बीजेपी दलितों-पिछड़ों को बाबा साहेब या कबीर की मूर्तियां या फूलमाला, चादर तो दे सकती है, लेकिन वह इन महापुरुषों के सपने का समतावादी समाज नहीं बना सकती.
राजनीति में प्रतीकों का हमेशा से महत्व रहा है. जहां सरकार आम आदमी के जीवन को बहुत कम मौकों पर छूती है, परेशान करने वाली पुलिस या रिश्वत मांगने वाले सरकारी कर्मचारी के तौर पर ही ढेर सारे लोगों के जीवन में आती है और मंत्रियों-सांसदों का आम जनता से संपर्क कम ही हो पाता है, वहां प्रतीकों का महत्व बहुत बढ़ जाता है. मिसाल के तौर पर 20 लाख मतदाताओं वाले किसी लोकसभा चुनाव क्षेत्र में कोई सांसद अगर बहुत ज्यादा मिलता-जुलता है तो भी वह पांच साल में कुछ हजार लोगों से ही मिल पाएगा. उसके काम का असर भी मतदाताओं के एक हिस्से के जीवन को ही छू पाएगा. ऐसे में नेता और राजनीतिक दल छवि यानी इमेज निर्माण को एक महत्वपूर्ण राजनीतिक कार्यभार के तौर पर लेते हैं और यह स्वाभाविक भी है. राजनीति करने पर होने वाले खर्च का अब यह सबसे बड़ा हिस्सा है.
बीजेपी ने एक राजनीतिक दल के तौर पर अपनी छवि निर्माण के कार्य को बेहद गंभीरता से लिया है और इसमें कॉरपोरेट प्रोफेशनलिज्म का प्रयोग किया है. इसलिए बीजेपी जब भी कोई नया प्रतीकवाद गढ़ती है या किसी पुराने प्रतीक को पुख्ता करती है, तो उसे गौर से देखा जाना चाहिए.
जब बीजेपी आंबेडकर को अपनाती है, उनके नाम पर पंचतीर्थ बनाती है या सुहेलदेव की मूर्ति लगाती है, या पासवानों (दुसाधों) के प्रतीक राजा चौहरमल की जयंती मनाती है या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कबीर की मजार पर चादर चढ़ाते हैं तो इसे इमेज बिल्डिंग के एक गंभीर काम के तौर पर देखा जाना चाहिए. विभिन्न सामाजिक समूहों और जातियों के प्रतीकों को जोड़ने के काम में बीजेपी बरसों से लगी है और इसमें उसे कामयाबी भी मिली है.
कुछ दशक पहले तक बीजेपी और उससे पहले जनसंघ की पहचान उत्तर और पश्चिम भारतीय ब्राह्मण-बनिया पार्टी की थी. उसकी यह पहचान क्यों थी, इसका जवाब जनसंघ के इतिहास में है. जनसंघ को आरएसएस ने राजनीतिक विंग के तौर पर खड़ा किया था और चूंकि आरएसएस के शिखर नेतृत्व पर तब तक सिर्फ ब्राह्मण थे (वैसे आज तक आरएसएस में सिर्फ एक अब्राह्मण मुखिया राजेंद्र प्रसाद सिंह बने हैं, जो ठाकुर थे), और उन्हें बनियों का आर्थिक सहयोग मिलता था, इसलिए जनसंघ और फिर बीजेपी के साथ भी ब्राह्मण-बनिया पार्टी वाली छवि चिपक गई.
आजादी के समय भड़की सांप्रदायिक हिंसा के बाद पाकिस्तान से पलायन कर आए कारोबारी वर्ग ने अपने त्रासद अतीत का जवाब आरएसएस में देखा और खासकर दिल्ली-हरियाणा में आरएसएस को इस तबके का मजबूत साथ मिला.
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बीजेपी में बाकी जातियों के नेता नहीं थे या कि बाकी जातियों के लोग बीजेपी को वोट नहीं देते थे. लेकिन यह कोर और पेरिफेरी यानी मूल और हाशिए के दायरे का फर्क है. बीजेपी के कोर यानी मूल में हिंदू सवर्ण जातियां थीं. इन्हें साथ लेकर बीजेपी तमाम तरह के राजनीतिक समीकरण बनाने की कोशिश करती रही है.
बीजेपी ने अपनी पेरिफेरी यानी हाशिए को विस्तार देने की पहली गंभीर कोशिश 1980 के दशक में की. राममंदिर आंदोलन के दौरान बीजेपी ने अपनी पार्टी में खासकर पिछड़ी जातियों के कई नेताओं को राज्य स्तर पर उभारा. ऐसे नेताओं में कल्याण सिंह, उमा भारती, नरेंद्र मोदी, शिवराज सिंह चौहान, ओम प्रकाश सिंह, बंगारू लक्ष्मण, विनय कटियार, गोपीनाथ मुंडे, बंदारु दत्तात्रेय आदि प्रमुख थे.
जिला स्तर पर पिछड़ी जातियों के नेता बड़ी संख्या में खड़े किए गए. बीजेपी में चली इस प्रक्रिया को ‘सोशल इंजीनियरिंग’ नाम से जाना गया. इस प्रक्रिया का वैचारिक नेतृत्व बीजेपी के उस समय के बेहद प्रभावशाली महासचिव गोविंदाचार्य ने किया.
बीजेपी की सोशल इंजिनियरिंग दरअसल उसी समय चल रही एक और सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया ‘सामाजिक न्याय’ की प्रतिक्रिया में सामने आई थी. भारतीय राजनीति में मध्यवर्ती जातियों का उभार 1960 के दशक के अंत में शुरू हो चुका था. राममनोहर लोहिया की शागिर्दी में और दूसरी तरफ चौधरी चरण सिंह के संरक्षण में पिछड़ी और किसान-पशुपालक जातियों के कई नेता उभर रहे थे. यह सब गैरकांग्रेसवाद की छत्रछाया में हो रहा था क्योंकि कांग्रेस के ब्राह्मण-मुसलमान-दलित समीकरण में पिछड़ी जातियों को जगह नहीं मिल पा रही थी. इस वजह से खासकर हिंदी प्रदेशों में पिछड़ी जातियों का झुकाव समाजवादी धारा के तरफ हुआ.
इस प्रयोग में बिहार में कर्पूरी ठाकुर, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार तो यूपी में रामनरेश यादव, रामस्वरूप वर्मा और मुलायम सिंह यादव का उभार हुआ. इसी दौर में कांशीराम भी पहले बामसेफ और फिर डीएस4 तथा आखिर में बीएसपी के साथ एक महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रयोग कर रहे थे और खासकर दलित और पिछड़ी जातियों के बीच उनका असर तेज़ी से बढ़ रहा था.
1984 के लोकसभा चुनाव तक बीजेपी भारतीय राजनीति में तीसरे या चौथे नंबर की पार्टी हुआ करती थी. लेकिन यहां से पार्टी ने अपने चरित्र को बदलने की शुरूआत की. उसकी रणनीति के दो आधार बने. पहला आधार बना, आक्रामक मुसलमान विरोध, जिसे राष्ट्रवाद का मुलम्मा चढ़ाकर पेश किया गया. बीजेपी जब राष्ट्रवाद बोलती है, तो उसके समर्थक समझ लेते हैं कि दरअसल क्या कहा जा रहा है. इसे आकार दिया राममंदिर, धारा 370, यूनिफॉर्म सिविल कोड, तीन तलाक का विरोध, आप्रवासी मुसलमानों का विरोध जैसे मुद्दों ने.
कुछ और सवाल भी सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से उठाए गए. जैसे मुसलमानों की बढ़ती आबादी का खौफ, गोरक्षा, कांग्रेस द्वारा तथाकथित मुस्लिम तुष्टीकरण, लव जिहाद आदि.
बीजेपी की राजनीति का दूसरा आधार बना, पार्टी का नए सामाजिक आधारों में विस्तार. इस क्रम में वनवासी कल्याण आश्रमों के जरिए बीजेपी आदिवासियों के पास गई. पूर्वोत्तर में उसने चर्च के खिलाफ झंडा थामा और खासकर हिंदी प्रदेशों में पिछड़ी जाति के नेताओं को कमान दी. बीजेपी के लिए यह सामाजिक न्याय की काट थी.
बीजेपी का कोर वोटर इस बात से सशंकित था कि भारतीय राजनीति में पिछड़ी और दलितों जातियों की राजनीति मजबूत हो रही है. ऐसे में बीजेपी को ऐसे नेताओं की जरूरत थी जो जन्म के आधार पर तो दलित या पिछड़े हों, लेकिन उनके हक़ की बात न करें और सांप्रदायिक सवालों पर आक्रामक हों. यानी वे अपनी दलित या पिछड़ा पहचान को सांप्रदायिक पहचान में या तो समाहित कर दें या उसके अधीन कर दें.
बीजेपी को दलितों में तो ऐसे नेता कम मिले, लेकिन पिछड़ी जातियों में उसे ऐसे कई नेता मिले. हालांकि जब कभी भी इन नेताओं ने अपनी पिछड़ा पहचान को ऊपर करके उनके मुद्दों को उठाया, बीजेपी ने उन्हें फौरन बाहर का रास्ता दिखा दिया. कल्याण सिंह और उमा भारती के साथ यह हो चुका है.
गोपीनाथ मुंडे भी एक समय हाशिए पर जा चुके थे. हालांकि उनका पुनर्वास भी हुआ. पुनर्वास तो कल्याण सिंह और उमा भारती का भी हुआ. लेकिन ये नेता अपनी पुरानी चमक कभी हासिल नहीं कर पाए.
अब बीजेपी सोशल इंजीनियरिंग के एक और चरण में है. इस बार, उसकी कोशिश चौतरफा है. एक तरफ तो आरएसएस के नेता और कार्यकर्ता दलितों के घरों में सहभोज कर रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ बीजेपी खासकर ओबीसी की उन जातियों को लुभाने की कोशिश में है, जिन्हें समाजवादी धारा की राजनीति में पर्याप्त जगह नहीं मिल पाई.
इसलिए बीजेपी पिछड़ी जातियों के अलग अलग प्रतीकों, देवताओं और राजाओं की खोज कर रही है और उनकी जयंती और पुण्यतिथि के नाम पर उन जातियों को जोड़ने की कोशिश कर रही है. बीजेपी ने कई ऐसे राजनीतिक दलों से तालमेल भी किया है, जो मुख्यरूप से किसी एक जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं.
बीजेपी की रणनीति यह है कि अपने मूल आधार यानी हिंदू सवर्ण वोट को एकजुट रखते हुए और उसे नाराज किए बगैर, ज्यादा से ज्यादा जातियों को जोड़ा जाए. इस रणनीति की सीमा यह है कि बीजेपी वंचित जातियों को खास कुछ दे नहीं पाएगी. क्योंकि ऐसा करते ही उसका सवर्ण वोट बैंक नाराज हो जाएगा. इसलिए बीजेपी को एक ऐसी व्यवस्था करनी है जिसमें शासन का अधिकतम लाभ सवर्ण समूहों को मिले और दलित तथा पिछड़ी जातियों को ढेर सारी मूर्तियां, ढेर सारी तस्वीरें, ढेर सारे तीर्थ और ढेर सारी जयंतियां दी जाएं.
बीजेपी की यह रणनीति उस वक्त तक कामयाब रहेगी, जब तक कि दलित और पिछड़ी जातियां मूर्तियों, तस्वीरों, तीर्थस्थलों और जयंतियों से संतुष्ट रहती हैं. ये जातियां जैसे ही नौकरियां, सत्ता में हिस्सा, बैंक लोन में हिस्सा जैसी भौतिक महत्व की चीजों की मांग करेंगे, यह संतुलन टूट जाएगा.
बीजेपी दलितों-पिछड़ों को बुद्ध, बाबा साहेब या कबीर की मूर्तियां या फोटो या उनकी मजार पर चादर वगैरह तो दे सकती है, लेकिन वह कबीर या बाबा साहेब के सपने का समतावादी समाज नहीं बना सकती. इसलिए नहीं कि उसकी ऐसी मंशा नहीं है. इसलिए कि उसका कोर वोटर यानी मूल आधार हिंदू सवर्ण समाज उसे ऐसा करने नहीं देगा.