा गया होगा जब सहारनपुर में भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर का ज़िक्र अखबारों में न हो. वो जेल से रिहा हो गए हैं. उनकी छवि दलितों के मसीहा के तौर पर निर्मित हुई है. पिछले शुक्रवार को चंद्रशेखर जेल से छूटे हैं और अब उनके घर पर मीडिया, नेताओं, शुभचिंतकों का जमावड़ा हैं. दिल्ली और दूसरी जगह के पत्रकार उनसे इंटरव्यू करने के लिए उनके गांव छुटमलपुर पहुंच रहे है. दूर दूर गांव और उत्तराखंड तक से लोग मिलने आ रहे हैं. मिलने का सिलसिला इतना ज्यादा हैं कि चंद्रशेखर की तबीयत भी ख़राब गई.

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रोज़ उनके बयान छप रहे हैं. पत्रकार उनकी रिहाई में राजनितिक निहितार्थ तलाश रहे हैं. दलित समाज को एक नया रोल मॉडल मिल गया हैं. उत्तर प्रदेश में आसन्न लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र सभी राजनीतिक दल अब चंद्रशेखर फैक्टर पर काम कर रहे हैं.

चंद्रशेखर के जेल से छूटने के बाद दो चीज़ें हुई हैं जो स्पष्ट दृष्टिगोचर होती हैं. चंद्रशेखर का वज़न और लोकप्रियता बढ़ गई है. दूसरा, उन्होंने अपने नाम के आगे से रावण शब्द हटा दिया हैं. पहनावा वही हैं, सफ़ेद जीन्स, नीली शर्ट, नीला अंगोछा और काला चश्मा. मूछों पर ताव देती उसकी फोटो के अब पोस्टर बन चुके हैं. चंद्रशेखर ही नहीं अब उसकी मां कमलेश देवी के साथ भी लोग अब सेल्फी ले रहे हैं. लोग उन्हें घेर कर खड़े हैं. कुछ सेल्फी लेते हैं, कुछ अपना विजिटिंग कार्ड देते हैं तो कुछ सर पर हाथ रख कर आशीर्वाद.

इन सबके बीच, चंद्रशेखर मीडिया से रूबरू होते हैं, किसी को इंटरव्यू तो किसी को बयान भी देते हैं. उनके कमरे में एक फोटो डॉ आंबेडकर की और दूसरे में कांशीराम, बाल्मीकि, फुले, बुद्ध और संत रविदास की तस्वीरें हैं.

क्या वाकई चंद्रशेखर हिंदी पट्टी की राजनीति में एक नया दलित चेहरा बन चुके हैं? क्या वो जमी-जमाई दलितों के समर्थन का दावा करने वाली बहुजन समाज पार्टी का विकल्प बन सकते हैं? अगले लोक सभा चुनाव में क्या उनका समर्थन निर्णायक होगा? क्या उनकी लोकप्रियता का मौजूदा दौर लोकसभा चुनाव तक कायम रह पायेगा? क्या चंद्रशेखर राजनीति के गर्म थपेड़े झेल पाएंगे? चंद्रशेखर की सियासत को लेकर सवाल अनगिनत हैं. लेकिन इन सारे सवालों का जवाब धीरे-धीरे सामने आएगा, फिलहाल चंद्रशेखर का, जैसे यूपी में कहते हैं : ‘भौकाल और जलवा’ टाइट हैं.

राजनीतिक असर

शुक्रवार, 14 सितम्बर, 2018 को भोर में लगभग तीन बजे चंद्रशेखर को सहारनपुर की जिला जेल से रिहा किया गया उसके एक दिन पहले से उनकी रिहाई का आदेश सोशल मीडिया पर वायरल हो गया था.

सबसे पहला और नजदीकी आंकलन ये बताता है कि चंद्रशेखर को रिहा करके भारतीय जनता पार्टी ने दलित कार्ड खेल दिया है. अब दलित वोट में सेंध लगेगी जिससे मायावती की बसपा का नुकसान होगा. चुनावी समीकरण बदलेंगे और दलित उसके पाले में आ जायेंगे. इन तमाम आशंकाओं को चंद्रशेखर ने अपने पहले ही बयान में खारिज कर दिया, ये कह कर कि वो भाजपा का 2019 में विरोध करेंगे. भीम आर्मी ने कैराना लोकसभा के उपचुनाव में भी भाजपा का विरोध किया था. कैराना लोकसभा के दो विधानसभा क्षेत्र सहारनपुर जनपद में आते हैं. ये चुनाव गठबंधन की तरफ से राष्ट्रीय लोक दल ने जीता था.

भाजपा का विरोध चंद्रशेखर की तरफ से कोई अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता. सहारनपुर के शब्बीरपुर कांड, जिसके बाद चंद्रशेखर जेल गए थे, वो मौजूदा भाजपा सरकार के कार्यकाल में ही हुआ था. स्थानीय समीकरण भी यही कहते हैं कि भाजपा को समर्थन करने से दलितों का कुछ लाभ नहीं होने वाला हैं. उसके अलावा 2 अप्रैल के भारत बंद में हुई गिरफ्तारियां, एससी / एसटी एक्ट के विरोध में सवर्णों का लामबंद होना, ये सब भाजपा के कार्यकाल में हो रहा हैं. कुछ बेहद स्थानीय वजहों पर नज़र डालेंगे तो पाएंगे कि शब्बीरपुर कांड में कई दलित अभी भी पुलिस की एकतरफा कार्रवाई झेल रहे हैं. ऐसे में भाजपा का समर्थन करने की हिमाकत वो कैसे कर सकते थे.

चंद्रशेखर ने जब बसपा सुप्रीमो मायावती से खून का रिश्ता जोड़ते हुए उनको अपनी बुआ बताया और गठबंधन का समर्थन करने की मंशा ज़ाहिर की. इस बयान के बाद सबको लगा कि अब सब कुछ उम्मीद के अनुसार, नियत दिशा में आगे बढ़ेगा. लेकिन मायावती ने इस रिश्ते को एक पल में झटक दिया. इतना ही नहीं, उन्होंने पहले भी भीम आर्मी और भाजपा की मिली भगत की तरफ इशारा किया था. सियासत की समझ रखने वाला कोई व्यक्ति यह बात आसानी से समझ सकता हैं कि अपनी राजनीतिक जमा पूंजी को बसपा इतनी आसानी से किसी को नहीं सौप सकती.

मायावती और बसपा के लिहाज से यह एक अहम मौका है. मायावती ने बिल्कुल मंझे हुए नेता की तरह भीम आर्मी को खारिज किया है, उसे बिना कोई तवज्जो दिए. क्योंकि दोनों ही पक्षों का कैचमेंट एरिया एक है. लिहाजा इसमें दो दावेदार बनने की सूरत में बसपा का ही नुकसान होना है, भीम आर्मी को जो भी हासिल होगा वह लाभ ही लाभ होगा.

ये बात सच हैं कि चंद्रशेखर का प्रभाव सहारनपुर सहित आस-पास की दलित सीटों पर हैं. लेकिन इसका चुनावी परिणाम देखना अभी बाकी है. दूसरी बात भीम आर्मी का यह प्रभाव पूरे प्रदेश में अपना असर दिखाएगा, ऐसा मानना अभी बहुत जल्दबाजी होगी. तमाम गिरावट और उठापटक के बावजूद बसपा का वोटबैंक अभी भी उसके साथ बना हुआ है. उत्तर प्रदेश में इससे पहले भी इस तरह के तमाम धूमकेतु समय-समय पर चमके और फिर बुझ गए. 2012 के विधानसभा चुनाव में गोरखपुर के डॉ अयूब भी पीस पार्टी के बैनर तले मुसलमानों के मसीहा बन कर उभरें थे. लेकिन एक चुनाव बाद ही उनका आकर्षण ख़त्म हो गया.

रही बात समाजवादी पार्टी की तो वो बसपा का चेहरा देख कर ही अपनी चाल चल रही हैं. अगर बसपा को कुछ नागवार हैं तो फिलहाल सपा वो सपने में भी नहीं सोच सकती. मतलब बसपा को नहीं पसंद तो सपा कैसे लेगी? वैसे भी सपा भीम आर्मी को साथ लेकर दलित वोट की दावेदारी करे ये हास्यापद स्थिति है. अखिलेश यादव ने यह बयान देकर, कि वे भाजपा को हराने के लिए दो कदम पीछे हटने को भी तैयार हैं, अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है. वे मायावती को किसी कीमत पर नाराज नहीं करना चाहते.

अब बची कांग्रेस. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की जो स्थिति है उसमें भीम आर्मी तो क्या उसे कहीं से भी समर्थन लेने में कोई हर्ज नहीं. वो अभी तक संभावित महागठबंधन का हिस्सा नहीं बन पाई है. कांग्रेस के पास अपना कोई जातीय वोटबैंक भी नहीं बचा है. छुटपुट स्तर पर जनाधार वाले नेता हैं. सहारनपुर जहां भीम आर्मी का आधार है वहीं से कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता इमरान मसूद आते हैं. वही इमरान मसूद जिन्होंने बोटी-बोटी वाला बदनाम बयान दिया था.

ऐसा कहा जाता है कि उनके चंद्रशेखर से अच्छे संबंध हैं. दोनों एक दूसरे की मदद भी करते हैं. स्थानीय स्तर पर यह गठजोड़ चल सकता हैं. लेकिन अगर कांग्रेस चाहे भी कि चंद्रशेखर को लेकर प्रदेश में चेहरा बना कर प्रोजेक्ट करे तो यह संभव नहीं हैं क्यूंकि पार्टी के पास स्थानीय कार्यकर्ता नहीं हैं. पार्टी संगठन के स्तर पर शून्य है.

दलित चिन्तक कंवल भारती जो सपा शासन काल में जेल गए थे उनके अनुसार चंद्रशेखर की रिहाई भाजपा की सोची समझी रणनीति हैं जिससे जाटव वोट बांटा जा सके. “देखिये, जैसे यादव वोट बांटने के लिए शिवपाल यादव काम कर रहे हैं उसी तरह समय पूर्व चंद्रशेखर की रिहाई हुई है. ये जेल से निकलेंगे तो हाईलाइट होंगे फिर जाटव वोट पर असर डालेंगे,” भारती कहते हैं.

भारती बताते हैं, “उत्तर प्रदेश में पिछडो में यादव और जाटवों में मायावती के अलावा किसी पिछड़ी या दलित जाति की अपनी लीडरशिप नहीं हैं. जो भी नेता हैं सब भाजपा में ही हैं. ऐसे में चंद्रशेखर जाटव नेता बनेंगे और वोट का बंटवारा होगा जिसका पहला फायदा भाजपा को होगा.” हालांकि अभी चंद्रशेखर ने बहुत ही सधा बयान दिया हैं कि उनको पहले भी कैराना उपचुनाव में ऑफर था कि चुनाव लड़ जायें लेकिन उनका मकसद है भाजपा को हराना.

आगे क्या हो सकता हैं

अगर सब कुछ सीधे-सीधे चलता रहा तो चंद्रशेखर को अपना स्थान बनाने में समय लगेगा. फिलहाल उन्होंने भीम आर्मी को अराजनीतिक घोषित कर रखा हैं. लेकिन उनके समर्थन से अगर चुनावी निर्णय पर असर पड़ता हैं तो नि:संदेह वो एक ताकत बनेंगे. बहुत कुछ 2019 के लोकसभा चुनाव पर भी निर्भर करता हैं. केंद्र में अगर एक ग़ैर भाजपा सरकार आती हैं तो फिर चंद्रशेखर की आवाज़ कायम रहेगी.

वैसे चंद्रशेखर ने कल जमीयत उलेमा ए हिन्द के सदर मौलाना अरशद मदनी से मुलाकात करके संभावित दलित-मुस्लिम समीकरण की तरफ इशारा किया है. लेकिन जैसा कि पहले बात आई थी कि इस तरह का कोई भी समीकरण सहारनपुर और उसके इर्द गिर्द तक ही सीमित रहेगा. लेकिन इतना तो तय हैं कि चंद्रशेखर बसपा के लिए परेशानी का सबब हमेशा बने रहेंगे.

उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूबे में अभी भी पूर्वांचल, अवध, बुंदेलखंड जैसे बड़े इलाके में भीम आर्मी की कोई सांगठिन पहुंच नहीं हैं. जाहिर है यह एक पूरी राजनीतिक प्रक्रिया के तहत होता है जिसमें समय लगता है. चंद्रशेखर के अंदर वह दूरदर्शिता, नेतृत्व क्षमता आदि है या नहीं यह तय होना अभी बाकी है.

चंद्रशेखर के साथ सबसे बड़ा प्लस पॉइंट हैं उनकी कम आयु. कल किसी ने नहीं देखा हैं. राजनीतिक घटनाक्रम किस रूप में आकार लेगा कोई नहीं जानता, संभव है कल को उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य का विभाजन हो जाय तो कोई आश्चर्य नहीं. ऐसे में चंद्रशेखर और उनकी भीम आर्मी अपने आप में एक सशक्त आवाज़ बन जाएगी.

पृष्ठभूमि :

चार साल पहले चंद्रशेखर और उनकी भीम आर्मी का नाम तब सुर्खियों में आया जब गांव घुडकौली में ‘द ग्रेट चमार’ लिखे एक बोर्ड के साथ उनकी फोटो आई. यह बोर्ड दलित सशक्तिकरण का नमूना माना जाने लगा. भीम आर्मी का प्रभाव फैलने लगा. भीम आर्मी भी सामाजिक कार्यों में जैसे नि:शुल्क स्कूल चलाना जैसे कार्य करने लगी.

पिछले साल पांच मई को सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में दलित और राजपूत संघर्ष हुआ. इसमें एक व्यक्ति की मौत हो गयी. इस घटना के विरोध में नौ मई को प्रदर्शन हुआ जिसमें हिंसात्मक घटनाएं हुई, आगजनी में गाड़ियां जला दी गईं. इसमें चंद्रशेखर और अन्य पर मुकदमा हुआ. इस घटना के बाद बसपा प्रमुख मायावती हाल-चाल जानने वहां गईं. उनके लौटने के बाद अम्बेहटा चांद में फिर से हिंसा हुई और एक व्यक्ति की मौत हो गयी. चंद्रशेखर पर 2 नवम्बर, 2017 को रासुका लगाई गयी. कुल 464 दिन वे जेल रहे जिसमे 317 दिन रासुका में निरुद्ध थे. ठीक 48 दिन बाद रासुका की मियाद पूरी हो रही थी. राज्य सरकार का कहना हैं कि ये समय पूर्व रिहाई चंद्रशेखर की मां के प्रत्यावेदन पर विचार करने के उपरान्त हुई है.

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