जीवनदायिनी मां से निष्ठुर मां बन गई कोसी नदी का गीत.
50-60 के दशक में जब कोसी नदी पर बांध बनाने की योजना को मंजूरी दी गई, तो लोगों ने इसकी पुरजोर मुखालिफत की थी.
विरोध को देखते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने कोसी क्षेत्र में सप्ताह भर बिताया था. उन्होंने घूम-घूम कर लोगों से बांध बनाने में सहयोग करने के लिए मनाया था.
लोगों ने उन पर यकीन रखते हुए बांध बन जाने दिया, लेकिन इससे किसको कितना फायदा हुआ, यह जगजाहिर है.
खास तौर पर कोसी बांध के भीतर बसे 380 गांवों की 10 लाख के करीब आबादी की बात करें, तो बांध ने विकास की राह खोलने या विकास का वाहक बनने की बजाय इस बड़ी आबादी के विकास और समृद्धि को रोकने का ही काम किया.
बांध बनने के बाद से अब तक यह आबादी विकास की उस प्रस्तावित झलक का दीदार अभी तक नहीं कर सकी है जिसका वादा बाबू राजेंद्र प्रसाद ने किया था. उल्टे बांध बनने से पहले जो खुशहाली उनके घर-आंगन में मौजूद रहती थी, वह भी कहीं गुम हो गई.
दुधिया रेत से भरी कोसी की परती में स्थानीय बोली में लिखा एक गीत बहुत प्रचलित है. करीब-करीब लोकगीत का दर्जा पा चुका यह गाना उन लाखों बदकिस्मत लोगों की आवाज है, जो बांध बन जाने के बाद से गरीबी और बदहाली के कुचक्र में फंस गए.
कोसी की दो धाराओं से घिरे सुपौल के खोखनाहा गांव में झोपड़ीनुमा घर में रहनेवाले 76 साल के सिंघेश्वर राय इस गाने को डूबकर गाते हैं. गीत के माध्यम से वह बताने की कोशिश करते हैं कि तटबंध बनने से पहले कोसी की कोख में रहनेवाले लोगों की जिंदगी क्या थी और अब क्या है.
सिंघेश्वर गीत का मुखड़ा उठाते हैं:
चीन देश में नदी हुआ गुहे (ह्वांगहो नदी), अइयो, चीना शोक कहाय
अइयो उत्तर बिहार में राज करैयत, कोसी हो निष्ठुर माय
बोलऽ भइया रामे-राम, रामे-राम सीता राम
कोसी सन नीदरदी जग में कोय नी.
मुखड़ा खत्म कर वह कहते हैं, ‘कोसी हमारे लिए मां थी, लेकिन आज यह बिहार का शोक बन गई है.’
सिंघेश्वर राय सन् 75 से ही यह गीत गा रहे हैं. वह मूलतः घटवार हैं, लेकिन भजन-कीर्तन में उनका मन खूब रमता है.
1995 में उन्होंने 18 हजार रुपये अपनी जेब से खर्च कर 13 लोगों की एक कीर्तन-मंडली तैयार की थी. वह कहते हैं, ‘15 साल तक हमने खूब गीत गाए. यूपी, दिल्ली, पंजाब समेत कई राज्यों व बिहार के जिलों में प्रस्तुति दी. अब वह मंडली बिखर गई है. यहां खेती के सिवा रोजी-रोटी का कोई विकल्प नहीं है, इसलिए मंडली के सदस्य रोजी-रोजगार के चक्कर में इधर-उधर चले गए.’
जब कोसी पर बांध बन रहा था, तब सिंघेश्वर राय बच्चे थे. वह अपनी मुंछ पर हाथ फेरकर उसे व्यवस्थित करते हैं और आंखें बंद कर गाने का पहला अंतरा सुनाते हैं:
जहां चलइछल मोटर गाड़ी, जलय छूटतऽ अथाह
अइयो बासुडीह (घर) के कुंड बनौलकई, बांसो न लइछई थाह
बोलऽ भइया रामे-राम, रामे-राम सीता राम
कोसी सन नीदरदी जग में कोय नी.
वह बताते हैं, ‘मेरे गांव खोखनाहा में चौक था और वहां से हर जगह के लिए गाड़ियां चला करती थीं. बांध बना, तो कोसी हमारे गांव से होकर बहने लगी. उसने धीरे-धीरे सड़कों व घरों को कटना शुरू कर दिया. जहां हमारा घर था, अब वह जलकुंड बन चुका है.’
70 के दशक के शुरुआती दिनों को सिंघेश्वर राय याद करते हैं, ‘आप मेरी यह सफेद मुंछ देख रहे हैं न? उस वक्त मेरी मुंछ की रेख भी नहीं आई थी, लेकिन कोसी की माटी में उपजे अनाज की ताकत थी कि 24 हाथ लंबे सखुए की नाव को मैं कोसी की छाती पर चला लेता था. उसे अकेले रस्सी से खींचकर लंगर में बांधता था.’
सिंघेश्वर गाने का तीसरा अंतरा पकड़ते हैं:
जहां उपजैछल साठी कनक जी, आरो मटिया धान
अइयो ओही ठामक लोग सबके अलुआ राखई प्राण
बोलऽ भइया रामे-राम, रामे-राम सीता राम
कोसी सन नीदरदी जग में कोय नी.
वह कहते हैं, ‘पहले हमारे खेत में धान की साठी, कनक और मटिया प्रजातियों की खेती हुआ करती थी. धीरे-धीरे खेत की उर्वराशक्ति खत्म हो गई, तो लोग अलुआ (शकरकंद) उगाने लगे.’
उन्होंने आगे कहा, ‘उस वक्त दो रुपये-ढाई रुपये में एक मन अलुआ बिकता था. लोग उसे सुखा कर कूटते थे. उसके बाद उसे कोठी में रख देते थे. बाढ़ के वक्त उसे भून कर हाथ से चलानेवाली चक्की में पीसा जाता और फिर उसकी रोटी बनाकर लोग खाते थे. बाढ़ के दिनों में अलुआ पर ही हमलोग कई दिन अपने घरों में गुजार देते थे. अब तो अलुआ भी नहीं होता.’
सिंघेश्वर राय थोड़ा गंभीर होकर कहते हैं, ‘इस कोसी में हमलोगों ने बहुत कष्ट झेले हैं, लेकिन कोसी से कभी शिकायत नहीं की.’
सिंघेश्वर तीसरा अंतरा सुनाना शुरू करते हैं –
दूर पराएल लूखी ओ बंदर, पंछी, फलक, बटेर
अइयो गामक अगा पछा में हो लागल बालू के राहो ढेर
बोलऽ भइया रामे-राम, रामे-राम सीता राम
कोसी सन नीदरदी जग में कोय नी.
गीत का अंतरा समाप्त कर वह सामने दूर तक फैली रेत की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, ‘देख रहे हैं न बालू का ढेर! हवा चलती है, तो बालू घरों में घुस जाता है. पहले यह क्षेत्र बंदर, गिलहरी आदि पशु-पक्षियों से गुलजार रहा करता था. अब यहां बालू का ढेर लगा हुआ है.’
वह हंसते हुए बताते हैं, ‘बंदर का उत्पात तो ऐसा था कि मेरी मां मुझे खाने का कोई सामान हाथ में लेकर घर से बाहर नहीं निकलने देती थी.’
‘पहले यहां आम, जामुन, कटहल जैसे अनगिनत फलदार पेड़ थे. देखते-देखते आंखों के सामने ही सबकुछ खत्म हो गया’, उन्होंने बताया.
गौरतलब हो कि नेपाल से निकलने वाली कोसी बिहार में 720 किलोमीटर का सफर तय करती है. बिहार के सहरसा, पूर्णिया, सुपौल और दरभंगा से बहती हुई कटिहार ज़िले में कुरसेला के निकट गंगा में मिल जाती है.
बाढ़ के प्रभाव को कम करने के लिहाज से उस समय के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कोसी पर बांध बनाने का फैसला लिया था. उस वक्त कोसी का पानी बड़े भूभाग में फैलता जरूर था, लेकिन जान-माल का उतना नुकसान नहीं होता था.
साथ ही तटबंध बनने से पहले कोसी के साथ जो बालू आता, वह 20 किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैल जाता था. इससे खेत पर बहुत असर नहीं पड़ता था. तटबंध बनाकर नदी को 7-8 किलोमीटर में ही बांध दिया गया. इससे खेतों में भारी मात्रा में बालू भर गया, जिससे इसकी उपजाऊ क्षमता कम हो गई.
सिंघेश्वर राय कहते हैं, ‘बाढ़ का पानी घर में घुस आता, तो हमलोग चौकी पर अपनी दुनिया सजा लेते थे. चौकी पर ही गोल आकार में मिट्टी की मोटी परत डाल दी जाती. उसी पर लकड़ी जलाकर खाना पकता. आग के कारण चौकी पर गोलाकार काला दाग पड़ जाता था.’
गीत बनाने के संबंध में कहा जाता है कि 80 के दशक के मध्य में स्थानीय निवासी राय बहादुर शाह, सिंघेश्वर राय समेत आधा दर्जन लोगों ने मिलकर ऐसा गीत लिखने की योजना बनाई, जिसमें कोसी तटबंध बनने से पहले और बाद के हालात को दर्शाया जा सके.
जब गाना तैयार किया जा रहा था, तो कई धुनों पर गीत लिखने की कोशिश की गई, लेकिन लय ठीक नहीं बैठ रहा था.
सिंघेश्वर ने बताया कि उन दिनों कुछ संन्यासी अक्सर गांव में आते और भजन सुनाते. उन्हीं भजनों में से एक भजन था-
कहमा सोचे भइया भरत जी, कहमा सोचे राम
कहमा सोचे सिया-जानकी किनका लगलई वाण
बोलऽ भइया रामे-राम, रामे-राम सीता राम
बाबा हो बिराजई ओड़िया देस में.
इसी भजन के तर्ज पर कोसी की त्रासदी का गीत लिखा गया. गीत पूरा करने में दो दिन लग गए थे. आ… के लंबे आलाप के साथ वह चौथे अंतरे का सिरा पकड़ते हैं:
सहरसा, पूर्णिया, सुपौल अउर दरभंगा यही चारों जिला में छलै सानक ढेर
अइयो यही जिला में राज करैछई, झउआ, कास, बटेर
बोलऽ भइया रामे-राम, रामे-राम सीता-राम
कोसी सन नीदरदी जग में कोय नी.
इस अंतरे की पहली लाइन में सुर थोड़ा डगमगा जाता है. इसकी वजह है. वह कहते हैं, ‘जब गाना बना था, जब सुपौल अस्तित्व में नहीं आया था. उस वक्त ऊपर की पंक्ति में तीन जिलों का ही जिक्र था. 1991 में सहरसा से सुपौल को अलग कर दिया गया, तो गाने में सुपौल भी जोड़ा गया.’
स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित इस आबादी की सरकार से तमाम शिकायतें हैं. हर साल बाढ़ विस्थापित हो जाने का खतरा है. अपने और अपने बच्चों के भविष्य को लेकर घोर अनिश्चितता है.
गीत की आखिरी पंक्तियों पर सिंघेश्वर राय खास जोर देते हैं, क्योंकि गाना पॉजिटिव नोट साथ खत्म होता है. वह अंतिम पंक्तियां सुनाते हैं –
धीरज धरिहऽ मंगरू हो चाचा मन मत करिऔ मलाल
समय पावी के तरुवर फौरे, जानैए सकल जहान
बोलऽ भइया रामे-राम, रामे-राम सीता-राम
कोसी सन नीदरदी जग में कोय नी.
गाना खत्म कर वह कहते हैं, ‘हम सब कोसी क्षेत्रवाले इस उम्मीद में जी रहे हैं कि आज हमारी समस्या का समाधान होगा, कल होगा, लेकिन कोई समाधान नहीं है. हम रामभरोसे खुले आकाश के नीचे रह रहे हैं.’
उत्तर बिहार के इस शोक गीत को कोसी भी खामोश रह कर सुनती है और अपना सिर धुनती है क्योंकि कोसी की कोख में रहनेवाली आबादी के लिए अब वह ममता से भरी मां नहीं है. कोसी उनके लिए ‘निष्ठुर’ मां बन चुकी है.