प्रतिवर्ष प्रेमचंद की जयंती (31 जुलाई) पर दिल्ली में आयोजित साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘हंस’ का 33वां वार्षिक आयोजन
जब लोकतंत्र के आधारभूत मूल्य संकट में हों, तब इसे केंद्र में रखकर हुए एक आयोजन में यातना की पृष्ठभूमि, क्रूरता की समकालीनता और अंततः विवेक की उम्मीद होती ही है. इस प्रकार के आयोजन सोचने-समझने की सामर्थ्य रखने वाले समाजों में नित्य संपन्न होते ही रहते हैं. इनकी शुरुआत में खत्म हो रही मनुष्यता का विश्लेषण होता है और आखिर में एक नई मनुष्यता का आह्वान. दरअसल, यह एक डूबते हुए समय में—आवाजों के समुद्र में—रोशनी में बोलते हुए अंधकार को पहचानते हुए चलना है.
प्रतिवर्ष प्रेमचंद की जयंती (31 जुलाई) पर दिल्ली में आयोजित साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘हंस’ का 33वां आयोजन इस बार ‘लोकतंत्र की नैतिकताएं और नैतिकताओं का लोकतंत्र’ पर केंद्रित रहा. ‘हंस’ के संपादक संजय सहाय ने ‘हंस’ के पूर्व संपादक राजेंद्र यादव को याद करते हुए कहा कि उनकी मृत्यु अकाल-मृत्यु है, क्योंकि उन्हें कम से कम 500 वर्ष जीना चाहिए था. यहां वह दृश्य स्मरणीय है जिसमें मुक्तिबोध की एक कविता का नायक जब घबराए हुए प्रतीक और मुस्काते हुए रूप-चित्र लेकर घर लौटता है, तब उपमाएं द्वार पर आते ही उससे कहती हैं कि सौ बरस और तुम्हें जीना चाहिए.
बहरहाल, हमारे आस-पास इन दिनों लोग अपने ही लोगों द्वारा ‘बेवजह’ मारे जा रहे हैं. इस हंसायोजन के संचालक प्रियदर्शन ने हिंदी में मॉब लिंचिंग का अर्थ खोजने वाले अपने साथी पत्रकारों का जिक्र करते हुए कहा कि इसके लिए हिंदी अर्थ खोजने की जरूरत नहीं है, मॉब लिंचिंग को जल्द से जल्द हमारे शब्दकोश से बाहर होना चाहिए.
सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर गए सालों में सामने आए मॉब लिंचिंग के मामलों को अनजान हिंदुओं में अनजान मुस्लिमों के प्रति बढ़ती नफरत के रूप में पहचानते हैं. बतौर एक कलक्टर उनके पास गुजरात दंगों का व्यापक अनुभव है. वह मानते हैं कि उस दरमियान भी मारने वालों से ज्यादा बचाने वाले लोग थे, लेकिन आज करुणा और हमदर्दी जैसे मूल्य हमारे जीवन-व्यवहार से छिटक कर कहीं दूर चले गए हैं.
हंसायोजन में राजेंद्र यादव को याद करना प्रत्येक वक्ता अपना प्राथमिक दायित्व समझता है, फिर भला कांचा इलैया शेफर्ड जैसे राजनीतिक विचारक और दलित कार्यकर्ता भी इससे अछूते कैसे रहते. उन्होंने अंग्रेजी में उत्पीड़न के इतिहास पर अपनी बात रखी और इस क्रम में राजेंद्र यादव को पहले उत्तर भारत का प्रमुख और फिर संसार का महानतम शूद्र लेखक घोषित किया.
शिक्षाशास्त्री और समाजविज्ञानी के रूप में प्रतिष्ठित कृष्ण कुमार ने लोकतंत्र को प्रबंध-विज्ञान का हिस्सा बताया. उन्होंने माना कि कुछ चीजें सड़ रही हैं, शिक्षा भी उनमें से एक है. उन्होंने चुप्पी की वकालत की और अपने दोस्त अपूर्वानंद का जिक्र करते हुए कहा कि मैंने उनसे चुप रहने को कहा है, वह चार साल से प्रतिरोध कर रहे हैं, लेकिन कुछ नहीं हुआ. उन्हें समझना चाहिए कि चुप रहना भी एक किस्म का प्रतिरोध है. सारे शब्द अब अपने अर्थ खो चुके हैं, हमें नए शब्दों को गढ़ने के लिए चुप रहना चाहिए.
‘फोर्ब्स’ की सूची में 50 सबसे ताकतवर महिलाओं में चुनी गईं इंदिरा जयसिंह अंग्रेजी में अपने पेशे (वकालत) के अनुरूप ही बोलीं. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से जुड़े अपने अनुभवों का उल्लेख किया, और चुप्पी का नहीं मुखरता का पक्ष लिया.
बाद इसके अल्ताफ़ हुसैन हाली के खानदान से ताल्लुक रखने वाली सईदा हमीद ने 1879 के हाली के उस बयान की याद दिलाई जिसमें उन्होंने कहा था कि हर उर्दू वाले को संस्कृत और हिंदी पढ़नी चाहिए, और हर हिंदी वाले को उर्दू. उन्होंने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की कभी जेल में कही गई मशहूर नज़्म ‘निसार मैं तिरी गलियों के ऐ वतन कि जहां/ चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले…’’ को भाव-अर्थ सहित सुनाया.
हमारे आस-पास का बुद्धिजीवन सारांशतः अपनी सारी गतिविधियों में इस चमकदार बात को प्रस्तावित करता नजर आता है कि अब हमें सब कुछ पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है. यह नया सिरा इतना नया होता है कि इसे खोलकर इसका सामना करने का साहस एक चमक में विलीन होकर रह जाता है.
अशोका यूनिवर्सिटी के कुलपति और जाने-माने स्तंभकार प्रताप भानु मेहता भी हंसायोजन के आखिरी वक्ता के रूप में इस प्रकार के ही बुद्धिजीवन का प्रसार करते हैं. वह हिंदी में बोलते हुए स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और संविधान जैसे शब्दों के हथियार बनने की बात करते हैं. पहले ये शब्द दूसरे अर्थों में हथियार थे, अब शब्दबोध के मरण में बिल्कुल दूसरे अर्थों में हैं. भाषा में समझ की संभावनाएं समाप्त हो गई हैं. इस तरह देखें तो साहित्य, लोक-निर्माण और लोकतंत्र की गुंजाइश अब बची नहीं है.
प्रताप भानु मेहता सहमतों को ही सहमत करने वाली गतिविधियों से खिन्न व्यक्ति की तरह प्रतीत होते हैं. उन्हें खोजते हुए—जिन्हें वास्तव में हमारी बातें सुननी चाहिए और हम पर विश्वास करना चाहिए. इस प्रकार की खोज आत्मालोचन पर जाकर ही समाप्त हो जाती है, जबकि समाधान उसके आगे की परिघटना है. वह सवाल उठाते हैं कि क्या हम सच में नैतिक लोग हैं? क्या सच में हमारा जीवन नैतिकता का आदर्श है? वह खुद ही इसका जवाब देते हैं कि दरअसल, हम सब पाखंडी हैं. आज हमारी नैतिकता का सबसे पहला काम किसी न किसी का पाखंड दिखाना है. पाखंड दिखाना एक मनोवैज्ञानिक हथियार है. पाखंड का खेल लोकतंत्र का सबसे खतरनाक खेल है. पाखंड दिखाना सबसे सरल है, इसके लिए प्रमाणिकता नहीं, बस थोड़े-से संदेह की जरूरत होती है.
इस प्रकार के विमर्श से गुजरकर लगता है कि हमारा समाज एक मरणोन्मुख व्यक्ति है और हमारे बुद्धिजीवी उसके परिजन जो उसे एस्केलेटर पर चढ़ाकर कहीं से कहीं ले जाना चाहते हैं, जबकि वह एस्केलेटर पर चढ़ने में बहुत डरता है. इस स्थिति में प्रताप भानु मेहता राष्ट्रवाद को मानवाधिकारों का हनन मानते हुए कहते हैं कि वह बगैर दुश्मन के जिंदा नहीं रह सकता. इसके बाद वह धीमे से राष्ट्रवाद को पहचान-बोध के साथ खड़ा कर देते हैं. पहचान की राजनीति को वह राष्ट्रवाद जैसी चीज ही मानते हैं. और अंततः नई व्यक्तिगत पहचान, नए मानवाधिकार और सब कुछ पर नए सिरे से सोचने की जरूरत…
इस युग के महाकवि गुलज़ार ऐसे ही मौकों के लिए कह चुके हैं :
‘‘कहां से चले कहां के लिए
ये खबर नहीं थी मगर
कोई भी सिरा जहां जहां मिला
वहीं तुम मिलोगे
के हम तक तुम्हारी दुआ आ रही थी…’’