झारखंडः नाबालिग लड़कियों और बच्चों की शिकारगाह

झारखंड के आदिवासी इलाके नाबालिग बच्चों और लड़कियों की तस्करी और गुमशुदगी के कुचक्र में.

WrittenBy:नीरज सिन्हा
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इन दिनों झारखंड के आदिवासी बहुल चाईबासा जिले में पुलिस सुदूर गांवों-पठारों में नाबालिग बच्चों की तलाश के अभियान में जुटी हुई है. इस तरह के करीब 32 बच्चे अपने घर वापस पहुंच गए हैं. तीन अन्य का पता लगाया जा रहा है. इन बच्चों को गौरकानूनी तरीके से लुधियाना स्थित एक कथित अवैध शेल्टर होम- पैकियाम मर्सी क्रॉस ले जाया गया था.

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इधर झारखंड की राजधानी रांची से तीस किलोमीटर दूर मांडर थाना क्षेत्र के एक गांव की नाबालिग आदिवासी लड़की पूनम (बदला हुआ नाम) को इस बात से थोड़ी राहत मिली है कि जिन दो लोगों ने उसे शिमला ले जाकर कथित तौर पर बेचा था, उन्हें 11 सितंबर को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है. महीनों से इंसाफ के लिए संघर्ष कर रही ये लड़की गिरफ्तार किए गए दोनों लोगों को सख्त सजा दिलाना चाहती है.

ये दोनों मामले हाल के दिनों में झारखंड में काफी चर्चा में रहे. जाहिर है इन दोनों मामलों में चेहरे अलग हैं, मकसद अलग हैं, घटना के तरीके अलग हैं. इनमें अगर एक जैसा कुछ है, तो झारखंड में आदिवासी बच्चों- लड़कियों की बेबसी और सुरक्षा. इन कहानियों की छानबीन करेंगे, तो इसके छोर बढ़ते जाएंगे.

साथ ही एक और तस्वीर उभरेगी कि भौगौलिक तथा प्रशासनिक दृष्टिकोण से अलग राज्य बनने के बाद भी 18 सालों में झारखंड के आदिवासी इलाकों में अशिक्षा, गरीबी, कुपोषण, बेबसी और रोजगार के दर्द के साथ मुश्किलें कायम है. जबकि झारखंड अलग राज्य की लड़ाई में यही आदिवासी तबका अगली कतार में शामिल रहा था.

बच्चों के साथ हो रही घटनाएं अनगिनत हैं. कहीं शेल्टर होम में पलने वाले मासूम दम तोड़ रहे हैं, तो कहीं मासूमों की बिक्री के आरोप लग रहे है. कई जगहों पर बेबस, गरीब, मजदूर परिवार के सभी बच्चे अचानक और एक साथ गायब हो जाते हैं.

नाबालिग बच्चों की गुमशुदगी

आखिर झारखंड के आदिवासी इलाकों के बच्चों पर किनकी नजरें लगी है. गायब होते बच्चे जाते कहां है या कौन इन्हें यहां से ले कौन जाता है ?

इन सवालों का जवाब मांडर थाना क्षेत्र के एक आदिवासी नाबालिग राहुल टोप्पो के पिता प्रदीप टोप्पो और भाई संजू टोप्पो भी हमेशा पूछते हैं. राहुल टोप्पो चार साल से गायब है और इस दौरान उसके पिता और भाई ने साहबों- सरकार तक अर्जी लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी है. लेकिन बच्चे का पता नहीं चला है.

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जागरूकता अभियान

रांची की एक तंग बस्ती में रहने वाली आदिवासी मजदूर सुमति उरांव इन्हीं दर्द भरी कहानियों का ताजा हिस्सा बनी हैं. सुमति पिछले चार महीनों से अपनी दो बेटियों तथा एक बेटे की तलाश कर रही हैं. सुमति के तीनों नाबालिग बच्चे ( दो बेटी एक बेटा) एक साथ लापता हुए और इस मामले में पुलिस ने पूरे दस दिनों बाद प्राथमिकी दर्ज की.

क्या लगता है बच्चे कहां गए होंगे या किसी ने गलत नियत से गायब कर दिया, इस सवाल पर वो कहती हैः हमलोग आदिवासी मजदूर ठहरे. जिंदगी से जूझते रहने वाले. कभी जहन में कोई आशंका आती नहीं थी. इन दिनों झारखंड में करमा परब (प्रकृति तथा लोक पर्व) है को लेकर जगह- जगह गीत गूंज रहे हैं. पर सुमति की आंखों में आंसू भरे हैं. दरअसल करमा परब के बासी दिन ही तो उनका बेटा जनमा था. अबकी वो आठ बरस का हो जाएगा.

हाल ही में आए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो 2016 के आंकड़े बताते हैं कि झारखंड में अब तक 1008 बच्चे लापता हैं.

बच्चों की गुमशुदगी और तस्करी की घटनाएं झारखंड में व्यापक पैमाने पर फैली हुई है. ऐसे में यह सवाल पूछा जा सकता है कि यह मामला सियासत के लिए कोई अहम एजेंडा क्यों नहीं बनता.

कैसे लुधियाना पहुंचे बच्चे

लुधियाना से जुड़े मामले में जारी तफ्तीश में पुलिस को यह जानकारी मिली है कि बच्चों को पढ़ाने के नाम पर झारखंड के सदूर गांवों से पैकियाम मर्सी क्रॉस ले जाया गया था. ये बच्चे चार से बारह साल के थे.

पुलिस ने इस मामले में शेल्टर होम के मालिक सत्येंद्र प्रकाश मुसा और चाईबासा के एक स्थानीय वयक्ति जुनाल लोंगा को गिरफ्तार कर जेल भेजा है.

चाईबासा के पुलिस अधीक्षक क्रांति कुमार गड़िदेशी बताते हैं कि शेल्टर होम से जब्त दस्तावेजों और इन दो लोगों की गिरफ्तारी के बाद पूछताछ से पुलिस को ये साक्ष्य मिले हैं कि सरना आदिवासी बच्चों के धर्मांतरण के मकसद से शेल्टर होम में बाइबल और इसके मत से जुड़े साहित्यों को नियमित तौर पर पढ़ाया जाता था.

इसके अलावा यह मामला अनैतिक ट्रैफिकिंग (इम्मोरल ट्रैफिकिंग) से भी जुड़ा है. लुधियाना पहुंचाए गए ये बच्चे झारखंड में सुदूर और अलग-अलग जगहों के थे. लिहाजा शेल्टर होम के अटेंडेंस रजिस्टर में दर्ज उनके नाम के आधार पर पता कन्फर्म करने के साथ उनके घरों तक पहुंचने में पुलिस के सामने कई दिक्कतें आती रही है. अब तक 32 बच्चों का पता चल गया है कि वे अपने घरों को पहुंच चुके हैं. पुलिस उन बच्चों के माता-पिता से भी जानकारियां जुटा रही है.

इससे पहले शेल्टर होम से आठ बच्चों को छुड़ाया गया था. बाकी बच्चों के बारे में शेल्टर होम के संचालक ने जानकारी दी थी कि उनके घर वालों को सौंप दिया गया है. हालांकि संचालक ने बच्चों को सौंपे जाने के बाबत बाल कल्याण समिति तथा पुलिस को कोई जानकारी नहीं दी थी.
अब पुलिस इस तफ्तीश में जुटी है कि बच्चे कब-कब किन रास्तों से और कैसे लुधियाना पहुंचाए गए तथा इस शेल्टर होम के तार कहां से जुड़े हैं. इन बच्चों के माता-पिता ने किन हालात में उन्हें बाहर जाने दिया.

पुलिस अधीक्षक के मुताबिक प्रारंभिक जांच में ये तथ्य सामने आए हैं कि जुनाल लोंगा पहले लुधियाना में पढ़ता था. लुधियाना में ही शेल्टर होम के संचालक सत्येंद्र प्रकाश मुसा से उसका संपर्क हुआ. इसके बाद यहां से लोंगा बच्चों को ले जाकर देता था. बदले में उसे हजार-पंद्रह सौ रुपए मिलते थे.

लोंगा, सुदूर इलाके के गरीब तथा भोले आदिवासियों को यह समझाने में सफल रहता था कि आपके बच्चे वहां मुफ्त में रहेंगे, पढ़ेंगे. और वो खुद उनकी देखरेख करता रहेगा. आदिवासी परिवार उस पर भरोसा कर लेते थे. जबकि ये बच्चे घर-परिवार का पता भी ठीक से नहीं जानते थे.

पुलिस अधीक्षक के मुताबिक शेल्टर होम तक बच्चों को पहुंचाने में लोंगा का संपर्क और किन लोगों से रहा है इस पर जांच जारी है. पुलिस इस पूरे नेटवर्क को खंगालना चाहती है.

अवैध तरीके से इन बच्चों को रखे जाने तथा जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के उल्लंघन को लेकर विशेष शाखा तथा बाल कल्याण समिति की रिपोर्ट के आधार पर इस मामले में कार्रवाई शुरू हुई, तो कई बातें उजागर होने लगी.

इस मामले को राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने भी संज्ञान लिया है. राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग ने झारखंड सरकार से रिपोर्ट तलब की है. साथ ही पंजाब पुलिस को पत्र लिखा है.

लड़कियों पर आफत

पूनम (बदला नाम) जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है भी इन काहनियों की बानगी भर है. नवीं कक्षा तक पढ़ी ये लड़की इन दिनों कई मुश्किलों के बीच खुद को संभालने की जद्दोजहद कर रही है.

दरअसल जिन लोगों के खिलाफ उसने मुकदमे दर्ज कराए हैं उन्हें सजा दिलाने की जिद के साथ खुद और परिवार की सुरक्षा की चिंता उसके सामने है.

साल 2014 में रोजगार के नाम पर पूनम को मांडर से शिमला ले जाया गया था. वहां एक घर में वह नौकरानी के तौर पर काम करती रही और इस दौरान प्रताड़ना, छेड़छाड़, की शिकार हुई.

उसका दावा है एक साल काम करने के बदले उसे मकान मालिक ने दस हजार रुपए दिए जबकि जबकि 75 हजार में उसे बेचा गया था. इस आदिवासी लड़की के दर्द का किस्सा और भी गहराता गया जब पुलिस में मुकदमा दर्ज कराने के कुछ दिनों बाद उसके पिता की हत्या कर दी गई. हालांकि हत्या किसने की है इसका खुलासा अब तक नहीं हो पाया है.

इन घटनाओं का एक कड़वा सच यह भी है कि कथित तौर पर तस्करी के इस कारोबार में कई स्थानीय लोग जुटे हैं, जिन्हें मेठ-दलाल भी कहा जाता है, जो आदिवासियों की बेबसी, लाचारगी तथा भोलेपन से जुड़े तमाम नब्जों पर हाथ फेरने में सफल होते रहे हैं. इनके सीधे संपर्क प्लेसमेंट एजेंसियों तथा तस्करी के कारोबार से जुड़े कथित रैकेट से होते हैं.

इन कहानियों का कड़वा पक्ष यह भी है कि सुदूर इलाकों में पीड़ित परिवार थाने तक नहीं पहुंच पाता. कई मामलों में पहुंच भी गए, तो उल्टा उन्हें कई किस्म की पूछताछ का सामना करना पड़ता है. इससे वे घबराते-बचते हैं.

साथ ही घर-गृहस्थी संभालने की मजबूरियों के बीच कई परिवार किसी संभावित खतरे को भांपने के बजाय इस उम्मीद में जीते हैं कि बेटी परदेस जाकर कमाएगी, तो कुछ पैसे लेकर आएगी. लेकिन सालों तक वे लौटती नहीं और कई मौके पर बड़ी अनहोनी की शिकार हो जाती हैं.

पिछले मई महीने में राज्य के लापुंग इलाके से एक नाबालिग आदिवासी लड़की सोनी की दिल्ली में हत्या इसी बेबसी का हिस्सा कहा जा सकता है. जबकि उसके लापता होने के बाबत घर वालों ने कोई प्राथमिकी तक दर्ज नहीं कराई थी. लापता सोनी दिल्ली में काम कर रही थी और जब उसने पैसे मांगे, तो उसके टुकड़े- टुकड़े कर दिए गए.

इन अनहोनी का एक स्याह चेहरा होता हैः बिन ब्याही मां बनकर घर लौटना. और फिर बच्चे के जन्म के साथ शुरू होती है दर्द- बेबसी की अलग कहानियां.

दिल्ली, हरियाणा समेत दूसरे महानगरों से बहुत लड़कियां यातना की दास्तान सीने में जज्ब किए जब वापस लौटने में सफल भी होती हैं, तो घर- परिवार के हालात तब तक इस तरह बदल जाते हैं कि अपने बूते जीने की जद्दोजहद करनी पड़ती है. एसी दर्जनों लड़कियां अभी राजधानी रांची में सुरक्षा गार्ड, सेल्समैन की नौकरियां कर रही हैं. नई उम्मीदों और नए सपने के साथ.

बचपन बचाओ आंदोलन की कार्यक्रम निदेशक डॉ संपूर्णा बेहुरा इन बातों से इत्तेफाक रखती हैं. डॉ संपूर्णा बताती हैं कि झारखंड की आदिवासी लड़कियां मेहनतकश होती हैं. लिहाजा महानगरों में घरेलू कामगार के तौर पर उनकी डिमांड ज्यादा होती है. लेकिन घरों में काम पर रखे जाने के बाद अधिकतर लड़कियों को मालिकों के अलावा एजेंट, ब्रोकर तथा एजेंसियों की प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है.इसलिए झारखंड और दूसरे कई राज्यों के आदिवासी बहुल इलाकों में सरकारी-गैर सरकारी स्तर पर जागरूकता कार्यक्रमों पर जोर जरूरी है.

आंकड़ों के बरक्स

अभी देश की निगाहें मानव तस्करी को लेकर आने वाले नये कानून पर लगी है. हाल ही में लोकसभा से मानव तस्करी (रोकथाम, सुरक्षा और पुनर्वास) विधेयक-2018 पारित किया गया है. इसकी मांग काफी समय से कई स्वंयसेवी संस्थाएं करती रही हैं. केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने कहा भी है कि मानव तस्करी सीमारहित अपराध है.

इस कानून में महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा, पुनर्वास के विशेष प्रावधान किए गए हैं. साथ ही केंद्रीय सरकार को एक विशेष जांच एजेंसी के गठन का सुझाव दिया गया है. इस एजेंसी का काम होगा मानव तस्करी के मामलों की नए कानून के अंतर्गत जांच करना. इसे बड़ा कदम माना जा रहा है. हालांकि कानून का रूप लेने के बाद इसके परिणामों को परखा जाना अभी बाकी है.

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मिशनरीज ऑफ चैरिटी

हाल ही में सामने आए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो, 2016 के आंकड़े बताते हैं कि झारखंड में मानव तस्करी के 109 मामलों में 72 महिलाएं तस्करी की शिकार हुईं. जबकि 63 मामलों में पुलिस ने चार्जशीट दाखिल की है और 61 मामलों में सजाएं हुई हैं.

इधर झारखंड पुलिस के आंकड़े बताते हैं कि 2014 से मार्च 2017 तक मानव तस्करी के 394 मामले दर्ज किए गए हैं. इसी दौरान 247 मानव तस्करों को गिरफ्तार किया गया जबकि 381 लोगों को इस जाल से बाहर निकाला गया.

मानव तस्करी के खिलाफ और लापता बच्चों को लेकर सालों से झारखंड में काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता बैद्यनाथ कुमार का दावा है कि झारखंड में मानव तस्करी के जाल, भयावहता और बेबसी का अंदाजा किसी आंकड़े से आप कतई नहीं लगा सकते. अगर बारीकी तथा ईमानदारी से इन मामलों को खंगाला जाए, तो ये आंकड़े हजारों में हो सकते हैं.

पुलिस कई मामलों में प्राथमिकी दर्ज करने य छानबीन में देर लगाती है और तब तक नाबालिग बच्चे कहां से कहां पहुंचा दिए जाते हैं.

इन तमाम पहलुओं पर गौर करें, तो कड़वा सच यह भी है कि इन हालात को ठीक करने के लिए जो कोशिशें की जाती रही हैं वे आधी अधूरी है.
ताजा मामला बहुचर्चित कथित तस्कर पन्नालाल को मिली जमानत का है. पन्नालाल पर तस्करी के दर्नन भर मामले दर्ज हैं. तब सवाल उठते हैं कि चूक कहां हो जाती है.

मासूमों की मौत पर परदा

हाल ही में खूंटी के एक शेल्टर होम सहयोग विलेज में बीमारी और कुपोषण से तीन मासूम बच्चों के दम तोड़ने की घटना से कई सवाल उठ खड़े हुए हैं. इस शेल्टर होम में पलने वाले अधिकतर बच्चे आदिवासी हैं. और कई बच्चे बिनब्याही मांओं के हैं.
शेल्टर होम में तीन मासूमों की मौत के बाद आनन-फानन में नौ बच्चों को गंभीर हालत में अस्पतालों में भर्ती कराया गया. इनमें से सात की हालत अब जाकर सुधरी है. दो बच्चे अब भी अस्पताल में हैं.

कुपोषण और बीमार हालात में ये मासूम तिल-तिल कर मरते रहे लेकिन इस हाल के लिए अब तक कोई जवाबदेही तय नहीं हो पाई है.

इसी सिलसिले में सुदूर गांव में रहने वाले प्यारन टूटी और उसकी आठ महीने की बेटी पालो (जो अब नहीं रही) की बेबसी तस्दीक करती है कि इन मौतों पर परदा डालने की कोशिशें जारी है.

पालो जब पांच महीने की थी, तो उसकी मां की मौत हो गई थी. पत्नी की मौत के बाद प्यारन टूटी ने पालो को पालने के ख्याल से मिशनरीज ऑफ चैरिटी में दे दिया था.

इस बीच मिशनरीज ऑफ चैरिटी पर बच्चा बेचे जाने के आरोप में एक सिस्टर तथा एक महिला कर्मी की गिरफ्तारियों के बाद बाल कल्याण समिति ने कार्रवाई के तहत चैरिटी द्वारा संचालित होम से 12 बच्चों को ले जाकर सहयोग विलेज खूंटी में शिफ्ट कर दिया. पालो भी उनमें एक थी.

प्यारन टूटी का दावा है कि जब पालो को खूंटी के शेल्टर होम में रखा जा रहा था, तो उन्होंने बेटी को अपने साथ घर ले जाने की इजाजत मांगी थी लेकिन बच्ची उन्हें नहीं दी गई.

पिछले महीने दो लोग प्यारन टूटी के घर पहुंचे थे. उन लोगों ने बताया कि पालो अस्पताल में भर्ती है, चलकर देख लो. प्यारन टूटी उन दो लोगों के साथ जब जिला मुख्यालय पहुंचे तो उसे बच्ची की लाश थमा दी गई.

बच्ची की लाश गोद में लिए बाप घर लौट आया. अब प्यारन टूटी इस मामले में मुकदमा दर्ज कराने के लिए जोर लगा रहे हैं.
सवाल ये भी उठाये जा रहे हैं कि पालो की मौत के बाद पोस्टमार्टम क्यों नहीं कराया गया. सहयोग विलेज में अन्य दो मासूमों की कथित तौर पर कुपोषण से हुई मौत के बाद उनकी देखभाल, व्यवस्था और सरकार से जारी फंड के इस्तेमाल पर भी सवाल पूछे जा रहे हैं.

सहयोग विलेज के संचालक जसविंदर सिंह बताते हैं, “बाल कल्याण समिति ने मिशनरीज ऑफ चैरिटी से हटाकर 12 बच्चों को मेरे सेंटर में सौंपा था, लेकिन वे सेहत के लिहाज से किन हालात में थे इस बाबत कोई रिपोर्ट नहीं दी थी. पालो को दस्त की बीमारी के बाद अस्पताल में भर्ती कराया था. बाद में उसकी मौत हो गई. मरने वालों में दो बच्चे मेरे सेंटर के थे, जो गंभीर तौर पर कुपोषण से जूझ रहे थे और कई दिनों तक खूंटी के कुपोषण केंद्र में इलाज भी चलता रहा.”

खूंटी के ही रहने वाले बुद्धू कंडीर के दावे ने राज्य बाल संरक्षण आयोग को अलग ही सकते में डाल दिया है. दरअसल बुद्धू कंडीर ने आयोग को इस दावे के साथ आवेदन दिया है कि उन्होंने मिशनरीज ऑफ चैरिटी में देखभाल के लिए अपने दो बच्चों (सागर कंडीर और सरिता कंडीर) को सौंपा था. अब उन्हें जो बच्चा सौंपा गया है वह सागर कंडीर नहीं मंगरा नाग है. लाजिम है सवाल उठ रहे हैं कि सागर कंडीर कहां गया.

बाल कल्याण समिति ने मिशनरीज ऑफ चैरिटी से जिन बच्चों को हटाकर सहयोग विलेज में शिफ्ट किया था उनमें बुद्धू कंडीर के दोनों बच्चे सागर तथा सरिता भी थे. बाद में बाल कल्याण समिति के आदेश से और समिति की मौजूदगी में बुद्धू कंडीर को उनके दो बच्चे (सागर कंडीर तथा सरिता कंडीर) को सौंपा गया.

आखिर मासूमों की ये दुर्दशा क्यों होती रही, इस सवाल पर सहयोग विलेज के जसविंदर कहते हैं कि उनके केंद्र में कई ऐसे बच्चों को छोड़ दिया जाता है जो बिनब्याही मांओं के होते हैं. ऐसे बच्चों का मुक्कमल तौर पर स्तनपान नहीं होता है या पिर वे समय से पहले जन्मे होते हैं. इसीलिए बीमार होते हैं.

दूसरी तरफ खूंटी बाल कल्याण समिति के अध्यक्ष बंधेश्वरजी कहते हैं, “बच्चों की सही तरीके से देखभाल के लिए सहयोग विलेज को समय- समय पर निर्देश दिए जाते रहे हैं. यह भी कहा गया है कि शेल्टर होम में एक डॉक्टर की तैनाती की जाए. बच्चों की इस हालत के लिए शेल्टर होम अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकता. सागर कंडीर के बदले मंगरा नाग के मामले में उनका कहना है कि बाल कल्याण समिति रांची ने बच्चों को यहां लाकर सौंपा था इसलिए बाल संरक्षण आयोग से उन्होंने आग्रह किया है कि इस मामले को देखे.”

रोज- रोज उलझते जा रहे इस मामले में बाल संरक्षण आयोग की अध्यक्ष आरती कुजूर बताती हैं कि जब बुद्धू कंडीर अपने दोनों बच्चों को लेकर मेरे पास आए थे, तो उनकी तबीयत बिगड़ी हुई थी. सबसे पहले उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया गया. इस बीच बुंधू कंडीर के इस दावे पर कि सागर कंडीर के बदले मंगरा नाग नाम का बच्चा उन्हें दे दिया गया है. इस मामले में बाल कल्याण समितियों और शेल्टर होम के साथ बैठक कर पूरे मामले की जानकारी ली गई है.

अरती कुजूर का कहना है कि सरायकेला के एक सुदूर गांव के रहने वाले बुद्धू नाग नाम के एक व्यक्ति का बच्चा मंगरा नाग शेल्टर होम में है. बाल कल्याण समितियों से कहा गया है कि बुद्धू नाग को बुलाया जाए, ताकि बुद्धू नाग और उनका बच्चा मंगरा नाग के अलावा बुद्धू कंडीर और उनका बच्चा सागर कंडीर को आमने- सामने बैठाकर पहचान कराई जाएगी कि कहीं बच्चे की अदला बदली तो नहीं हो गई है.

इधर मिशनरीज ऑफ चैरिटी पर बच्चा बेचने के लगे आरोपों के बाद केंद्र और राज्य सरकार के निर्देश के तहत कई स्तरों पर जांच बैठाई गई है और इसकी जद में दूसरी संस्थाएं भी हैं. इस बीच बाल संरक्षण आयोग ने कई शेल्टर होम का जायजा लिया है और हालात अच्छे नहीं पाए गए हैं. आयोग की रिपोर्ट का सार्वजनिक होना बाकी है.

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