दुष्चक्र में कश्मीर: शुजात बुखारी, राष्ट्रपति शासन और आगे

भाजपा राष्ट्रीय और जम्मू क्षेत्र की राजनीति को ध्यान में रखकर काम कर रही है, घाटी को लेकर उसकी नीति अस्पष्ट है.

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पिछले कुछ दिन कश्मीर के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज़ हो गए. अप्रैल के आख़िरी हफ़्ते में जब मैं अपनी अगली किताब की तैयारी के लिए कश्मीर गया था तो चीज़ें बिगड़ी हुई थीं, लेकिन एक उम्मीद सी थी कि अगले कुछ महीनों में हालात बेहतर होंगे. कश्मीर में ऐसी उम्मीदों का बनना और बिगड़ना दोनों अब विडम्बना से नियम में तब्दील हो गया है– दक्षिण कश्मीर जाने की योजना एक बार फिर वहां मुठभेड़ और बन्द की वजह से रद्द करनी पड़ी.

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साल 2016 में बुरहान वानी की हत्या के बाद से ही दक्षिण कश्मीर एक उफनता हुआ ज्वालामुखी बना हुआ है. हालांकि इसके तुरन्त बाद रमज़ान के दौरान सरकार द्वारा एकतरफ़ा सीज़फायर से उम्मीदें जगी थीं लेकिन शुजात बुख़ारी और सेना के जवान औरंगज़ेब की हत्या के बाद स्थितियां फिर जस की तस हो गईं. बिगड़े हालात की अंतिम परिणति चार साल पुराने पीडीपी-भाजपा गठबन्धन के बिखराव में हुई. इस लेख के लिखे जाने तक राज्यपाल एनएन वोहरा ने कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफ़ारिश कर दी है.

नब्बे के दशक के भयावह दौर के बाद आज कश्मीर घाटी शायद सबसे ज़्यादा मुश्किल दौर से गुज़र रही है. सेना की पर्याप्त उपस्थिति और जम्मू और कश्मीर पुलिस बल की सक्रियता के बावजूद बन्द-हड़ताल-पत्थरबाज़ी और हत्याएं रोज़मर्रा की घटनाओं में शामिल हो गई हैं. दो फाड़ों में बंट चुकी हुर्रियत के दोनों खेमे और जेकेएलएफ़ ने मिलकर ज्वाइंट रेज़िस्टेंस लीडरशिप बना ली है. दूसरी ओर आतंकवादी आन्दोलन का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान समर्थित हिज़बुल मुज़ाहिदीन और लश्कर के साथ ही नहीं आया है बल्कि ख़ुद को अन्तरराष्ट्रीय इस्लामिक संगठन आईएसआईएस साथ जोड़कर देखता है.

याद कीजिए बुरहान वानी के बाद हिज़बुल के कमांडर बने जाकिर मूसा का वह वीडियो जिसमें वह न आज़ादी का नाम लेता है न पाकिस्तान का. वह कहता है कि ‘हम शरिया लागू कराने के लिए लड़ रहे हैं. जब हम बन्दूक उठाते हैं तो यह नहीं समझना चाहिए कि हम कश्मीर के लिए लड़ रहे हैं. हमारा इकलौता उद्देश्य इस्लाम की सर्वोच्चता को स्थापित करना है ताकि यहां शरिया लागू किया जा सके.’

श्रीनगर के डाउनटाउन इलाक़े में हुर्रियत के मीरवायज़ गुट के नेता फज़ल उल हक़ के बिलाल कॉलोनी स्थित घर से बाहर निकलते हुए मुझे दीवारों पर सिर्फ़ ‘इंडिया गो बैक’ के नारे नहीं बल्कि एक नया नारा भी दिखा था– नो टू हुर्रियत, वी वांट ख़िलाफ़त. इसके नीचे आईएस जेके लिखा हुआ था यानी आईएस का जम्मू कश्मीर संस्करण!

कश्मीर में इस संगठन का कोई बड़ा प्रभाव तो नहीं लेकिन यह एक ख़ास तरह के नए ट्रेण्ड को तो प्रदर्शित करता ही है. हालांकि ईपीडब्ल्यू के 27 अगस्त, 2016 के अंक में फ़ारुक़ फ़हीम इस उभार को ‘लम्बे समय से लंबित कश्मीरियों के आत्मनिर्णय के अधिकार से उपजी कुण्ठा’ बताते हैं.

लेकिन यह भी एक किस्म का सरलीकरण ही है. इस सदी के शुरुआती डेढ़ दशकों में ख़ासतौर से वाजपेयी सरकार के समय जिस तरह की बातचीत और मरहम लगाने की नीति आगे बढ़ी थी, घाटी में न केवल आतंकवाद की घटनाओं में कमी आई थी बल्कि कश्मीरी युवाओं के एक वर्ग के मुख्यधारा में हिस्सेदारी और अलगाववादी आन्दोलन की जड़ें कमज़ोर होने के स्पष्ट संकेत भी दिखने लगे थे. कमोबेश यही नीति यूपीए के शासनकाल में भी जारी रही. पर्यटन और व्यापार में बढ़ोत्तरी हुई थी और 2014 तक घाटी में आतंकवादियों की संख्या बमुश्किल डेढ़ सौ के आसपास रह गई थी.

जहां वाजपेयी ने छोड़ा था, मोदी वहां से शुरु कर सकते थे

2014 में नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई तो आमतौर पर देश भर के अल्पसंख्यकों ने इसे अपने ख़िलाफ़ देखा लेकिन कश्मीर में इसका व्यापक स्वागत हुआ. कश्मीर के लिए यह अटल बिहारी वाजपेयी काल की वापसी की उम्मीद थी. उन्हें उम्मीद थी कि फिर से कश्मीर में शान्ति की पहल होगी.

श्रीनगर के प्रतिष्ठित वांचू परिवार के कुमार वांचू से बात करते हुए मुझे इसका एक और पक्ष समझ आया. बता दूं कि कुमार वांचू के पिता हृदयनाथ वांचू नब्बे के दशक के एक प्रसिद्ध ट्रेड यूनियन एक्टिविस्ट थे जो कश्मीर घाटी से पंडितों के पलायन के ख़िलाफ़ थे. उनकी हत्या कर दी गई थी और श्रीनगर के जवाहर नगर में उनके घर के सामने पार्क में उनकी समाधि है और वहां के टैक्सी स्टैंड का नाम उनके ही नाम पर है.

कुमार वांचू ने बताया कि ‘कश्मीर समस्या का समाधान 9-11 की वजह से अटल बिहारी वाजपेयी के समय में नहीं हो पाया. हमें उम्मीद थी कि भाजपा सरकार इस समस्या का समाधान कर सकती है. क्योंकि वह बोल्ड क़दम उठा सकती है. और कोई ऐसा करेगा तो राष्ट्रवादी ताक़तें उसे देशविरोधी ठहराएंगी.’

सहमति-असहमति के परे अगर इस तर्क को मान लें तो जम्मू और कश्मीर के चुनाव में पीडीपी के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के और फिर भाजपा के साथ उसके गठबन्धन से यह सम्भावना और बढ़ जानी चाहिए थी क्योंकि पीडीपी कश्मीर के मुख्यधारा के राजनैतिक दलों में अलगाववादियों के प्रति सबसे अधिक सॉफ्ट मानी जाती थी और इस चुनाव में उसे अलगाववादियों का परोक्ष समर्थन भी मिला था. ज़ाहिर है कश्मीरी अलगाववादियों से डील करना उसके लिए अधिक आसान होना चाहिए था या यूं कहें कि उनके बीच उनकी विश्वसनीयता अधिक थी जैसे हिंदुत्व की शक्तियों के बीच भाजपा सरकार की.

बुरहान वानी टर्निंग प्वाइंट

हालांकि आरम्भ से ही इस गठबन्धन में दरारें दिखने लगी थीं लेकिन बुरहान वानी की हत्या वह टर्निंग प्वाइंट बनी जिसके बाद अचानक तेज़ हुए जनआक्रोश के बरक्स कश्मीर संकट हल होने की जगह एक नए दौर में जाता दिखा. बुरहान के जनाज़े में उमड़ी भीड़ और उसके बाद लगभग पूरे कश्मीर में छः महीने लम्बी चली हड़ताल हाल के दिनों में हुई सबसे बड़ी घटना थी जिसका असर दूरगामी था. इसके बाद ख़ासतौर पर दक्षिणी कश्मीर और श्रीनगर में पत्थरबाज़ी आम हो गई और आतंकवाद की पांतों में नई भर्तियां तेजी से शुरू हो गईं.

कश्मीर पुलिस की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक आतंकवाद में शामिल हो रहे नए लड़कों की प्रवृत्ति पहले से अलग है– इनमें पढ़े लिखे और संपन्न घरों के लड़के ज़्यादा हैं. अभी हाल में हमने कश्मीर यूनिवर्सिटी के एक प्रवक्ता को हिज़बुल मुजाहिदीन के साथ जुड़ते और पुलवामा मुठभेड़ में मारे जाते देखा है. इसके अलावा लगभग पहली बार आतंकवादी आन्दोलन शहरी इलाक़ों से बाहर निकल कर ग्रामीण इलाक़ों में पहुंचा, हर पुलिस इनकाउंटर के दौरान पत्थरबाज़ी की घटनाओं और पैलेट गनों के प्रयोग के बावजूद हर आतंकवादी के जनाज़े में उमड़ी भीड़ जनता में बढ़ती कुण्ठा और उसके क्षोभ का ही प्रतीक नहीं थी बल्कि उससे भी ख़तरनाक इशारा था– जनता के बीच मौत का खौफ़ ख़त्म हो रहा है!

बेकाबू हालात में दरकता गठबंधन

हालात के बेक़ाबू होते जाने के बीच राज्य में गठबन्धन के दोनों साझेदारों की राजनीतिक ज़मीन का दरकना स्वाभाविक था. एक तरफ़ सरकार और सेना की सख्ती के चलते अलगाववादी ग्रुपों का पीडीपी पर से भरोसा टूटा. हालात ऐसे हो गए कि महबूबा मुफ़्ती के चुनाव क्षेत्र बिजबेहरा में लोगों ने बताया कि वह लम्बे समय से वहां गई ही नहीं हैं.

आम जनता के बीच भी उन्हें लेकर भारी असंतोष दिखा. जिस अनंतनाग ज़िले में बिजबेहरा पड़ता है वहां पिछले दो सालों से हालात ठीक न होने के कारण उपचुनाव संभव नहीं हो पा रहा, ज्ञातव्य है कि यह सीट मेहबूबा मुफ़्ती के मुख्यमन्त्री बनने से ख़ाली हुई थी. दूसरी तरफ़ ख़ासतौर पर जम्मू में भाजपा को लेकर लोगों को लग रहा था कि उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हुई हैं. ख़ासतौर पर कठुआ में एक बच्ची के साथ बलात्कार और उसके हत्या के बाद जिस तरह का उभार जम्मू और आसपास के इलाक़े में देखा गया और जिस तरह इसके दो मंत्रियों को इस्तीफ़ा देना पड़ा उससे न केवल गठबन्धन की दरारों को साफ किया बल्कि उसे और बढ़ा दिया. यह जम्मू में भाजपा के लिए चिन्ता का विषय था. उस दौर में भी गठबन्धन टूटने के कयास लगने शुरू हो गए थे.

महबूबा मुफ़्ती के सामने बहुत विकल्प बचे भी नहीं थे. लगातार बिगड़ते हालात के मद्देनज़र शान्ति प्रक्रिया की कोशिशें उन्हें घाटी में जनता का समर्थन वापस पाने का ज़रिया लगा. घाटी के प्रतिष्ठित पत्रकार शुजात बुखारी की हालिया सक्रियता इसी संदर्भ में महत्त्वपूर्ण थी. पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से लेकर भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान तक अपनी पहचान और प्रभाव के कारण वह ट्रैक टू की शान्ति प्रक्रियाओं के लिए एक उपयोगी व्यक्ति हो सकते थे और हुए भी.

वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण स्वामी बताते हैं कि बुखारी हाल में ही दुबई में हुई उस बातचीत का हिस्सा थे जिसमें पाक अधिकृत कश्मीर के कुछ नेता, कुछ पूर्व अलगाववादी और राजनितिक पार्टियों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे. इसी बातचीत में सीज़फायर पर अनौपचारिक सहमति बनने की बात कही जा रही है.

शांति, बातचीत समर्थकों की कब्र कश्मीर

ठीक इन्हीं वजहों से शुजात कश्मीर के अलगाववादियों के लिए आंख की किरकिरी बन गए तो यह अस्वाभाविक नहीं था. नब्बे के दशक से ही कश्मीर में बातचीत और सद्भाव के समर्थकों की हत्या होती रही है. हृदय नाथ वांचू और फज़ल-उल-हक़ का ज़िक्र पहले आया ही है. फज़ल उल हक़ ने वर्ष 2000 में हिज़बुल मुजाहिदीन और भारत सरकार के बीच सीज़फायर में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, हालांकि यह सीज़फायर बस दो हफ्ते चल पाया था. इसके बाद भी वह लगातार बातचीत से राह निकाले जाने के पक्षधर रहे. 2009 में उनके ऊपर प्राणघातक हमला किया गया जिसमें उनकी जान तो बच गई लेकिन उनके शरीर का एक हिस्सा हमेशा के लिए अपंग हो गया. इसके बाद से ही वह पुलिस सुरक्षा में अपने घर में महदूद रहते हैं.

अभी हाल में इसी साल फ़रवरी के महीने में उनके सुरक्षा गार्ड पर जानलेवा हमला करके उसकी रायफल छीन ली गई. थोड़ा पीछे जाएं तो कश्मीर में 2002 में कश्मीर के बड़े नेता और भारत से बातचीत के पक्षधर अब्दुल गनी लोन की हत्या कर दी गई थी, ऐसे ही अज्ञात हमलावरों द्वारा. आरोप स्टेट से लेकर पाकिस्तान तक पर लगे. इसके पहले 1990 में मीरवाइज़ मौलवी फ़ारूक़ की हत्या भी ऐसे ही हुई थी.

2 जनवरी, 2011 को विभाजित हुर्रियत के नरम धड़े के प्रमुख प्रवक्ता अब्दुल गनी बट्ट ने कश्मीरी बुद्धिजीवियों की भूमिका पर आयोजित एक कार्यक्रम में कहा– ‘मीरवाइज़, लोन और जेकेएलएफ के विचारक प्रोफेसर अब्दुल गनी वानी की हत्या भारतीय सेना ने नहीं भीतर के लोगों ने की थी. हमने अपने ही चिंतकों-बुद्धिजीवियों को मार डाला. जहां भी हमें कोई बुद्धिजीवी मिला, हमने उसे मार डाला.’

अब्दुल गनी लोन की हत्या के बाद तत्कालीन अमेरिकी सेक्रेटरी ऑफ स्टेट कॉलिन पॉवेल ने कहा था- “हालांकि उनकी हत्या का ज़िम्मा किसी ने नहीं लिया लेकिन इतना तो तय है कि उनके हत्यारे उनमें से ही हैं जो नहीं चाहते कि कश्मीर समस्या का शांतिपूर्ण समाधान हो.” सीज़फायर के दौरान शुजात और एक भारतीय सैनिक औरंगज़ेब की हत्या के बाद लगभग स्पष्ट था कि सीज़फायर को और बढ़ाया नहीं जाएगा और ऐसा चाहने वालों की कश्मीर में कोई कमी नहीं.

संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार रिपोर्ट, शुजात की हत्या और घाटी में लगातार बिगड़ते हालात, कश्मीर में आजमाए गए सभी तरीक़ों की असफलता का स्पष्ट संकेत थे. महबूबा सरकार से कश्मीर के भीतर या बाहर शायद किसी को कोई उम्मीद नहीं रह गई थी, यही वजह है कि शुरुआती संकेतों के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस दोनों ने ही पीडीपी को समर्थन देने से स्पष्ट इनकार कर दिया.

इसके बरक्स मायावती और अखिलेश यादव के गठबन्धन का उदाहरण देने वाले शायद यह नहीं समझ पा रहे कि कश्मीर में जहां घाटी में प्रतिद्वंद्विता नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी में है वहीं जम्मू में यह कांग्रेस और भाजपा के बीच है. ऐसे में नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी का कोई गठबन्धन एकदम से संभव नहीं है, ख़ासतौर पर तब जब नेशनल कॉन्फ्रेंस अगले चुनावों में घाटी में सफलता के प्रति आश्वस्त है. राज्यपाल से मिलने के बाद उमर अब्दुल्ला ने राष्ट्रपति शासन की और जल्दी से जल्दी चुनाव कराने की मांग की है.

लेकिन फिलहाल कश्मीर जिस मुकाम पर खड़ा है वहां बड़ा सवाल यही है कि आगे यह किस राह पर चलेगा. राज्यपाल एनएन वोहरा कश्मीर को अच्छी तरह से जानने वाले हैं और मुख्यधारा के लगभग सभी राजनैतिक दल उनका सम्मान करते हैं, लेकिन शायद ही कोई लम्बे समय तक राष्ट्रपति शासन का समर्थन करे. एक सवाल यह भी है कि वोहरा साहब को ही राज्यपाल बनाये रखा जाएगा या फिर किसी नए व्यक्ति को भेजा जाएगा. जिस तरह के हालात इन दिनों कश्मीर में हैं उनमें चुनाव कराना संभव होगा या नहीं!

पिछले साल श्रीनगर में हुए लोकसभा उपचुनाव में बहिष्कार का असर जिस क़दर देखा गया, इन हालात में वह दुहराया गया तो चुनावों का कोई बड़ा अर्थ नहीं रह जाएगा. ज़ाहिर है कि अगले कुछ महीने कश्मीर और भारत के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण होंगे. अब तक का अनुभव बताता है कि केवल सख्ती या केवल बातचीत से कश्मीर समस्या का हल मुमकिन नहीं है. जिस तरह का असंतोष घाटी में सुलग रहा है उसमें एक संतुलित रवैया ही सामान्य हालात को वापस ला सकता है. इसके लिए सभी पक्षों से लगातार बातचीत और आतंकवादियों से सख्ती के साथ-साथ आक्रोशित नौजवानों तथा पाकिस्तानपरस्त आतंकवादियों में ही नहीं बल्कि पाकिस्तानपरस्त अलगाववादियों और बातचीत समर्थकों में भी अंतर करना होगा.

इन सबके साथ यह तथ्य भी बेहद महत्त्वपूर्ण है कि सोशल मीडिया के इस दौर में देश के भीतर घटी हर साम्प्रदायिक घटना कश्मीर की आग में चिंगारी का काम करती है, देश भर में भड़काऊ बयानों और मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर पूरी तरह से रोक लगाए बिना हम उन तत्वों को कतई काबू में नहीं कर सकते जो इसका उपयोग कश्मीरी युवाओं को भड़काने में करते हैं.

ज़ाहिर है, कश्मीरी समस्या का कोई हल और मौज़ूदा हालात में कोई भी परिवर्तन एकांगी मामला नहीं है, इसके सामाजिक और राजनैतिक आयाम हैं और इसके लिए राज्य और केंद्र के राजनैतिक और सैन्य नेतृत्व में धैर्य, समझ, संवेदनशीलता और रचनात्मकता की ज़रूरत है. फ़िलहाल इसकी उम्मीद ही की जा सकती है.

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