वो लड़कियां जिन्होंने हाल के दिनों पुरुषों के एकाधिकार वाले मसलों में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाई.
बीती 27 जुलाई को भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह इलाहाबाद दौरे पर थे. प्रशासन और भाजपा कार्यकर्ता मुस्तैद थे. लेकिन जब उनका काफिला धूमनगंज चौराहे के पास पहुंचा, तो दो लड़कियों ने काफिले की रफ़्तार रोक दी.
नेहा यादव और रमा यादव नाम की ये छात्राएं- अमित शाह वापस जाओ-जैसे नारे लगाकर काले कपड़े दिखाने लगीं. तुरंत उनको पुलिस ने हटाया. बाद में एक विडियो भी सामने आया जिसमें पुलिस का जवान इन लडकियों को बेरहमी से लाठी मारते हुए दिख रहा हैं. दोनों लड़कियां जेल भेज दी गईं.
यह घटना लोकतान्त्रिक व्यवस्था में राजनीतिक विरोध से जुड़ी थी लेकिन इसकी चर्चा खूब हुई. दोनों लड़कियां विपक्षी दल समाजवादी पार्टी की छात्र सभा से जुड़ी हुई हैं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रही हैं.
इस घटना के बाद सपा कार्यालय पर कई बहसें हुईं. इन बहसों का मुद्दा रहा- इन लड़कियों को इस तरीके से विरोध करना चाहिए या नहीं.
अक्सर ऐसे प्रदर्शन में गंभीर चोटें आने की आशंका रहती है, इस प्रकार के प्रदर्शन के लिए प्रदेश कार्यालय से अनुमति नहीं ली गई थी इत्यादि. लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न जो विक्रमादित्य मार्ग पर स्थति सपा कार्यालय में कार्यकर्ता आपस में बहस करते रहे वो था- क्या इलाहाबाद जैसे जिले में कोई सपा नेता नहीं था जो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का विरोध कर पता? सिर्फ यही दो लड़कियां निकल कर सामने आई.
यह सवाल बड़ा था. बाद में भले सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव सामने आये, प्रदर्शनकारियों से मिले और उनका हौसला बढ़ाया लेकिन प्रदर्शन के समय सिर्फ लड़कियां ही आगे क्यों थीं, यह पार्टी में मुद्दा बन गया.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में वैसे तो बहुत सी महिलाएं राजनीति में सफल हुई और प्रदेश की मुख्यमंत्री और यहां से जीतकर प्रधानमंत्री तक बनीं लेकिन सड़क पर आर-पार के संघर्ष में आमतौर पर महिलाओं को इतना मुखर होकर लड़ते नहीं देखा गया. इधर नयी उम्र की लड़कियां अपने आप आगे आ रही हैं. संघर्ष में पुलिस की लाठी खाने, चोट लगने, खून बहने, जेल जाने से भी नहीं डरती. लड़की की छुई-मुई, नाज़ुक, कमज़ोर छवियां अब तेजी से टूट रही हैं. उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य के लिहाज से यह एक अहम बदलाव है.
क्या लड़कियों को डर नहीं लगता?
पूजा शुक्ल आज लखनऊ में जाना पहचाना नाम हैं. पिछले 7 जून 2017 को इन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को काला झंडा दिखाया था. उसके बाद ये 26 दिन जेल में रही. इसी साल 29 जून को उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में धरना दिया था जब इनको प्रवेश नहीं दिया गया था. उन्होंने 2 जुलाई से भूख हड़ताल भी की. पूजा का कहना हैं, “जिस तरह सामाजिक व्यवस्था में लड़कियों का शोषण होता है, पित्रसत्ता में दमन हुआ है, वो बहुत हो गया हैं. हम सारी समस्याएं अन्दर ही अन्दर झेल रहे थे. व्यवस्था से मार खाने के बाद अब पुलिस की लाठी से डर नहीं लगता हैं.”
अमित शाह को काला झंडा दिखाती पूजा और नेहा
पूजा के मुताबिक अब महिलाएं अपने मुद्दे को लेकर खुद सामने आकर नेतृत्व करना चाहती हैं.
नेहा यादव, अपने मुखर होने की वजह पुरुषवादी मानसिकता में परिवर्तन होना मानती हैं. वो बताती हैं, “देखिये जब हम किसी भी राजनीतिक दल में जाते हैं तो हमको इस बात का सामना करना पड़ता है, कि ये लड़की है संघर्ष कैसे करेगी, कैसे लड़ेगी. अब हम खुद अपना नेतृत्व करके दिखाना चाहते हैं. अब हमको इस बात की परवाह नहीं कि मुकदमे लग गए, जेल जाना पड़ा, लाठी खानी पड़ी, ये सब बातें छोटी हो जाती हैं.”
नेहा के अनुसार ये सब आसान नहीं हैं. “ये सब करने में फेमिली, फ्रेंड्स, समाज किसी का सपोर्ट नहीं रहता. हर कोई कहता हैं, पढ़ी लिखी हो ये सब क्यूं कर रही हो. लेकिन हमको यही मानसिकता बदलनी हैं. अब हम सिर्फ सोशल एक्टिविज्म तक सीमित नहीं रहना चाहते, हमको नेतृत्व चाहिए अपना, इसीलिए लड़ेंगे.” नेहा यादव सेंटर फॉर फ़ूड टेक्नोलॉजी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय की शोध छात्र हैं और छात्र संघ अध्यक्ष पद की उम्मीदवार हैं.
धरना प्रदर्शन
राजनीतिक धरने प्रदर्शन में अब उत्तर प्रदेश में फोटो जर्नलिस्ट्स की असाइनमेंट तब तक पूरी नहीं होती जब तक प्रदर्शन में महिलाओं की फोटो न हो. पुलिस का लाठीचार्ज, पानी की बौछार, बैरिकेड के ऊपर अक्सर महिलाओं की तस्वीर दिख जाती हैं. पवन कुमार लखनऊ में पिछले 28 सालों से फोटो जर्नलिस्ट हैं. उनकी फोटो अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ग्रुप्स में छपती हैं.
पवन बताते हैं, “अब महिलाएं जागरूक हुई हैं, वो अपने हक़ के लिए खुद लड़ने लगी हैं. वैसे धरना प्रदर्शन तो पुरुषों की लड़ाई मानी जाती हैं लेकिन अब इसमें महिलाएं आगे रहती हैं. ज़ाहिर हैं वो पुरुषों के बराबर आती हैं तो कैमरा भी चलता रहता हैं.”
सपा के साइकिल मार्च में नेहा यादव
अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर विमेंस स्टडीज की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ तरुशिखा सर्वेश का मानना हैं कि शैक्षिक संस्थानों में छात्र संघ चुनावों का भी इसमें बहुत योगदान है. “पोलिटिकल एक्टिविज्म और छात्र राजनीति का बड़ा योगदान हैं इन लडकियों के सशक्तिकरण में. अब वो सामने निकल कर आ रही हैं. लड़कियां अब बाहर निकल रही हैं. घर में कैद रहती तो पितृसत्ता का बोध इतनी जल्दी नहीं होता और न ही घर में वो झंडा दिखा पाती. जब आप किसी बड़े छात्र आन्दोलन का हिस्सा बनते हैं तो आपका एक्सपोज़र होता हैं. आप अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो जाते हैं. इसीलिए छात्रों का चुनाव और पोलिटिकल एक्टिविज्म भी ज़रूरी हैं जिससे उनको सामूहिक और सामाजिक ज़िम्मेदारी का बोध होता हैं.”
डॉ तरुशिखा के अनुसार ये लड़कियां इस बात का सटीक उदहारण हैं कि इनका सही एक्सपोज़र हुआ. इनका स्वयं का आत्मविश्वास बढ़ जाता है जब इनके पीछे कुछ जागरूक लोगों का समूह हो.
वैसे बहुत योगदान अब सोशल मीडिया का भी हो गया हैं. चीज़ें अब आसान हो गई हैं. अब आप अपना वीडियो, फोटो फेसबुक पर शेयर कर सकते हैं. कहीं पर भी हों, आपकी पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व इसको देख सकता हैं, संज्ञान लेता हैं. लोगों में आपकी छवि बनती हैं, आपकी पहचान निर्मित होती है.
लेकिन इसके बाद भी संघर्ष का रास्ता हमेशा पथरीला होता हैं. अगर इस पर नई लड़कियां चलने का साहस दिखा रही हैं तो ये एक अच्छी ख़बर है.