हुमायूं मकबरा: ये अकबर का बनवाया है या आगा खान ट्रस्ट का?

आगा खान ट्रस्ट हुमायूं के मकबरे को संरक्षित कर रहा है या नई इमारत खड़ी कर रहा है?

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हाल के दिनों में एक बहस तेजी से उभरी है कि देश की ऐतिहासिक महत्व वाली विरासतों, स्मारकों और इमारतों को रखरखाव के लिए निजी कंपनियों के हाथ में सौंपना सही है या गलत. कुछ महीने पहले दिल्ली स्थित ऐतिहासिक लाल किले के रख-रखाव का जिम्मा डालमिया समूह को देने के बाद इस पर काफी चर्चा हुई. इस पर होने वाली चर्चा का स्वरूप दो स्पष्ट हिस्सों में बंटा था- इसके समर्थक और विरोधी.

इसी विवाद की एक और कड़ी है दिल्ली का प्रसिद्ध हुमायूं का मकबरा. यूनेस्को की ऐतिहासिक विरासत की सूची में शामिल सोलहवीं शताब्दी में बना ये मकबरा मुगल साम्राज्य का राजसी कब्रिस्तान सरीखा है. यहां मुगल बादशाह हुमायूं के अलावा उस दौर के शाही घराने के लोग और दरबारियों की लगभग डेढ़ सौ से ज्यादा कब्रें हैं.

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लेकिन आज आप जो हुमायूं का मकबरा देख रहे हैं वह आज से पांच सौ साल पहले के अपने मूल रूप में कितना शेष रह गया है? जो हुमायूं का मकबरा देश और दुनिया आज देख रही है क्या वह मिर्ज़ा गयास बेग का बनवाया हुआ मूल मकबरा है? इस पर जानकारों, इतिहासकारों का मत बिल्कुल विपरीत है. इनका कहना है कि आज का हुमायूं का मकबरा आगा खान ट्रस्ट द्वारा पुनरुद्धार कर बनाया गया हुमायूं का मकबरा है, जिसमे अब मुगलकालीन भारत की शायद ही कोई बात रह गयी हो.

इस बात को लेकर बीते दिनों अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग ने एक बड़ा सेमिनार आयोजित किया. सेमिनार का केंद्रीय विषय था कि किस तरह संरक्षण के नाम पर मुगलकालीन इमारतों को तोड़फोड़ कर उसे नए सिरे से खड़ा किया जा रहा है.

यह दावा अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर अली नदीम रिजावी का है. उनका मानना है की आगा खान ट्रस्ट ने संरक्षण प्रक्रिया में हुमायूं के मकबरे का मूल रूप ही नष्ट कर दिया हैं.

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न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत में प्रोफेसर रिजावी बताते हैं, “एक इतिहासकार के लिए किसी संरक्षित इमारत को खूबसूरत तरीके से बनाने से वो संरक्षित नहीं होती. बल्कि ऐसा करने से उसका मूल रूप ही नष्ट हो जाता हैं. हमारे लिए बदसूरत चीज़ भी महत्वपूर्ण हैं. जैसे अगर कहीं आधी दीवार हैं तो आप संरक्षण के नाम पर उस पूरी दीवार को नए सिरे से नहीं खड़ा कर सकते. बल्कि उस आधी दीवार को उसी रूप में संरक्षित कर देंगे. ताकि आगे से उसमें किसी तरह का क्षय या टूट-फूट न हो.”

प्रोफेसर रिजावी की बात पर गौर करने से पहले हमें ऐतिहासिक विरासतों के संरक्षण के लिए स्थापित आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया का कंजर्वेशन मैन्युअल जान लेना चाहिए. यह बताता है कि किसी भी ऐतिहासिक इमारत का संरक्षण किस रीति-नीति से करना है.

सर जॉन मार्शल, जिन्होंने 1905 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की नींव रखी, उन्होंने कंज़र्वेशन मैन्युअल के नाम से एक किताब लिखी है. यह किताब नहीं बल्कि संरक्षण का क़ानून गीता, बाइबिल, कुरान है. जॉन मार्शल 1905 में पुरातत्व विभाग के पहले डायरेक्टर जनरल भी बने.
रिजावी के मुताबिक, यह मैन्युअल स्पष्ट शब्दों में कहता है- “संरक्षण में हमको आगे का नुकसान रोकना होता है. जो नुकसान हो चुका है उससे मतलब नहीं. अब और न हो. इसमें अपनी तरफ से नई चीजें जोड़ना गलत है.”

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वो आगे कहते हैं, “लेकिन आगा खान ट्रस्ट ने हुमायूं के मकबरे को पूरी तरह नया कर दिया. ये एक लिविंग मोनुमेंट था. इसमें मुगलों की कई पीढ़ियों ने बदलाव किये. अपनी तरफ से नई टाइलें, मिट्टी, लाइम का इस्तेमाल कर उन्होंने किस दौर की कला का संरक्षण किया है.”

हालांकि आगा खान ट्रस्ट इस आरोप से इत्तेफाक नहीं रखता. आगा खान ट्रस्ट की प्रोजेक्ट डायरेक्टर अर्चना साद अख्तर ने कहा, “हम हुमायूं के मकबरे में अपनी तरफ से कुछ भी नया नहीं जोड़ रहे हैं. सिर्फ कुछ जगहें ऐसी हैं जो खुले में हैं, जहां टाइलें पूरी तरह से खराब हो चुकी हैं, उन्हें बदला गया है क्योंकि उन्हें किसी और तरीके से संरक्षित नहीं किया जा सकता. लेकिन जो भी चीज उसमें से निकाली गई है उसे खत्म नहीं किया गया है बल्कि उसे एएसआई के म्यूजियम में सुरक्षित रखा गया है.”

प्रोफेसर शिरीन मूसवी जो कि लंबे समय तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की सदस्य रही हैं और एएसआई की कंसर्वेशन कमेटी की चेयरमैन थी, उनका भी नजरिया आगा खान ट्रस्ट को लेकर तल्ख है. न्यूज़लॉन्ड्री को उन्होंने बताया, “आगा खान ट्रस्ट जो कुछ कर रहा है उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता. उन्हें एक ऐतिहासिक धरोहर को संरक्षित करना है या फिर टूरिस्टों को खूबसूरत लगने वाली बिल्डिंग बनानी है?”

मुसवी संरक्षण के लिए आगा खान ट्रस्ट के चयन पर भी सवाल उठाती हैं. उन्होंने कहा, “मैं खुद एएसआई की सदस्य थी और संरक्षण कमेटी की चेयरमैन थी. पर मुझसे कभी कोई सलाह तक नहीं ली गई और 11 जुलाई, 2007 को एएसआई के तत्कालीन डायरेक्टर ने आगा खान ट्रस्ट को कंसर्वेशन का काम दे दिया. न किसी एक्सपर्ट से बात, ना सलाह.”

मूसवी के मुताबिक आगा खान ट्रस्ट के लोगों को मुगलकालीन स्थापत्य और वास्तुकला की कायदे से जानकारी तक नहीं है. इस बारे में वो एक वाकये का जिक्र करती हैं. वो कहती हैं, “आगा खान के प्रोजेक्ट डायरेक्टर रतीश नंदा से एक बार मैंने पूछा हुमायूं के मकबरे के बाहर फैला हुआ घास का लॉन कैसे आया. तो उनका जवाब था कि मुगलों ने ऐसे ही बनवाया था. उसके बाद मेरी उनसे कभी बात नहीं हुई. उन्हें पता ही नहीं है कि घास लगा हुआ लॉन कभी मध्यकालीन भारतीय निर्माण में शामिल ही नहीं रहा. मुगलों ने तो बाग़ लगवाए, फलदार, महकदार. घास के लॉन तो ब्रिटिशों के आने के बाद शुरू हुआ. मैं समझ गई इन्हें ठीक से पता भी नहीं है.”

आगा खान ट्रस्ट के प्रोजेक्ट डायरेक्टर रतीश नंदा से भी हमारी बातचीत हुई. उन्होंने विरोध कर रहे लोगों पर कुछ संगीन आरोप लगाए और साथ ही ऐतिहासिक इमारतों के संरक्षण की उनकी समझ पर सवाल खड़ा किया. उन्होंने कहा, “ये लोग पिछले चार-पांच साल से विरोध कर रहे हैं. पर वे बात करने को तैयार नहीं हैं. उनसे हमने बार-बार कहा कि आप आएं, अपनी राय हमसे साझा करें. पर किसी ने इस पर तवज्जो नहीं दी. ये लोग राजनीतिक मकसद से बयानबाजी कर रहे हैं. इनका मकसद सिर्फ अड़ंगेबाजी करना है. ये लोग जब तब आगा खान ट्रस्ट के संरक्षण कार्यों को मोदी से जोड़ देंगे. हमारे संरक्षण का मोदी से क्या लेना-देना? बातचीत ये लोग करेंगे नहीं.”

साथ ही रतीश यह भी कहते हैं, “वे इतिहासकार हैं. उन्हें कंजर्वेशन के बारे में कुछ पता नहीं है.”

रतीश के इस आरोप का जवाब प्रोफेसर रिजावी देते हैं जिसके मुताबिक वे बातचीत करने को तैयार नहीं हैं, “हमारी कई बार आगा खान ट्रस्ट से बात हुई है. रतीश नंदा से बात हुई हैं. लेकिन उन्होंने हमारी किसी बात को नहीं माना.”

वो आगे कहते हैं, “ये सिर्फ हमारा विरोध नहीं है. 2014 में इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस (आईएचसी) ने भी आगा खान के संरक्षण को तौर तरीके का विरोध किया था. तब से हम इसका विरोध करते आ रहे हैं.”

आईएचसी ने अपने 75वें सत्र में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में आयोजित इस कार्यक्रम में एक विरोध का प्रस्ताव भी पारित किया था. रिजावी के मुताबिक भविष्य में यही हाल बाकी स्मारकों का भी होने जा रहा हैं जैसे अब्दुर रहीम खानखाना का मकबरा जो दिल्ली में हैं. वहां भी संरक्षण का काम चल रहा हैं.

अपने बचाव में रतीश नंदा कहते हैं, “हमने जो भी टाइल्स या चीजें बदली हैं उन्हें उसके मूल स्थान से मंगवाया है, वहीं के कारीगरों से बनवाया है जो सेंट्रल एशिया के आसपास रहते हैं. और हम सिर्फ उन्हीं चीजों को बदल रहे हैं जिनमें समय के साथ सीमेंट का प्रयोग कर चालू तरीके से संरक्षित किया गया था.”

लेकिन यह सवाल महत्वपूर्ण है कि भले ही टाइले सेंट्रल एशिया से मंगवाकर लगाई गई हैं, कारीगर भी वहीं के हैं लेकिन क्या यह कहा जा सकता है कि इसे अकबर ने बनवाया था?

एक काल्पनिक परिस्थिति के जरिए इसे समझते हैं. कल को किसी प्राकृतिक आपदा में आगरा का पूरा ताजमहल या उसका कोई हिस्सा ढह जाता है तो आज की तकनीक और सुविधाओं का इस्तेमाल कर नए सिरे से बिल्कुल हूबहू इमारत खड़ी की जा सकती है पर क्या उस स्थिति में इसे शाहजहां का बनवाया ताजमहल कहना उचित होगा. शायद नहीं.

जानकारों की राय बंटी हुई है, लेकिन इसी मौके पर वरिष्ठ इतिहासकार प्रोफेसर इरफान हबीब ने एक महत्वपूर्ण बात कही है जिसे जानना सबके लिए बेहतर होगा. वो कहते हैं, “एक ऐतिहासिक स्मारक को क्या चीज बनाती है, और उसका संरक्षण क्यों? मॉन्युमेंटम लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है रिमाइंड करना यानी दोबारा से याद दिलाना. इसलिए किसी भी ऐतिहासिक विरासत के संरक्षण में उस ऐतिहासिक ढांचे की प्रामाणिकता बनी रहनी चाहिए.”

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