रूह से रूबरू होने का जरिया हैं नुसरत फतेह अली खां

हिंदुस्तानी मौशिकी के बेताज शांहशाह नुसरत फतेह अली खां की 21वीं पुण्यतिथि पर स्मृतिशेष.

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योग वशिष्ठ के अनुसार, “संसार कथा सुनने के बाद के शेष-प्रभाव की तरह है.” मगर नुसरत फ़तेह अली खान को सुनकर तो मैं कहूंगा कि संसार उनकी कव्वाली के बाद के शेष-प्रभाव की तरह है. कोई ताज़्जुब नहीं तभी तो उनकी ऑडियंस पुरज़ोर बेइख़्तियारी और सामूहिक कैफ़ियत तारी के अहसास का तजकिरा करती थी.

नुसरत जिक्र करते हैं कि एक दफ़ा वो दादा साहब पंजाबी का शेर पेश कर रहे थे तो पूरी ऑडियंस को एक ख़ुमार ने अपने गिरफ्त में ले लिया. हजारों की तदाद में लोग खड़े होकर रोने लगे. खुद नुसरत साहब पर भी सुरूर छा गया और वो भी श्रोताओं के साथ रोने लगे.

एक और वाक़या है जब पेरिस में रात भर संगीत की महफ़िल चलती रही. दुनिया भर से बेहतरीन फ़नकार अपने फन का मुज़ाहिरा कर रहे थे. जब खान साहब की बारी आयी तो सुबह के पांच बज गये थे. उन्होंने सोचा कि श्रोता थक गए होंगे. सो उन्होंने एक छोटा सा क़लाम पेश किया. लेकिन श्रोताओं को उनकी गायकी इतनी पसंद आयी कि उनको बार-बार गाने की गुज़ारिश करते रहे और सुबह आठ बजे तक गवाया.

एक परफॉर्मर के अलावा नुसरत अलहदा कम्पोज़र भी थे. हिंदुस्तान में भी कई म्यूज़िक डायरेक्टर्स, ख़ास तौर से अनु मलिक और नदीम-श्रवण ने उनके कम्पोजिशन्स कॉपी किये, बगैर उनका आभार अदा किये.

एक इंटरव्यू में जब उनसे पूछा जाता है कि आपको बेशुमार कॉपी किया गया. किसने आपको सबसे बेहतर कॉपी किया. तो वो बड़ी मासूमियत से जवाब देते हैं- ‘ विजू शाह और अनु मलिक’. ‘तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त’, ‘मेरा पिया घर आया’, ‘कितना शोना’, ‘साँसों की माला पे’ जैसे मशहूर हिंदी गाने मूलतः उन्हीं की कंपोजिशन्स हैं. इसके अलावा उन्होंने हिंदी फिल्मों में ‘कैसा ख़ुमार है’, ‘दूल्हे का शेहरा’ जैसे गाने गाए भी हैं.

उनके खानदान का 600 सालों से भी अधिक कव्वाली गाने का इतिहास रहा है. हालांकि नुसरत के वालिद उस्ताद फ़तेह अली खां नहीं चाहते थे कि वो मौशिकी को अपना पेशा बनायें. वो नुसरत को डॉक्टर बनते देखना चाहते थे. लेकिन जब उस्ताद साहब अपने शागिर्दों को सिखा रहे होते तो नुसरत चुपके से उसे सुन के गाने की कोशिश करते. ऐसे ही एक दिन जब वो रियाज कर रहे थे तो उस्ताद साहब ने देख लिया. उसके बाद उन्होंने नुसरत को बाकायदा मौशिकी की ट्रेनिंग देना शुरू किया.

उस्ताद फ़तेह अली के गुजरने के बाद लोगों ने कहा कि कव्वाली पार्टी में अब वो बात नहीं रही. मगर 1964 में जब उनकी परफॉर्मेंस देखा तो कहा कि नुसरत, उस्ताद साहब की विरासत को और भी आगे ले जायेंगे. बाद में उन्हें ‘शहंशाहे कव्वाली’ के ख़िताब से नवाजा गया.

हालांकि अपने अजीज़ भतीजे राहत अली को उन्होंने जिन्दा रहते ही अपनी विरासत की मिशाल सौंप दी थी, जो ना सिर्फ हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बल्कि पूरे उपमहाद्वीप के चहेते फनकारों में से हैं. मौजूदा संगीत की दुनिया में शास्त्रीय संगीत की छुअन लिए सूफी क़लाम को सुनने के लिए हम पटियाला घराने के पाकिस्तानी चरागों, राहत फ़तेह अली और शफ़क़त अमानत अली का ही रुख़ करते हैं.

नुसरत हिंदी, उर्दू, पंजाबी, पूर्वी, फ़ारसी और उर्दू भाषाओं में दुनिया भर में प्रस्तुतियां देते थे. पश्चिम के लोग तो उनकी जबान भी नहीं समझते थे फिर भी उनको बेशुमार मोहब्बत बख़्शी. उन्होंने पीटर गैब्रिएल, माइकल ब्रूक, जोनाथन एलियस और एडी वेडर जैसे प्रसिद्ध पाश्चात्य संगीतकारों के साथ जुगलबंदियां कीं.

उनकी आवाज के दायरे से पेशतर होना चाहें तो सुनें वो आलाप जिसका इस्तेमाल महान फ़िल्मकार मार्टिन स्कारसीज़ ने अपनी फिल्म ‘द लॉस्ट टेम्पटेशन ऑफ क्राइस्ट’ में किया है.

अल्लामा इक़बाल कहा करते थे कि मैं अदबी महफ़िलों और किताबों तक सिमटा था. फ़तेह अली ने मेरे क़लाम को गा कर मुझे आम लोगों में मशहूर कर दिया. नुसरत ने भी ख़ुसरो, हाफ़िज और इक़बाल जैसे शायरों के क़लाम को अपनी कव्वाली में खूब गाया.

अपने मशहूर कंपोजिशन ‘सांसों की माला पे’, जो 1979 में भारत में बहुत मक़बूल हुआ, नुसरत सूरदास के ब्रज भाषा में कहे गए छोटे से पद का इस्तेमाल करते है. इसके उच्चारण में भी उनको थोड़ी दिक्कत होती है.

“हाथ छोड़ावत जात हो जो निर्बल जान के मोहें,
हिरदय में से जाओ तो तब मैं जानूं तोहें”

काश कि हिंदुस्तान में भी ऐसा कोई कंपोजर होता जो सूर और तुलसी के पदों और दोहों को उसी तरह पापुलर धुनों में ढालता जैसे नुसरत ने ख़ुसरो, मजाज और बटालवी के कलाम को अपनी गायकी से आम कर दिया.

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