फेसबुक पर लग रही है प्रशिक्षु पत्रकारों की हिंदी क्लास

नवभारत टाइम्स ऑनलाइन के पूर्व संपादक नीरेंद्र नागर उर्फ आलिम देहलवी की मुहिम.

WrittenBy:Rohin Kumar
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आलिम देहलवी की क्लास में पूछा गया ताज़ा सवाल है, “इनमें से कौन सा शब्द सही है. धराशाही या धराशायी?”

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आलिम इसी तरह हर रोज एक ऐसा शब्द (जिसमें हिंदी पत्रकार सबसे ज्यादा गलतियां करते हैं) अपने फेसबुक वॉल पर साझा करते हैं. दरअसल यह फेसबुक पोल होता है. पाठकों की प्रतिक्रिया के बाद वह सही शब्द और उससे जुड़े नियम बताते हैं.

आलिम उर्फ़ नीरेंद्र नागर करीब एक दशक तक नवभारत टाइम्स ऑनलाइन के संपादक रहे हैं. नीरेंद्र बताते हैं, वर्ष 2004 में उनके संस्थान की प्रॉडक्ट टीम ने उन्हें अंग्रेज़ी शब्दों के सही उच्चारण संबंधी एक कॉलम शुरू करने का आग्रह किया. चूंकि वह अपनी पत्रकारीय पहचान को अकादमिक पहचान से मिलाना नहीं चाहते थे, उन्होंने एक नई पहचान अख्तियार कर ली- आलिम. आलिम सर की क्लास के नाम से यह कॉलम लोकप्रिय हुआ और नवभारत टाइम्स में लंबे वक्त तक चला. अंतत: वर्ष 2016 में इसे संकलित कर प्रभात प्रकाशन ने किताब की शक्ल में छापा.

नीरेंद्र ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि फेसबुक पर प्रशिक्षु पत्रकारों को भाषा संबंधी शिक्षा देने से पहले उन्होंने भारतीय जन संचार संस्थान और माखनलाल चतुर्वेदी के हिंदी विभागाध्यक्षों को क्लासों का संकलन भेजा लेकिन उनकी तरफ से कोई जबाव नहीं आया. इसके बाद क्या था, आलिम ने फेसबुक पर ही भाषा की क्लास लेनी शुरू कर दी. उन्होंने संपादकों, प्रशिक्षु पत्रकारों और छात्रों को टैग करना शुरू किया. यह तरीका चल निकला और धीरे-धीरे लोग जुड़ते चले गए.

ग्रामर नाज़ी हैं नीरेंद्र उर्फ आलिम

आलिम के सहयोगियों ने बताया कि वह भाषा को लेकर काफी सख्त थे. “वह भाषा को लेकर काफी कठोर हैं.” चार वर्षों तक आलिम के सहयोगी रहे अमीश ने न्यूज़लॉन्ड्री से एक निजी अनुभव साझा किया. “एक बार जल्दीबाजी में मैंने ‘इन्फो’ को ‘इंफो’ लिख दिया. उनके मुताबिक उक्त अंग्रेज़ी शब्द का सही उच्चारण इन्फो होता है. उन्होंने इस बात पर मुझे ईमेल में झाड़ लगा दी.” इसी तरह कई गलतियों पर वह पूरी टीम को ईमेल कर दिया करते थे.

आलिम प्रशिक्षु पत्रकारों की भाषा के संदर्भ में कहते हैं, “अधिकतर पत्रकार कुछ और बनना चाहते थे और वह न बन सके तो पत्रकारिता में आ गए. चूंकि गोल कुछ और था सो स्कूल और कॉलेज में भाषा पर बहुत ध्यान नहीं दिया. फिर जब पत्रकारिता में आए तो सिलेबस में भी जर्नलिज़म पर ज्यादा जोर था, हिंदी पर कम.”

“मैं भाषा को लेकर सख्त हूं क्योंकि मेरा मानना है कि पाठक पत्रकारों को जानकार समझते हैं और जब हम कोई ग़लत शब्द अख़बार में छापते हैं तो वे उसी को सही मान लेते हैं. इस तरह ग़लत शब्द लिखकर हम ग़लत जानकारी फैलाने का अपराध करते हैं,” आलिम ने जोड़ा.

हालांकि मीडिया के कॉरपोरेट स्वरूप में पत्रकारिता के नाम पर कॉन्टेंट क्यूरेशन ज्यादा हो रहा है, विशेषकर डिजिटल मीडिया में. संपादकों के निर्णय स्वतंत्र न होकर प्रबंधन से नियंत्रित होते है. संपादक प्रबंधन के लिए बिजनस हेड हो चुके हैं. ऐसे में एक बड़े मीडिया समूह के ऑनलाइन संपादक होने के नाते नीरेंद्र का भाषा पर जोर देकर बुनियादी पत्रकारीय सवालों से बचने का आसान और सुरक्षित तरीका मालूम पड़ता है? हालांकि नीरेंद्र रिटायर हो चुके हैं उन्होंने कहा, “उनके कार्यकाल में उनके सहयोगियों को यह स्वतंत्रता थी कि वे अपनी समझ से जो सही लगे, वह खबर बनाए और लगाए.”

नवभारत टाइम्स ऑनलाइन के पूर्व संपादक से जब न्यूज़लॉन्ड्री ने कॉन्टेंट (जहां चलताऊ खबरों से लेकर सॉफ्ट पॉर्न तक लगाए जाते हैं) के संदर्भ में पूछा तो उनका जबाव प्रबंधन नीतियों के करीब ही रहा. हालांकि नीरेंद्र ने कहा कि कॉन्टेंट तय करने में प्रबंधन का हस्तक्षेप नहीं रहा. पर आगे उन्होंने बताया, “हां, यह सही है कि कभी-कभी कुछ खबरों को न लेने या अंडरप्ले करने का दबाव होता है. उसके राजनीतिक और आर्थिक कारण होते हैं. लेकिन बाक़ी संस्थानों के मुक़ाबले हमारे यहां यह दबाव बहुत कम था.”

हिंदी पत्रकारिता की भाषा

हिंदी पत्रकारिता की भाषा और हिंदी मीडिया में अंग्रेज़ी शब्दों के प्रयोग पर वाद-विवाद अब पुराना हो चला है. फिर भी गाहे-बगाहे ओल्ड और न्यू स्कूल के पत्रकारों के बीच इसके तार छिड़ जाते हैं. इस संदर्भ में दिवगंत वरिष्ठ संपादक राजकिशोर का एक लेख याद आता है जिसमें उन्होंने भाषा को मीडिया की सरंचना और स्वायत्तता के प्रश्न से जोड़ते हुए एक संस्मरण साझा किया था. उन्होंने नवभारत टाइम्स के विद्यानिवास मिश्र और विष्णु खरे का जिक्र करते हुए बताया कि वे दोनों हिंदी में अंग्रेज़ी का तनिक भी प्रयोग नहीं करते थे. उसी दौर में स्थानीय संपादक सूर्यकांत बाली हुए जिन्हें कंपनी के मालिक समीर जैन की हर बात अच्छी लगती थी.

राजकिशोर ने आगे लिखा, “समीर जैन की चिंता यह थी कि नवभारत टाइम्स युवा पीढ़ी तक कैसे पहुंचे. नई पीढ़ी की रुचियां पुरानी और मझली पीढ़ियों से भिन्न थीं. टीवी और सिनेमा उसका बाइबिल है. सुंदरता, सफलता और यौनिकता की चर्चा में उसे शास्त्रीय आनंद आता है. फिल्मी अभिनेताओं-अभिनेत्रियों की रंगीन और अर्ध या पूर्ण अश्लील तस्वीरों में उसकी आत्मा बसती है. समीर जैन नवभारत टाइम्स को गंभीर लोगों का अखबार बनाए रखना नहीं चाहते थे.”

राजकिशोर की यह टिप्पणी आलिम के जबाव को समझने में मदद करती है. न्यूज़लॉन्ड्री ने आलिम से पूछा कि वह भाषा को लेकर इतने गंभीर हैं लेकिन जिस मीडिया संस्थान के साथ वह लंबे वक्त तक जुड़े रहे और वहां की स्टाइलशीट बनाने में भी उनका योगदान रहा, उसमें अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग बहुतायत में होता है. इसपर आलिम ने नवभारत टाइम्स का बचाव करते हुए कहा, “नवभारत टाइम्स की भाषा के आलोचक वे लोग हैं जिनकी अंग्रेज़ी बहुत ख़राब है या फिर जो समय के साथ चलना नहीं चाहते. समय के साथ भाषा बदलती है और हमने नवभारत टाइम्स में वही किया है जिसका स्वागत भी हुआ है.”

हालांकि यह जबाव सुनने के लिए राजकिशोर इस दुनिया में नहीं है पर संस्थान का भाषा और पाठकों के प्रति रवैया किस कदर बदला है, यह स्पष्ट है. पहले यह बात हुआ करती थी कि अखबार की भाषा सामान्य होनी चाहिए जो किसी रिक्शा चालक और प्रफेसर दोनों की समझ में आ सके. लेकिन हिंदी मीडिया में अंग्रेजी शब्दों के उपयोग को अंग्रेजी सिखाने का माध्यम बताया जा रहा है.

नीरेंद्र पत्रकारों की भाषा सुधारने के लिए अच्छी साहित्यिक किताबें पढ़ने की सलाह देते हैं. वह कहते हैं शब्दों की छवियां हमारे दिमाग में स्टोर होती है. बेशक पत्रकारों को भाषा संबंधी जानकारियां दी जानी चाहिए और नीरेंद्र की इस मुहिम का स्वागत किया जाना चाहिए.

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