अफगानिस्तान की भूल-भुलैया में खोए अमेरिका-पाकिस्तान के रिश्ते

300 मिलियन डॉलर सहायता राशि रोकने के मुद्दे पर एक बार फिर से अमेरिका-पाकिस्तान के रिश्ते कसौटी पर हैं.

WrittenBy:प्रकाश के रे
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यह एक अजीब संयोग है कि जिस हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ समुचित कार्रवाई नहीं कर पाने के आरोप में अमेरिका ने मंगलवार को पाकिस्तान को दी जानेवाली आर्थिक सहायता राशि में 300 मिलियन डॉलर की कटौती का ऐलान किया, उसी दिन हक्कानी नेटवर्क के संस्थापक सरगना जलालुद्दीन हक्कानी के मरने की खबर भी आयी. अफगानिस्तान और पाकिस्तान में आतंकवाद की त्रासदी का एक आयाम यह भी है कि वहां कौन किससे और कब लड़ रहा है, इसका हिसाब लगा पाना लगभग नामुमकिन है. यह भी तय कर पाना आसान नहीं है कि आतंक के विरुद्ध जारी कथित युद्ध को सचमुच में उनके घोषित इरादों के चश्में से समझा जाये या फिर एक भू-राजनीतिक प्रकरण के रूप में.

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जलालुद्दीन हक्कानी का नेटवर्क

पाकिस्तान और अमेरिका के बीच मौजूदा तनातनी को समझने के लिए प्रधानमंत्री इमरान खान या उनकी सरकार और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप या उनके प्रशासन के बीच हो रही बयानबाजियां नाकाफी हैं. इसके लिए हमें हक्कानी नेटवर्क और अन्य आतंकी गिरोहों के साथ अफगानिस्तान के राजनीतिक इतिहास को भी खंगालना होगा. बहत्तर साल की उम्र में जिस जलालुद्दीन हक्कानी की मौत हुई है, वह सोवियत संघ-समर्थित अफगानिस्तान सरकार के खिलाफ कथित जेहाद के दौर में अमेरिका और पाकिस्तान का सबसे नजदीकी सहयोगी हुआ करता था. उसकी अहमियत का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि कभी अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन उसे और अन्य लड़ाकों को स्वतंत्रता सेनानी कहा करते थे. बीते दस सालों से उसके लकवाग्रस्त होने के कारण हक्कानी नेटवर्क का नेतृत्व उसके बेटे सिराजुद्दीन हक्कानी के हाथ में है, जो कि फिलहाल तालिबान का नायब भी है. हक्कानी की मौत की पुष्टि भी तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्ला मुजाहिद ने की है.

तालिबान से हक्कानी नेटवर्क का रिश्ता सितंबर, 1996 में तब बना था, जब तालिबानियों ने राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया था. इससे पहले हक्कानी नेटवर्क उन अनेक मुजाहिदीन गिरोहों में से एक था, जो अमेरिका और पाकिस्तान के शह और समर्थन से सोवियत सेनाओं के खिलाफ लड़ रहे थे. अन्य गिरोहों की तरह हक्कानी नेटवर्क को अमेरिका से धन और हथियार मिलते थे. यह भी उल्लेखनीय है कि इस लड़ाई में सऊदी अरब और मिस्र की सरकारों ने खुलकर तथा इजरायल ने चोरी-छुपे मुजाहिदीनों का साथ दिया था.

साल 1987 में मुजाहिदीनों का एक प्रतिनिधिमंडल व्हाईट हाउस में राष्ट्रपति रीगन से भी मिला था. उस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व हक्कानी का करीबी और मुजाहिदीनों के विभिन्न संगठनों के नेता मोहम्मद युनुस खालिस ने किया था. हक्कानी की तरह खालिस ने भी बाद में तालिबान का समर्थन किया. साल 2006 में उसकी मौत हुई थी. इस बैठक से कुछ समय पहले ही संयुक्त राष्ट्र में भारी समर्थन से प्रस्ताव पारित हुआ था कि अफगानिस्तान में तैनात अपने एक लाख सैनिकों को सोवियत संघ तुरंत हटाये.

ये मुजाहिदीन संयुक्त राष्ट्र महासभा में जगह पाने के लिए समर्थन जुटा रहे थे. तब महासभा में अफगानिस्तान का प्रतिनिधित्व सोवियत-समर्थित सरकार के पास था. उस बैठक में रीगन ने भरोसा दिलाया था कि उनकी आजादी की लड़ाई को अमेरिका का सहयोग घटने के बजाये बढ़ाया ही जायेगा. इससे पहले 1982 में अमेरिकी राष्ट्रपति ने एक अंतरिक्ष अभियान को अफगानी लड़ाकों के नाम समर्पित किया था.

हक्कानी नेटवर्क को लेकर अमेरिका समेत अन्य कई देशों के राजनीतिक और कूटनीतिक दांव-पेंच का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस गिरोह को 2012 में आतंकी संगठन माना गया. अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद अमेरिका ने उसे मान्यता नहीं दी थी, पर अमेरिका के नजदीकी पाकिस्तान और सऊदी अरब ने इसे वैध सरकार माना था. अफगानिस्तान में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए अमेरिका ने तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल भी हमले से पहले अमेरिका बुलाया था.

मौजूदा अफगानिस्तान, पाकिस्तान और अमेरिका

बहरहाल, इस कहानी को छोटा करते हुए आज के दौर में आते हैं. साल 2001 में हमले से पहले तालिबान से परदे के पीछे से गठजोड़ बनाने की कोशिश करने वाले तत्कालीन अमेरिकी रक्षा सचिव रोनाल्ड रम्जफेल्ड ने अप्रैल, 2002 में घोषणा कर दी थी कि युद्ध समाप्त हो गया है. करीब सोलह साल बाद पिछले साल दिसंबर में अमेरिका के उपराष्ट्रपति माइक पेंस ने बयान दिया था कि हम पहले के किसी वक्त से आज जीत के कहीं ज्यादा करीब हैं.

डेढ़ दशक से चल रहे लगातार युद्ध का एक पहलू यह भी है कि अमेरिकी और कुछ अन्य पश्चिमी देशों के कूटनीतिकों और तालिबान के बीच बातचीत करने का सिलसिला भी इस दौरान जारी रहा है. कुछ ऐसी भरोसेमंद खबरें भी आती रही हैं कि चीन भी तालिबान के साथ संपर्क में है. पिछले साल जब ट्रंप प्रशासन ने आतंकवाद के सवाल पर पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाना शुरू किया था, तब तत्कालीन पाकिस्तानी विदेशमंत्री ख्वाजा मुहम्मद आसिफ ने दो टूक शब्दों में कहा था- “हक्कानियों या हाफिज सईदों के लिए हमें दोष मत दो. ये वही लोग हैं, जो 20-30 साल पहले आपके अजीज थे. वे व्हाईट हाउस में खाते-पीते थे, और आज इन लोगों को पालने-पोसने की तोहमत लगाकर आप पाकिस्तानियों को दुत्कार रहे हो.”

इस संदर्भ में यह भी याद रखा जाना चाहिए कि पूर्व अमेरिकी विदेश सचिव हिलेरी क्लिंटन ने भी स्वीकार किया है कि हमने तालिबान और अन्य जेहादियों को बनाया है. मध्य-पूर्व में इस्लामिक स्टेट का जो भयानक दौर अभी गुजरा है, उसके पीछे भी अमेरिका के नजदीकी सऊदी अरब और कतर की मदद के सबूत क्लिंटन के ई-मेलों के जरिये सामने आ चुके हैं. हिलेरी क्लिंटन 2009 में अमेरिकी कांग्रेस की एक जांच कमेटी के सामने यह भी कह चुकी हैं कि जिन आतंकियों को अमेरिका ने तैयार किया, अब उनसे हो रही लड़ाई में हम पाकिस्तान को अकेले छोड़ रहे हैं.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि पाकिस्तान ने तालिबान को बनाने-बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभायी है, पर इसमें अमेरिका समेत सऊदी अरब और कुछ अन्य देशों की भी उतनी ही भूमिका रही है. अस्सी के दशक से आज तक अफगानिस्तान की लड़ाई अमेरिका की ही लड़ाई है, जिसमें पाकिस्तान हिस्सेदार है. इसलिए 300 मिलियन लर की सहायता रोकने के बाद आया पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी का बयान बिल्कुल सही है कि आतंक के विरुद्ध लड़ाई में अमेरिका कोई पाकिस्तान को मदद नहीं दे रहा है, बल्कि उसके खर्च की भरपाई कर रहा है.

यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि इसी तनातनी के बीच अमेरिकी विदेश सचिव माइक पॉम्पियो पाकिस्तान में प्रधानमंत्री और विदेशमंत्री से मिले हैं. इस मुलाकात के बाद कुरैशी का बयान आया है कि दोनों देशों के बीच गतिरोध खत्म हो गया है. पॉम्पियो ने दोनों देशों के रिश्तों में बेहतरी को लेकर उम्मीद जतायी है. नयी सरकार के साथ ट्रंप प्रशासन अपने रिश्तों को नये तरह से परिभाषित करने की कोशिश तो कर रहा है, पर दोनों देशों के रिश्ते इस कदर उलझे हुए हैं कि एक-दूसरे से अलग हो ही नहीं सकते.

प्रधानमंत्री इमरान खान अमेरिका के मुखर आलोचक रहे हैं और उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि पाकिस्तानी सेना से उनके गहरे संबंध हैं. कहनेवाले तो उन्हें ‘तालिबान खान’ भी कहते हैं क्योंकि उनके और उनकी पार्टी की कथित नजदीकियां चरमपंथी जमातों के साथ भी हैं, जो तालिबानपरस्त हैं. अगर मान भी लिया जाए कि अमेरिका अफगानिस्तान मामले में पाकिस्तान से दूरी बना लेगा, तो यह उसके लिए बड़ा भारी नुकसान होगा क्योंकि तब चीन और रूस को पाकिस्तान के जरिये अफगानिस्तान में खेलने का पूरा मौका मिल जायेगा. अमेरिका अफगानिस्तान को दूसरा सीरिया नहीं बनने देना चाहेगा. भारत के अतिउत्साही विश्लेषक अमेरिका से नजदीकी पर चाहे जो कहें, असलियत यही है कि दक्षिण एशिया में आज भी पाकिस्तान अमेरिका का सबसे करीबी सहयोगी है.

तस्वीर का एक खास पहलू यह है कि अफगानिस्तान सरकार, अमेरिका और तालिबान के बीच बातचीत भी चल रही है. अफगानिस्तान में अमेरिकी अभियान के प्रमुख जनरल जॉन निकोल्सन ने इस साल मई में मौजूदा हालात को ‘लड़ाई और बातचीत’ की संज्ञा दी थी. उन्होंने यह भी कहा था कि परदे के पीछे कई कूटनीतिक गतिविधियां चल रही हैं. जुलाई में ट्रंप प्रशासन ने अपने वरिष्ठ कूटनीतिकों को तालिबान से सीधे संपर्क करने का निर्देश भी जारी कर दिया है. लंबे समय से तालिबान की मांग रही है कि वह सिर्फ अमेरिका से बात करेगा, परंतु अमेरिका का कहना है कि ऐसे किसी भी कोशिश में अफगान सरकार की सहभागिता जरूरी है.

तालिबान की बढ़ती ताकत

अमेरिकी कांग्रेस द्वारा स्थापित एक पर्यवेक्षक समूह की रिपोर्ट को मानें, तो अफगानिस्तान के 407 जिलों में से 229 में फिलहाल सरकार का नियंत्रण या प्रभाव है तथा 59 जिले तालिबान के अधीन हैं. बाकी 119 जिलों में सरकार, तालिबान और कुछ अन्य समूहों के बीच संघर्ष चल रहा है. पिछले दो सालों में तालिबान ने अपनी ताकत में काफी इजाफा किया है. अमेरिकी सेना के एक प्रवक्ता कैप्टेन टॉम ग्रेसबैक ने पिछले साल मीडिया को जानकारी दी थी कि 407 जिलों में से 56 फीसदी सरकार के नियंत्रण या प्रभाव में है, 30 फीसदी में लड़ाई है और तकरीबन 14 फीसदी लड़ाकों के कब्जे या असर में है.

नवंबर, 2015 में अफगान सरकार के कब्जे में 72 फीसदी जिले थे, जबकि तब अमेरिकी सैनिकों की तादाद 10 हजार से भी कम हो गयी थी. अभी वहां करीब 15 हजार अमेरिकी सैनिक हैं, जिनमें से ज्यादातर अमेरिकी ठिकानों की रक्षा, अफगानी सुरक्षाबलों को निर्देश एवं प्रशिक्षण तथा व्यापारिक इमारतों की हिफाजत में लगे हैं. साल 2002 के बाद से अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए अमेरिकी कांग्रेस 121 बिलियन डॉलर के आसपास धनराशि आवंटित कर चुकी है. अमेरिका में एक बहस अमेरिकी सेना मुख्यालय पेंटागन द्वारा अंधाधुंध और बेजा खर्च को लेकर भी चल रही है. यह भी हो सकता है कि पैसों की बंदरबांट को लेकर चिंता और आलोचना को तुष्ट करने के लिए पाकिस्तान को दी जा रही राशि को रोकने की बात कही जा रही हो, और किसी और मद के नाम में इसकी भरपायी कर दी जायेगी.

आतंकवाद और यूएस-पाक रिश्तों की जटिलता

अफगानिस्तान और आतंकवाद पर अमेरिका और पाकिस्तान के हिसाब-किताब की जटिलता को समझना है, तो अमेरिकी कमांडो कार्रवाई में ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तान में मारे जाने के प्रकरण को ठीक से देख लेना ही काफी होगा. उस मामले में सीआइए के अपने दावे थे, पाकिस्तानी सत्ता-तंत्र एक-दूसरे को कोस रहा था और उसी रात तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ‘द वाशिंग्टन पोस्ट’ के लिए लेख लिख रहे थे- ‘हमने अपना काम कर दिया है.’

अमेरिका अब तक अपनी जंग में एक ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा खर्च कर चुका है और उसके ढाई हजार से ज्यादा सैनिक जाया हो चुके हैं. साल 2008 में तत्कालीन अमेरिकी रक्षा मंत्री रॉबर्ट गेट्स ने कहा था कि अमेरिका का उद्देश्य अफगानिस्तान में एक मजबूत केंद्रीय सरकार की स्थापना है. जब उनसे पूछा गया कि क्या कभी वहां कोई ऐसा शासन रहा है. उनका जवाब था- ‘नहीं’. असली बात यही है. अफगानिस्तान में अमन-चैन की बहाली एक फंतासी से ज्यादा कुछ नहीं है. उसे उसके हाल पर छोड़ दिया जाना चाहिए.

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