बस्तर डायरी पार्ट-2: ‘एक दिन मैं भी ऐसी ही एक गोली से मारा जाऊंगा’

प्रकृति के सबसे करीब रह रहे दंडकारण्य के आदिवासियों की प्राकृतिक मौत बहुत कम होती है. हर घर में गोलियों से मरने वाली कहानियां मौजूद हैं.

WrittenBy:राहुल कोटियाल
Date:
Article image

14 अगस्त

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

सुबह छह बजे हम लोग इस गांव से आगे बढ़े. दंडकारण्य की असल खूबसूरती मुझे अब ही दिखाई पड़ी. घने हरे जंगल और बीच-बीच में आदिवासियों के धान के खेत. ये पूरा इलाका एक तिलिस्म जैसा लगता है. जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते हैं, नई-नई जानकारियों से रूबरू होते हैं. गांव के पास बने मरघटों से आपको अंदाज़ा होता है कि यहां कई जनजातियों में मृतकों को जलाने की नहीं बल्कि दफनाने की परंपरा है. ऐसी कई कब्र भी यहां देखने को मिलती हैं जिनके ऊपर बड़े-बड़े पत्थर रखकर स्मारक बनाए गए हैं. यहां मुख्यतः गोंड, मुरिया, माडिया, भतरा, महार, दोरला या हल्बा जनजाति के लोग रहते हैं. इनमें से अधिकतर जनजातियों में यह परंपरा अब बदलने लगी है और कई लोगों ने अब मृतकों का दाह संस्कार करना भी शुरू कर दिया है.

करीब 10-12 किलोमीटर चलने और कमर तक पानी वाली दो बरसाती नदियों को पार करने बाद सुबह नौ बजे हम लोग गोमपाड़ गांव पहुंचे. इस गांव के कई लोग बीती छह अगस्त को हुई मुठभेड़ में मारे गए हैं. इस मुठभेड़ की हकीकत जानने के लिए ये रिपोर्ट पढ़ी जा सकती है. इस गांव में सैन्य बलों को लेकर लोगों में गुस्सा है. दो साल पहले ही इस गांव की एक लड़की- मड़कम हिडमे की सुरक्षाबलों के साथ हुए कथित टकराव में मौत हुई थी. गांव वालों का आरोप है कि सैन्य बल के जवान उसे घर से उठा ले गए थे और फिर उसकी लाश ही बरामद हुई. उसके साथ बलात्कार हुआ था और उसके गुप्तांग के साथ ही पूरे शरीर को क्षत-विक्षत किया गया था. इस मामले की जांच आज भी लंबित है.

राज्य और पुलिस के प्रति भारी आक्रोश होने के बावजूद भी लोगों में एक उम्मीद अभी बाकी है. इसी उम्मीद के चलते लोगों ने अपने गांव के उन छह लोगों के शवों को जलाया नहीं है जो बीती छह अगस्त को मारे गए थे. उनके शवों को गांव के मरघट में दफनाया गया है. इस उम्मीद में कि शायद कोई निष्पक्ष जांच हो तो इनके दोबारा पोस्टमार्टम की संभावनाएं बची रहें. ऐसा ही दो साल पहले हिडमे के मामले में भी हुआ था जब हाई कोर्ट के आदेश पर उसके शव का दोबारा पोस्टमार्टम हुआ था. दफनाने की परंपरा इस गांव में पहले से भी रही है, लेकिन बीते कई सालों से गांव के लोगों ने इसे बदल दिया था. इस परंपरा को अगर दोबारा शुरू किया गया है तो इसके पीछे न्याय की उम्मीद और व्यवस्था पर भरोसा ही मुख्य कारण है.

गोमपाड़ गांव के बाद हम लोग नुल्कातोंग गांव पहुंचे. यहां आने के लिए लगभग आठ किलोमीटर और पैदल चलना पड़ा. इस गांव के भी कई लोग बीती छह अगस्त को मारे गए थे और वह कथित मुठभेड़ इसी गांव के पास हुई थी. गांव में लगभग हर व्यक्ति का ये कहना है कि मुठभेड़ फर्जी थी जिसमें निर्दोष गांव वालों को मारा गया. हमसे मिलने पहुंचे गांव के लोगों के पास मारे गए लोगों की कुछ तस्वीरें थी तो कुछ के पास उनके आधार या राशन कार्ड. एक व्यक्ति अपनी हथेलियों में उन गोलियों के खोखे भी चुन कर लाया था जिन गोलियों से बीते हफ्ते गांव वालों की मौत हुई है.

इसी भीड़ के बीच से एक व्यक्ति हमारे पास आता है और कुछ कागज़ पकड़ाकर चुपचाप लौट जाता है. इन कागजों में मारे गए लोगों के नाम, माता-पिता का नाम, उम्र और पता दर्ज है. साथ ही इनमें एक सन्देश भी है जो सीपीआई (माओवादी) यानी नक्सलियों ने जारी किया है. इस सन्देश में बताया गया है कि छह अगस्त को हुई मुठभेड़ पूरी तरह से फर्जी थी. पुलिस के दावे से उलट नक्सलियों ने कहा है कि मारे गए लोगों में से कोई मिलीशिया का सदस्य नहीं था. अमूमन जब भी कोई नक्सली मारा जाता है तो सीपीआई (माओवादी) ये स्वीकार करती है कि उनका कोई साथी मारा गया है. लेकिन इन पर्चों में उन्होंने स्पष्ट किया है कि मारे गए लोग आम ग्रामीण थे, उनके साथी नहीं. इस पर्चे में कुछ अन्य घटनाओं का भी जिक्र किया गया है जिनमें सैन्य बलों पर ग्रामीणों के शोषण और बलात्कार के आरोप लगाए गए हैं.

imageby :

भाकपा (माओवादी) द्वारा जारी किया गया पर्चा

दूर-दराज के इन गांवों में ऐसा कोई निशान आपको नहीं मिलता जिससे एहसास हो कि देश पिछले कुछेक सौ सालों में खास बदला है, कथित ‘विकास’ के कदम इस इलाके में दूर-दूर तक नज़र नहीं आते. दूर-दूर तक न कोई स्कूल है, न अस्पताल न ही कोई अन्य सरकारी कार्यालय. कुछ प्राथमिक स्कूल यहां बनाए गए थे लेकिन सलवा-जुडूम के अभियान में ज्यादातर स्कूल या तो तोड़ दिए गए या जला दिए गए. यहां हर घर में कई-कई कहानियां दफन हैं. लगभग हर घर में किसी न किसी सदस्य की मौत गोली लगने से ही हुई है. ये गोली कभी सैन्य बलों की होती है, कभी सलवा-जुडूम में शामिल लोगों की तो कभी नक्सलियों की. प्रकृति के इतने पास रहने वालों की प्राकृतिक मौत बहुत कम ही होती है.

ये पूरा इलाका वन क्षेत्र है लेकिन वन विभाग के अधिकारी/कर्मचारी यहां कभी नहीं आते. जंगल पूरी तरह से आदिवासियों का है और आदिवासी जंगलों के. यहां जीवन आज भी वैसा है जैसा कुछ सौ या हजार साल पहले रहा होगा. कई महिलाएं यहां आज भी शरीर के ऊपरी हिस्से में कुछ नहीं पहनती और दैनिक दिनचर्या के लिए आज भी ऐसी कई चीज़ों का इस्तेमाल होता है जो सैकड़ों साल पहले गांव में ही ईजाद हुई होंगी.

एक दिलचस्प तथ्य ये भी है कि इन गांवों में लगभग हर परिवार के पास गाय है, लेकिन गाय का दूध यहां बिलकुल नहीं पिया जाता. पीना तो दूर, गाय का दूध निकला ही नहीं जाता. उसे पूरी तरह से बछड़ों के लिए छोड़ दिया जाता है. ये आदिवासी गोमांस जरूर खाते हैं और कई घरों में गाय का मांस सूखता हुआ देखा भी जा सकता है. इसके लिए मांस को धुंएं पर रखकर सुखाया जाता है ताकि उसमें नमी खत्म हो जाय और मांस को लंबे समय संरक्षित रखा जा सके.

imageby :

मांस सुखाया जा रहा है

कल 15 अगस्त है. पूरे देश में आज़ादी का जश्न धूमधाम से मनाया जाएगा. लेकिन देश के इस हिस्से में ज्यादातर लोगों को इस तरीख की अहमियत का भी अंदाजा नहीं है. यहां सबकुछ आम दिनों की तरह ही चलता रहेगा. बल्कि ये भी संभव है कि इनमें से किसी गांव में कल काला झंडा फ़हराया जाए. कई बार नक्सलियों की सांस्कृतिक शाखा – चेतना नाट्य मंच के लोग ऐसा करने गांवों में आते हैं. इस दौरान अतिवादी वाममार्गी संगठनों के नाटक आदि प्रदर्शित होते हैं. इनमें मूल निवासियों के अधिकारों की बात करते हुए सरकार के खिलाफ प्रतिरोध दर्ज करने की अपील की जाती है.

शाम करीब पांच बजे हम लोग नुल्कातोंग गांव से वापसी के लिए निकले हैं. हमें अपनी गाड़ी तक पहुंचने के लिए लगभग बीस किलोमीटर पैदल रास्ता तय करना है. मंगल हमारे साथ आधे रास्ते तक रहेगा, इसके बाद वो अपने गांव लौट जाएगा. वापसी में मंगल कहता है, “मेरी मौत भी शायद ऐसी ही होगी. किसी दिन मुझे भी गोली लगेगी और कहा जाएगा एक नक्सली मारा गया. मुझे अब डर भी नहीं लगता. इन गांवों में लोग प्राकृतिक मौत से कम मरते हैं और गोली खाकर ज्यादा. हम लोग गांव छोड़कर भी कहां जाएंगे. यहीं रहना है और यहीं मरना है तो वैसे ही मरेंगे जैसे गांव वाले धीरे-धीरे मर ही रहे हैं.”

मंगल ने छत्तीसगढ़ के ही एक शहर में रहकर दसवीं तक पढ़ाई की है. वो अब भी कई बार शहर तक हो आता है जो कि इस क्षेत्र में असामान्य बात मानी जाती है. ऐसा इसलिए क्योंकि जैसे ही किसी व्यक्ति की आवाजाही गांव से शहर की ओर बढ़ने लगती है वो पुलिस और नक्सलियों, दोनों के निशाने पर चढ़ जाता है. पुलिस उसे नक्सलियों के दूत की तरह देखने लगती है और नक्सली उसे पुलिस के मुखबिर के रूप में. लेकिन मंगल कहता है कि वो घर में अकेला लड़का है. थोड़ा-बहुत पढ़ कर अगर शहर में नौकरी करने लगेगा तो शायद इस दुष्चक्र से बाहर निकल सकेगा.

बात ही बात में मंगल एक ऐसी बात कहता है जिसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. वह बताता है कि यहां जब भी पुलिस लोगों को मारती है तो पोस्टमॉर्टम के बाद उनके शवों को काली थैलियों में लपेट कर गांव से आठ-दस किलोमीटर दूर ही फेंक जाती है. वहां से लोग उनके क्षत-विक्षत शवों को खुद ही ढोकर गांव तक लाते हैं और उनकी अंतिम क्रिया करते हैं. मंगल कहता है, “मैं जब शहर में रहता था तो कभी-कभी मेरे दोस्त बाज़ार से मीट लाते थे. मैंने उन्हें कहा था कि आगे से कभी भी काली थैली में मीट लेकर मत आना. मैंने इतने शव काली थैलियों में लिपटे देखे हैं कि अब मुझे वो थैली और उसमें मांस देखते ही घिन होने लगती है.”

imageby :

गांव में बने कुछ स्मारक

वापस अपनी गाड़ी तक पहुंचते-पहुंचते रात के साढ़े नौ बज चुके हैं. पिछले 26 घंटों में हमने 55 किलोमीटर से ज्यादा का पैदल सफ़र तय किया है. बरसात और नदी-नाले पार करने के कारण कपड़े और जूते भीग चुके हैं और पैरों में छाले हो गए हैं. गाड़ी में बैठते ही ऐसा लग रहा है जैसे इससे आरामदायक जगह दुनिया में और कोई नहीं हो सकती. हमने गाड़ी वापस सुकमा की तरफ बढ़ाई ही है कि पुलिस की एक टीम ने हमें रोक लिया है. “कौन हैं आप लोग, कहां से आ रहे हैं, कहां गए थे, क्यों गए थे, किससे पूछकर गए थे, किसे बताया था जाने से पहले, अपने पहचान-पत्र दिखाइये, अपने मोबाइल नंबर बताइए” ये तमाम सवाल एक साथ हमसे पूछ लिए गए.

पुलिस के साथ ही एक व्यक्ति डायरी लेकर खड़ा है. वह हमें बताता है कि वो एक स्थानीय पत्रकार है और हमसे वह सवाल पूछता है जो पुलिस नहीं पूछ सकती थी. मसलन, “गांव वालों ने आपको क्या बताया, मुठभेड़ के बारे क्या बात हुई, आप लोग क्या रिपोर्ट बनाने वाले हैं, आप कौन-कौन से गांव में गए, किस-किस से मिले आदि.”

इन पत्रकार से जब हमारे एक साथी ने पूछा कि आपके संपादक कौन हैं, तो इन्हें उसकी भी जानकारी नहीं थी. मेरे सूत्र ने बताया कि ये कोई पत्रकार नहीं बल्कि पुलिस की इंटेलिजेंस का आदमी था. जो सवाल पुलिस हमसे नहीं कर सकती, जिन सवालों के जवाब देने के लिए हम बाध्य नहीं, वे सवाल ऐसे पत्रकार बने लोगों के जरिये पुछवा लिए जाते हैं.

वापसी में कम-से-कम तीन बार हमें रोका गया और वही सवाल बार-बार पूछे गए. हमारी सारी जानकारियां दर्ज की गई. लेकिन हमें ख़ुशी इस बात की थी कि ये सब लौटते हुए हुआ. अगर जाते वक्त होता तो हमारा गांवों तक पहुंचना बेहद मुश्किल होता. कल जब हम इन गांवों में जा रहे थे तो नक्सलियों ने सुकमा बंद की घोषणा कर रखी थी. सड़क पर गाड़ियां बहुत कम थी और शायद इसलिए सैन्य बलों को किसी पत्रकार के यहां पहुंचने की उम्मीद कल नहीं रही हो.

पत्रकारों को लेकर पुलिस, सैन्य बल और सरकारी अधिकारियों का इतना चौकन्ना रहना ही कई सवाल खड़े करता है. बस्तर में चीज़ें यदि सरकार के स्तर पर दबाई-छिपाई नहीं जा रही तो पत्रकारों के मौके पर पहुंचने से शासन-प्रशासन इतना घबराया हुआ क्यों रहता है? क्यों ऐसी किसी भी घटना के बाद एक पूरा तंत्र सिर्फ यही सुनिश्चित करने में लगा दिया जाता है कि स्थानीय लोगों की बात राष्ट्रीय मंचों तक बिल्कुल न पहुंच सके.

बस्तर बेहद खतरनाक दौर से गुज़र रहा है. यहां हर रोज़ आम आदिवासी मारे जा रहे हैं और उनकी चर्चा तक कहीं नहीं है. छह अगस्त की घटना में 15 लोग एक साथ मारे गए इसलिए ये घटना चर्चाओं में शामिल हुई. छोटी-छोटी कई घटनाएं तो यहां रोज़ घट रही हैं और कोई इन पर ध्यान देने वाला नहीं है. कभी नक्सली किसी व्यक्ति की मुखबिर होने के नाम पर हत्या कर रहे हैं, कभी सैन्य बलों के जवानों को निशाना बनाया जा रहा है और कभी आम आदिवासी इस लड़ाई में मारे जा रहे हैं. जो चुनिंदा लोग इस मुद्दे पर लगातार लिखने की हिम्मत कर रहे हैं उन्हें पुलिस कई-कई तरह के मामलों में फंसाकर जेल भेज रही है. लेकिन इस सबसे ज्यादा दुखद ये है कि राष्ट्रीय स्तर पर बस्तर की दुर्गति कहीं चर्चा का मुद्दा ही नहीं है.

बीती छह अगस्त को जो लोग मारे गए उनके नाम थे अडमा, आयता, हुंगा, हिडमा, मूखा, बामून आदि. इनकी जगह अगर मृतकों का नाम राहुल, रवि, निखिल, प्रदीप, संजय आदि होता तो क्या तब भी राष्ट्रीय स्तर पर यह मुद्दा ऐसे ही दब जाता? आदिवासी परंपराओं और संस्कृति से मुख्यधारा का समाज इस कदर कटा हुआ है कि उनके साथ जो हो रहा है, उससे समाज की कोई संवेदनाएं नहीं जुड़ी हैं. आदिवासी इलाकों में मौत की ख़बरें सिर्फ एक संख्या बनकर आती हैं और आकंड़ों में दर्ज होकर ख़त्म हो जाती हैं. लाल लकीर के भीतर एक पूरा समाज, एक पूरी संस्कृति धीरे-धीरे ख़त्म हो रही है और हमें इसकी भनक तक नहीं है.

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like