आम आदमी पार्टी-गवर्नर की तनातनी पर हिंदी के अखबारों का रुख़

हिंदी मीडिया ने केजरीवाल के गवर्नर आवास पर धरने को “लोकतंत्र का माखौल बताया.”

WrittenBy:आनंद वर्धन
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चार साल पहले, मीडिया पर नज़र रखने वाली संस्था द हूट में मैंने लिखा था कि कैसे हिंदी प्रेस के संपादकीय में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी की धरना राजनीति के कारण पांच पुलिसवालों और फिर केजरीवाल के अचानक इस्तीफे को दुत्कारा गया था.

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एक सशक्त जनमत और अब पर्याप्त समय तक सत्ता में रहने के बाद, आप सरकार और आईएएस अफसरों के बीच तनातनी चल रही है. आप सरकार कथित आईएएस अफसरों द्वारा सरकार को सहयोग न देने के खिलाफ धरने पर थी. यह हमें उन दिनों की याद दिलाता है जब पार्टी अपनी राजनीतिक सार्थकता साबित करने को प्रतिबद्ध दिखना चाहती है. सरकार की रणनीति वही पुरानी है और वैसा ही दृश्य पैदा करती है: राज्य सरकार के मुख्य कर्ताधर्ता गर्वनर आवास में धरने पर हैं. ऐसे में केजरीवाल और गवर्नर के बीच इस तनातनी पर हिंदी दैनिकों का संपादकीय पर क्या झलक रहा है?

देश का सबसे ज्यादा प्रसार संख्या वाले अख़बार दैनिक जागरण ने धरना को लेकर अपने संपादकीय लाइन के तहत ही राय रखी. 15 जून के सिटी पेज पर छपी रिपोर्ट और आकलन में बताया गया है कि कैसे केजरीवाल सरकार का धरना उन्हें ही भारी पड़ गया है. मुख्यमंत्री एक ऐसी सलाह पर काम कर रहे हैं जिससे उन्हें लोगों की सहानुभूति नहीं मिलेगी- “अपने ही बुने जाल में फंसे केजरीवाल.”

अगले दिन 16 जून को, अख़बार ने शहर में पानी के संकट को धरने से जोड़ दिया. अख़बार ने ख़बर का शीर्षक लगाया- “पानी पर मार, सोफे पर सरकार.”

इस ख़बर के साथ और भी जो रिपोर्टें अख़बार में छपी हैं, उनमें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेताओं का पानी की संकट पर प्रदर्शन और शीला दीक्षित का केजरीवाल के धरने पर दिए बयान को जगह दिया गया है- “शर्म आती है सोफे पर पसरे केजरीवाल की फोटो देखकर: शीला दीक्षित.”

अपने संपादकीय टिप्पणी- “प्रशासनिक संकट,” 14 जून को अखबार ने आप सरकार को खींचतान का जिम्मेदार बताया और इस संकट को सुलझाने के बजाय केजरीवाल के प्रदर्शनकारी तरीके की निंदा की.

अख़बार ने लिखा, “दिल्ली सरकार के इस (धरना) तरीके को सही नहीं कहा जा सकता. उन्हें चार महीने से चल रहे इस विवाद को उसी समय सुलझा लेना चाहिए था जब यह चर्चा में आया था. हालांकि अफसर काम कर रहे हैं, यह समझ आता है कि ऐसे माहौल में जहां सीधे मंत्रियों से सामना हो रहा है, वह तनाव में होंगे. नौकरशाही का कामकाज इससे प्रभावित हुआ है. ऐसा नहीं है कि अधिकारी मंत्रियों के खिलाफ असहयोग आंदोलन कर रहे हैं बल्कि वे विरोध स्वरूप बैठकों में शामिल नहीं हो रहे हैं.”

16 जून को दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण ने आप की पहले कार्यकाल से वर्तमान की तुलना करते हुए बताया कि यह ड्रामों से भरपूर थी. हिंग्लिश में लिखा यह स्लोगन भी था- “द ग्रेट पॉलिटिकल मूवी, दिल्ली सरकार पार्ट-2, टू बी कंटिन्यूड…क्लाइमैक्स कब.” फ्लाइअर के साथ एक रिपोर्ट में छपी है जिसमें किसी प्रोजेक्ट का हवाला देकर बताया गया है- दिल्ली के मंत्री मनीष सिसोदिया ने कुबूला है तीन प्रोजेक्ट देरी से चल रहे हैं. अखबार प्रोजेक्ट में देरी का जिम्मेदार केजरीवाल और उनके सहयोगी मंत्रियों को बताता है.

हालांकि 14 जून को संपादकीय में दोनों ही केजरीवाल सरकार और केन्द्र को गवर्नर आवास पर लोकतंत्र का मखौल बनाने की आलोचना की गई. “सम्मान और अस्तित्व के संघर्ष में उतरे केजरीवाल”, रिपोर्ट यह भी बताती है कि दिल्ली के नागरिकों के नाम पर केजरीवाल अपनी निजी लड़ाई भी लड़ रहे हैं. अख़बार मानता है कि केजरीवाल की मांगों में पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग जुड़ना और केजरीवाल का दिल्ली के लोगों से इस मांग को समर्थन देने की अपील करने का मतलब है दिल्ली फिर से अवरोध की राजनीति में प्रवेश कर रही है.

13 जून को नवभारत टाइम्स ने दिल्ली के प्रशासनिक संकट पर दिल्ली सरकार को दोष दिया- “धरने पर सरकार.” इसमें नवभारत ने पार्टी के प्रचार अभियान और प्रशासन के सिद्धांतों के बीच फर्क बताया.

“सच यह है कि आंदोलन करना सरकार का काम नहीं है. वह पार्टी का काम है. हाल में ही, अपने खिलाफ अदालतों में माफीनामे देकर केजरीवाल ने इशारा दिया था कि वह सारे मामले सुलझाकर सिर्फ और सिर्फ गवर्नेंस पर ध्यान लगाना चाहते हैं. इसके अगले कदम के तौर पर अगर वह अवरोधात्मक राजनीति न करें, यह दिल्ली के लोगों के हित में होगा,” अख़बार ने लिखा.

हिंदुस्तान ने धरने को राजनीतिक हितों का टकराव बताया है. इसे एक नई पार्टी के अति उत्साह और प्रशासनिक मामलों में अपरिपक्वता बताया गया है. हिंदुस्तान की 13 जून की रिपोर्ट का शीर्षक है, “दिल्ली का विवाद.” अखबार यह भी बताता है कि इस बार सिर्फ केजरीवाल और गर्वनर का टकराव नहीं है बल्कि यह विपक्षी पार्टियों के गठबंधन से जुड़ी योजना भी लगती है.

मजेदार यह है कि हिंदुस्तान के अंग्रेजी संस्करण हिंदुस्तान टाइम्स ने आप सरकार को एक सुर में अवरोध पैदा करने वाली राजनीति का जिम्मेदार बताया है. अखबार ने तर्क दिया, “गर्वनर के आवास पर धरना देने से केजरीवाल को कोई राजनीतिक फायदा नहीं मिलने जा रहा है. वे कोर्ट जा सकते थे या गवर्नर के साथ मिलकर इस मामले को सुलझाने की कोशिश कर सकते थे.”

हिंदी के अखबारों में टिप्पणियों और रिपोर्टों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है केजरीवाल की पुरानी छवि पुनर्जीवित हो गई है- ‘आप’ टकराव की राजनीति करती है. संवैधानिक और तय प्रशासकीय ढांचे के भीतर काम करना उन्हें नहीं आता. ज्यादातर हिंदी अखबारों ने वर्तमान प्रशासकीय संकट से शहर के रोजमर्रा के प्रशासन पर पड़ने वाले असर की ओर इशारा किया है. अख़बारों ने विरोध की राजनीति से प्रशासन पर पड़ने पर प्रभाव को लेकर चिंता व्यक्त की है. संविधान सभा में अपने आखिरी भाषण में आंबेडकर ने भी अराजकता के खतरों पर चेतावनी दी थी.

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