दीन और दुनियादारी के बीच तालमेल का फलसफा नदवातुल मदरसा

इस्लामी दुनिया में खास मुकाम रखने वाले नदवातुल मदरसा ने 120 साल बाद अपना दरवाजा अंग्रेजी के लिए खोला.

WrittenBy:फैसल फरीद
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वैसे मदरसे का नाम सुनते ही क्या छवि उभरती हैं. टोपी लगाये हुए छात्र, हिल-हिल कर धार्मिक ग्रंथो का अध्ययन करते हुए, किसी भी अजनबी चीज़ को अचम्भे से देखते हुए मदरसे के रहने वाले लोग.

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इन सब के बीच जब तब ऐसे बयान कि मदरसे में राष्ट्र-विरोधी गतिविधियां होती हैं जो राजनितिक पारा गर्म करने के अलावा बहस का मुद्दा भी बन जाती हैं.

मदरसे बने तो धार्मिक ग्रन्थ और धार्मिक शिक्षा देने के लिए ही थे लेकिन इधर इनका स्वरुप भी बदला हैं. धार्मिक शिक्षा के अलावा, मदरसे अब बाहरी दुनिया से भी जुड़ रहे हैं. समाज में हो रहे बदलाव के साथ वो कदमताल भी मिला रहे हैं.

बीते दिनों लखनऊ में स्थित इस्लामिक शिक्षण केंद्र दारुल उलूम नदवातुल उलेमा ने अपने कैंपस में इंग्लिश डिपार्टमेंट की शुरुआत की है. उसके छात्र अब अंग्रेजी भी पढ़ सकते हैं. ये बदलाव नदवा में लगभग 120 साल बाद आया हैं.

अंग्रेजी शिक्षा की शुरुआत पर आगे बढ़ने से पहले यह जानना जरूरी है कि नदवातुल मदरसे की इस्लामी दुनिया में अहमियत क्या है. सन 1893 में नदवातुल उलेमा संस्था के कानपुर में हुए पहले कन्वेंशन में शिक्षण संस्थान बनाने का विचार हुआ. फिर पांच साल बाद 1898 में दारुल उलूम नदवातुल उलेमा की स्थापना की गयी. इसकी स्थापना का मकसद धार्मिक विशेषज्ञ तैयार करने के अलावा पहले भी यही था कि इस्लामिक थियोलोजी पढ़ाने वाले संस्थानों के पाठयक्रम में आधुनिक युग के हिसाब से बदलाव लाये जाये जिससे देश का सांस्कृतिक विकास हो सके.

आखिरकार 120 साल बाद नदवा में अंग्रेजी विभाग शुरू किया गया.

नदवा कोई आम मदरसा नहीं हैं. भारतीय सुन्नी मुसलमानों में इसकी मान्यता देवबंद के दारुल उलूम के बराबर ही है. इसके रेक्टर मौलाना राबे हसन नदवी इस समय आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष हैं. बोर्ड की बैठकें यहीं आयोजित होती हैं. देश के चुनिन्दा राजनीतिज्ञ यहां आते-जाते रहते हैं.

सैय्यद इबाद नत्तेर, नदवा में आलिमियत का कोर्स कर रहे हैं. वो अंग्रेजी विभाग शुरू होने से काफी खुश हैं. इबाद कहते हैं, “आजकल ज़रूरी हैं कि हम अंग्रेजी जाने. ज़बान सीखने में कोई बुराई नहीं हैं. ये हमारे काम ही आएगी.” इबाद सोशल मीडिया, फेसबुक और ट्विटर पर काफी सक्रिय रहते हैं. फिलहाल नदवा में इंग्लिश उन बच्चों के लिए रखी गयी हैं जो अपना धार्मिक कोर्स पूरा करने के बाद बाहर की दुनिया में जा रहे होते हैं. ऐसे छात्र इंग्लिश सीख सकते हैं.

इस बारे में मौलाना अनीस नदवी जो नदवा में इंग्लिश पढ़ाते हैं, बताते हैं, “हमारा पहला मकसद तो ये हैं कि तमाम इस्लामिक मामले जैसे शरिया, हदीस आदि को वो बुद्धिजीवी वर्ग नहीं समझ पाता जिसे सिर्फ इंग्लिश आती हैं, क्योंकि ये सब मूलत: उर्दू में उपलब्ध है. अंग्रेजी के जरिए हम उन तक आसानी से पहुंच जायेंगे. दूसरा ये भी हैं जब अग्रेज़ी आएगी तो समाज में आपको फायदा होगा. फिलहाल हम उन्हीं बच्चो को ले रहे हैं जो हमारे यहां पढ़ रहे हैं ताकि वो बाहर जा कर आसानी से अपनी बात रख सके और समझ सकें.”

क्या बदलाव सिर्फ नदवा में हो रहा हैं ?

ऐसा नहीं हैं. भारत के सबसे बड़े इस्लामिक शिक्षण संस्थान दारुल उलूम, देवबंद जो 1866 में स्थापित हुआ था वहां के लोग भी अंग्रेजी के पक्ष में हैं. देवबंद के जनसंपर्क अधिकारी मौलाना अशरफ उस्मानी कहते हैं, “देखिये हम कभी अंग्रेजी के खिलाफ नहीं रहे हैं. हम इसकी हिमायत करते हैं. अब आप बताएं अगर रेलवे रिजर्वेशन फॉर्म भी भरना हैं तो हमें अंग्रेजी या हिंदी आनी चाहिए. हम अगर दूसरी ज़बान नहीं जानेंगे तो अपनी बात उनसे कहेंगे कैसे और उनकी बात समझेंगे कैसे.”

मौलाना उस्मानी हालांकि साफ़ करते हैं कि उनकी असली मंशा दीन हैं और उस पर पहले काम करते हैं. “हम लोग अपनी राबता-ए-मदारिस (मदरसों का संपर्क) की मीटिंग में साफ़ कहते हैं कि समाज में हो रहे बदलाव के हिसाब से हमें चलना होगा. जब हम दूसरी भाषा समझेंगे तब ही तो हम अपना दीन उनको समझा पाएंगे,” मौलाना उस्मानी ने बताया.

इस समय दारुल उलूम देवबंद में भी पोस्ट ग्रेजुएट स्तर पर अंग्रेजी पढ़ाई जाती हैं. जोर इस्लामिक शिक्षण पर हैं और जो छात्र इसको पढ़ना चाहते हैं वो इसको पढ़ते हैं.

समय की मांग

जिंदा रहने के लिए आमदनी की ज़रुरत हैं. मदरसों से निकले छात्र ज़्यादातर मोहल्ले के मस्जिदों में इमाम बन जाते हैं. मुस्लिम बच्चों को घर पर कुरान पढ़ाते हैं. इससे उनको घर चलाने लायक कुछ हज़ार रुपये मिल जाते हैं, लेकिन ये आज की जरूरतों के हिसाब से पर्याप्त नहीं है. इसीलिए धीरे-धीरे मदरसों के संचालकों और अगपवा लोगों में ये सोच बढ़ी है कि रोज़गार का जरिया सिर्फ मॉडर्न एजुकेशन ही हैं. इसीलिए लम्बे समय से ऐसे कोर्सेज की बात चलने लगी है.

अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने इस बात को समझा और वहां पर सेंटर फॉर प्रमोशन ऑफ़ एजुकेशनल एंड कल्चरल एडवांसमेंट ऑफ़ मुस्लिम्स ऑफ़ इंडिया की शुरुआत हुई. ये सेंटर एक साल का ब्रिज कोर्स चलाता हैं जिसमें मदरसे के बच्चो को इंग्लिश और सोशियोलॉजी, पोलिटिकल साइंस, मैथ्स इत्यादि की शिक्षा दी जाती हैं. इस सेंटर के काफी बच्चे एक साल में इतना सीख गए कि उसके बाद कई मेनस्ट्रीम कोर्सेज में प्रवेश पा गए.

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में थियोलोजी (दीनियात) विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ रेहान अख्तर बताते हैं, “ये एक अच्छा क़दम हैं. इंग्लिश अब अंतरराष्ट्रीय भाषा हैं. पैग़म्बर मोहम्मद साहब भी उस दौर में अरब से बाहर अगर किसी को दीन के काम से भेजते थे तो फरमाते थे कि वहां की ज़बान सीख लो. अब आज इंग्लिश की ज़रुरत हर जगह हैं. इसको सीखने की ज़रुरत भी पेश आएगी और ये ज़रूरी और अच्छा क़दम हैं.”

हालात बदल रहे हैं. आज इन मदरसों में कंप्यूटर एजुकेशन भी हैं. नदवा और देवबंद के तमाम बच्चे आज स्मार्टफोन रखते हैं. मदरसे में फुटबॉल और क्रिकेट भी खेलते हैं. वो अंग्रेजी भी पढ़ते हैं. कहने को तो कहा जा सकता हैं कि सरकार भी मदरसों के आधुनिकरण पर ध्यान दे रही हैं.

यहां ये बात समझना ज़रूरी हैं कि भारत में दो तरह के मदरसे हैं. एक वो जो सरकार द्वारा संचालित सम्बंधित राज्य मदरसा बोर्ड के अधीन रहते हैं. इनका पाठयक्रम निर्धारित रहता हैं और सरकार की योजनाओ का लाभ ले सकते हैं. दूसरे वो मदरसे जो सरकार से किसी प्रकार का सहयोग नहीं लेते और अपना पाठ्यक्रम खुद बनाते हैं. इसमें देवबंद और नदवा आते हैं. ऐसे में अगर ये मदरसे भी मॉडर्न एजुकेशन की तरफ बढ़ रहे हैं तो निश्चित ही ये एक बेहतर बदलाव के संकेत है.

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