शरिया कोर्ट: सेकुलर राजनीति को कमजोर कर रहे उलेमा

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा देश भर में शरिया अदालतें बनाने की घोषणा उनकी सियासत के लिए फायदेमंद हो सकता है लेकिन आम मुसलमान को इसका खामियाजा भुगतना होगा.

WrittenBy:मोहम्मद सज्जाद
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एक बार फिर से ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) प्राइम टाइम टीवी न्यूज़ पर जगह बनाने में सफल हुआ है. 15 जुलाई, 2018 को दिल्ली में बोर्ड की मीटिंग होनी है. पहले यह मीटिंग लखनऊ में होनी थी लेकिन अचानक कोई बिना कारण बताए मीटिंग का स्थान बदल दिया गया. टीवी न्यूज़ के जरिए ऐसा इस बात की जानकारी लोगों तक पहुंच रही है कि 15 जुलाई को होनी वाली मीटिंग में एआईएमपीएलबी हर जिले में दारुल-कज़ा की स्थापना करना चाहता है. यह मुस्लिम दंपत्तियों के शादी, तलाक व संपत्ति से जुड़े मामलों का निपटारा करेगा.

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मजेदार है कि इसी वर्ष फरवरी में हैदराबाद में हुए 26वें वार्षिक बैठक में इस आशय से जुड़ी कोई बातचीत नहीं हुई. उसके बाद 15 अप्रैल, 2018 को, एआईएमपीएलबी के नेता वली रहमानी ने पटना में “दीन बचाओ, देश बचाओ” नाम की एक बड़ी रैली का आयोजन किया. वहां भी ऐसी कोई घोषणा नहीं की गई. रैली खत्म होने के साथ ही, वली रहमानी के सहयोगी (जिन्होंने मुसलमानों को रैली के लिए जुटाया) जो कि एक प्रोपर्टी एजेंट हैं, उन्हें भाजपा की सहयोगी दल जेडीयू ने बिहार विधान परिषद का सदस्य नियुक्त किया. इससे उन कथित अफवाहों को बल मिला कि यह सबकुछ बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की शह पर हो रहा है.

इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि मुस्लिम मौलानाओं के इस प्रतिनिधि को भारतीय मुसलमानों के धार्मिक व सांस्कृतिक मान्यताओं के संरक्षक के तौर पर देखा जाता है. 15 दिसंबर, 2017 को केंद्र सरकार के ट्रिपल तालाक पर बिल को ‘उकसावे’ के तौर पर बताया जा रहा है. यह दकयानूसी प्रथा सुन्नी मुसलमानों के एक सीमित पंथ के भीतर मौजूद थी.

हैदराबाद और पटना में हुए आयोजनों पर लोगों की बहुत सारी प्रतिक्रियाएं आईं. एआईएमपीएलबी पर सवालों की बौछार हुई जैसे-

1- 22 अगस्त, 2017 को सुप्रीम कोर्ट की पांच में से तीन जजों ने यह स्पष्ट किया था कि फैसला कुरान को ध्यान में रखकर ही दिया गया है. लेकिन एआईएमपीएलबी ने फैसले का स्वागत नहीं किया.

2- एआईएमपीएलबी सुप्रीम कोर्ट में इस बात पर अड़ा रहा कि पर्सनल लॉ के मामले संसदीय हस्तक्षेप से सुलझाए जाने चाहिए ना कि कोर्ट उसमें दखल दे. इतने के बावजूद एआईएमपीएलबी ने अपने बिल का मसौदा पेश नहीं किया.

3- अपने ही कहे अनुसार, एआईएमपीएलबी एक मॉडल निकाहनामा अब तक नहीं पेश कर सका है. दावा था कि उसमें तलाकशुदा पत्नी और तत्काल ट्रिपल तलाक पर नीति नियामक होंगे.

4- पहले भी 1986 में, एआईएमपीएलबी ने तब की सरकार पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश (शाह बानो) को रद्द करने का दबाव बनाया था और उसके खिलाफ एक कानून पारित करवाया था.

1986 से सभी तरह के अकादमिक और पत्रकारीय विश्लेषण इस ओर इशारा करते रहे हैं कि भारत में हिंदुत्व अपने पांव तेजी से जमा रहा है. यह बताने की कोशिश हो रही है कि सेकुलरवाद और अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर सत्ताधारी पार्टियां मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति कर रही हैं.

एआईएमपीएलबी का हर जिले में शरिया कोर्ट बनाने का यह नया क़दम एक खास तरह के टीवी चैनलों को सबसे पहले मालूम चला. ये वही चैनल हैं जिन्हें वर्तमान सरकार का करीबी माना जाता है. अधिकतर समय ये चैनल ऐसे ही विषय पर चर्चा करते हैं जिससे समाज में दरार और ध्रुवीकरण संभव हो सके. वे अर्थशास्त्र और गवर्नेंस के मुद्दों पर प्राइम टाइम पर बहसें नहीं करते.

कार्यक्रम का स्थान लखनऊ से दिल्ली किया जाना और एक ऐसे समय पर इस तरह के एजेंडा को आगे बढ़ाना, जब लोकसभा चुनाव महज कुछ महीने दूर हों, इससे झलक मिलती है कि एआईएमपीएलबी के सदस्य भाजपा के साथ मिलकर कुछ खेल रचने की कोशिश कर रहे हैं. इसलिए ऐसे मुद्दों को प्राथमिकता दी जा रही है जिससे भाजपा को फायदा मिल सके और समाज में साप्रंदायिक ध्रुवीकरण संभव हो. इससे होगा यह कि किसानों, शिक्षित बेरोजगारों, दलितों और पस्त आर्थिक स्थितियों (जीएसटी और नोटबंदी सहित) पर जनता में बढ़ रहे रोष से ध्यान भटकाना आसान होगा.

ये राजनीतिक असफलताएं अगले चुनाव के पहले भाजपा की मुश्किलें बढ़ा सकती हैं. उलेमाओं का एक धड़ा, जानबूझकर या अनजाने में भाजपा को जनाधार वापस दिलाने में मदद कर रहा है. सिर्फ यही नहीं, उलेमाओं ने सेकुलर पार्टियों को असमंजस की स्थिति में डाल दिया है. अगर वे उनका खुलासा करती हैं, तो उन्हें यह डर है कि कहीं वे मुसलमान वोटों से न हाथ धो बैठें. और अगर नहीं बोलते हैं तो भाजपा विपक्ष को किनारे लगा देगी. इस तरह ये उलेमा भारतीय धर्मनिरपेक्षता के लिए खलनायक साबित हो रहे हैं. उग्र हिंदुत्व जिसे सरकार के मंत्रियों का समर्थन प्राप्त है, उसके आगे उलेमा ही सेकुलर एकता को कमजोर कर रहे हैं.

रोचक बात यह है कि ये मुस्लिम संस्थाएं लिंचिंग जैसी घटनाओं के विरोध में बड़ी-बड़ी रैलियां निकालने में सक्षम नहीं हैं. (बहुत हद तक ऐसा इसलिए है क्योंकि एआईएमपीएलबी में अशराफ समुदाय के लोगों का दबदबा है और ज्यादातर लिंचिंग की घटनाएं पसमांदा समुदाय के लोगों के साथ हुई हैं?)

छोटी स्वंयसेवी संस्थाएं और दूसरी संसाधनविहीन संस्थाएं लिंचिंग की घटनाओं पर डेटा, फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट इकट्ठा कर रहे हैं. यही संस्थाएं कोर्ट में न्याय की भी गुहार लगा रही हैं और जितना बन पड़ रहा है पीड़ितों के परिवारों को आर्थिक सहायता मुहैया करवा रही हैं. कानूनी खर्चे, गवाहों को तैयार करना और तमाम केस से संबंधी कार्यों के लिए मेहनत, पैसे, ऊर्जा और प्रतिबद्धता की जरूरत होती है. यह सारा कुछ उन लोगों द्वारा उठाया जा रहा है जो खुद पहले से ही कई तरह की परेशानियों में काम कर रहे हैं. दुखद है कि ये प्रभावशाली उलेमा, इनके साथ आने के बजाय सुविधाजनक राजनीति में शरीक हैं. जानबूझकर या अनजाने में वे हिंसा और विभाजन की राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं. यह हिंदुत्व ब्रिगेड को यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने के लिए भी ‘प्रेरित’ करती है.

देश के आम मुसलमानों की उलेमाओं के इन छिपे हुए हितों के खिलाफ सख्त विरोध में उतरना चाहिए क्योंकि यही उलेमा उग्र हिंदुत्व के अपरोक्ष समर्थक और मुखपत्र बनते नज़र आ रहे हैं.

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