विशाल भारद्वाज: ‘जुनून नहीं होगा तो फिल्मकार नहीं बन सकते’

छोटे शहर से फिल्म दुनिया के प्रतिष्ठित फिल्मकार बनने की विशाल भारद्वाज की यात्रा.

WrittenBy:श्रुति दास
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मेरठ का एक युवा जिसकी ख्वाहिश क्रिकेटर के तौर पर प्रसिद्धि पाने की थी. दुर्भाग्य से (या कहें सौभाग्य से) दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान उसका अंगूठा टूट गया. वो भी इंटर यूनिवर्सिटी टूर्नामेंट से ठीक एक दिन पहले. जल्द ही उसके पिताजी का स्वर्गवास हो गया. इन दो घटनाओं ने उसे एक बेहतरीन क्रिकेटर बनने का सपना छोड़ने को मजबूर कर दिया.

जाहिर है, नियति को कुछ और मंजूर था. आज, विशाल भारद्वाज हिंदी सिनेमा के कुछेक महानतम फिल्मकारों में शामिल हैं. उनकी फिल्में अध्ययन और शोध का विषय है. उन्हें तमाम पुरस्कार मिले और हर अभिनेता उनके निर्देशन में काम करना चाहता है. उनकी तमाम खूबियों में एक खूबी है हिंसा को काव्यात्मक रूप में पिरोना. शैक्सपियर के अमर नाटकों को भारतीय पृष्ठभूमि में समाहित कर परदे पर उतारने में उन्हें महारत है.

अब तक भारद्वाज ने नौ फिल्में निर्देशित की हैं, 14 फिल्मों का स्क्रीनप्ले लिखा है, लगभग इन सभी फिल्मों का संगीत और निर्माण भी उन्होंने ही किया. वे गहन मेधा और ज्ञान के धनी हैं. लेकिन उनसे मिलते हुए आपको इनमें से कोई भी चीज़ उनके व्यक्तित्व में नहीं झलकेगी. उनका मृदुभाषी, विनम्र और दोस्ताना रवैया सामने वाले को सहज कर देता है. उनकी हालिया फिल्म रंगून बॉक्स ऑफिस पर बढ़िया प्रदर्शन करने में नाकाम रही, लेकिन यह उनके चमकीले सफर में एकमात्र झटका है. शैक्सपियर की दुखांत कहानियों पर मकबूल, ओमकारा और हैदर की तिकड़ी लगा चुके विशाल अब ट्वेल्थ नाइट के ऊपर काम कर रहे हैं.

रविवार की एक ठहरी हुई शाम में वो कुछ अलग विधाओं की खोज में, भारतीय सिनेमा उद्योग में आए बदलाव, टीवी सिरीज के प्रति उनके लगाव और आखिर क्यों वो अपनी खुद की आत्मकथा लिखने के विचार से असहज हैं, जैसे मुद्दों पर बातचीत के लिए बैठे.

बच्चों से लेकर, शैक्सपियर की दुखांत कहानियों तक, चुलबुलेपन से लेकर रोमांस तक- आपने फिल्म की अलग-अलग विधाओं में काम किया. क्या चीज है जो आपको इतना विस्तृत और व्यापक नजरिया देती है?

मैं भिन्न-भिन्न विधाओं में फिल्में करता हूं क्योंकि इससे मुझे अपने व्यक्तित्व के हर पहलु को समझने, तौलने का मौका मिलता है. किसी को बैटमैन, सुपरमैन जैसी फिल्में पसंद आ सकती हैं, साथ ही ऐसे लोग भी होंगे जिन्हें मैकब्राइड, नार्कोस, फारगो जैसी सिरीज़ अच्छी लगे. वही आदमी सत्यजीत रे को भी पसंद कर सकता है. लोग अपने साथ कई चीजों का बोझ लेकर चलते हैं. एक ही आदमी के व्यक्तित्व के कई पहलु हो सकते हैं, लिहाजा उसे खोजने की जरूरत पड़ती है. इसी वजह से मैं अलग-अलग विधाओं में प्रयोग करता हूं. मैं किसी एक विधा में बंधकर नहीं रहना चाहता. मैं जीवन के, कहानियों की और फिल्मों की हर विधा को देखना चाहता हूं.

आपकी पिछली फिल्म रंगून में ब्रॉडवे-शैली के संगीत की छाप देखने को मिली. हाल ही में फिल्मकार अनुराग बासु ने इस शैली को अपनी फिल्म जग्गा जासूस में इस्तेमाल किया. लेकिन अभी हिंदी सिनेमा में इस तरह की संगीतमय शैली की स्वीकार्यता कम है. इसकी क्या वजह हो सकती है?

ब्रॉडवे शैली की संगीतमय फिल्में हिंदी सिनेमा में एक हद से ज्यादा इसलिए सफल नहीं हो सकती क्योंकि हम म्युज़िकल फिल्में बनाते हैं. एक आम हॉलीवुड या यूरोपीय फिल्म में संगीत का इस्तेमाल होता ही नहीं. लिहाजा जब वे संगीत का इस्तेमाल करते हैं तो ये पूरी तरह से संगीत को समर्पित होता है, इसे लेकर वे बेहद ईमानदार हैं. ऐसे मौके पर वो हर तरह की छूट लेते हैं. यहां हम साधारण ड्रामा फिल्मों में भी संगीत का इस्तेमाल करते हैं.

पिछले एक दशक के दौरान आपने हिंदी सिनेमा में किस तरह का बदलाव महसूस किया है?

व्यापक बदलाव हुआ है. हम उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव पर आ गए हैं. पहले किसी ठोस विषय या गानों से रहित फिल्में बना पाना बहुत मुश्किल था. इसके अलावा आर्थिक सहयोग, रिलीज के लिए थियेटर आदि भी मुश्किल था. अब मुझे लगता है कि हम बेहतरीन दौर में हैं. अभी भी हमें और मल्टीप्लेक्स की दरकार है. भारत में फिल्में ज्यादा हैं और मल्टीप्लेक्स कम हैं. ज्यादा स्क्रीन होंगी तो ज्यादा फिल्में दिखेंगी. जहां तक रचनात्मकता का सवाल है तो हम बेहतरीन दौर में हैं. आज न्यूटन जैसी फिल्में भी हिट हो रही हैं और बजरंगी भाईजान भी सुपर हिट है.

आपने एक बार कहा था- “परदे पर फिल्मकार की भावुकता उजागर होती है.” अगर कहें तो फिल्म के चरित्र भी किसी न किसी रूप में फिल्मकार के व्यक्तित्व की झलक देते हैं?

चरित्रों से ज्यादा फिल्मकार का व्यक्तित्व फिल्म की थीम पर झलकता है या फिर उस चरित्र की अभिव्यक्ति से झलकता है. ऐसा इसलिए होता है क्योकि अक्सर फिल्मकार ऐसे चरित्र लेता है जो अस्तित्व में नहीं हैं. ऐसे में वह चरित्र जिस तरह से विकसित होता है, जिस तरीके से वह अपने आप-पास के माहौल से रिश्ते स्थापित करता है यह सब फिल्मकार की अभिव्यक्ति है.

मकबूल, हैदर, ओमकारा के जरिए भारद्वाज ने शैक्सपियर को सबसे बेहतरीन रूप में उतारा है. हाल ही में आपकी पहली किताब ‘न्यूड’ रिलीज हुई. अपने अपनी भावनाएं कविता के जरिए उजागर कीं. क्या अपनी आत्मकथा लिखने की कोई योजना है?

नहीं, आत्मकथा लिखने की मेरी कोई योजना नहीं है क्योंकि मैं अपनी निजी ज़िंदगी सार्वजनिक नहीं करना चाहता. मैं निजी किस्म का आदमी हूं, एकांतवासी. फिलहाल तो मेरी इस तरह की कोई योजना नहीं है, लेकिन 20 साल बाद क्या पता. फिलहाल तो मैं अपनी यादें खुद के साथ महफूज रखना चाहता हूं.

हाल की कोई फिल्म जिसने आपको प्रभावित किया हो?

मेरे ख्याल से न्यूटन बहुत अच्छी फिल्म थी. कोर्ट भी अच्छी फिल्म थी. असल में मैं बहुत कम फिल्में देखता हूं. मुझे टीवी सिरीज देखना पसंद है. हाल के दिनों में मुझे फारगो और पीकी ब्लाइंडर्स पसंद आईं. एक और टीवी सिरीज जो मुझे बहुत पंसद है ब्लैक मिरर. यह मेरी पसंदीदा है. वे खूबसूरत एपिसोड बनाते हैं और सारी कहानियां एक दूसरे से अलहदा. वे किसी नई फिल्म की तरह हैं. अच्छी फिल्में डिजिटल प्लेटफॉर्म पर बन रही हैं.

किसी अभिनेता का हालिया किसी फिल्म में अभिनय जिसने आपको प्रभावित किया हो?

मुझे दंगल में जायरा वसीम पसंद आई, वो लाजवाब थी. मुझे दंगल में आमिर का प्रदर्शन भी अच्छा लगा. सिक्रेट सुपरस्टार में भी जायरा का प्रदर्शन शानदार था. साथ ही जिस आदमी ने उनके पिता राज अर्जुन का रोल किया वो भी अच्छा अभिनेता है. मेहर विज ने जायरा की मां का रोल फिल्म में किया था. उनका अभिनय भी तारीफ के काबिल है. पूरी कास्टिंग बहुत अच्छी थी.

अगर आपको किसी की फिल्म पूरी ज़िंदगी देखनी हो तो वो कौन होगा? या वो फिल्म जो आपको सबसे ज्यादा पसंद हो, आपकी पंसदीदा?
कई हैं. कोई एक चुनना बहुत मुश्किल है. फिर भी अगर मुझे चुनना हो तो मैं कहूंगा ‘गॉडफादर’. यह अमर फिल्म है. इसके अलावा कीस्लोवस्की की ‘थ्री कलर्स ट्राईलॉजी- ब्लू, रेड एंड व्हाइट’. कीस्लोवस्की की एक और फिल्म मुझे बहुत पसंद है- ‘द डबल लाइफ ऑफ वेरोनिक’. मेरे ख्याल से सबको ये फिल्में देखनी चाहिए.

नए फिल्मकारों को जो अच्छा सिनेमा बनाने की ख्वाहिश रखते हैं, उन्हें आप क्या संदेश देना चाहेंगे?

मेरा संदेश होगा कि उन्हें सिनेमा और फिल्म-मेकिंग के लिए हमेशा जुनूनी बने रहना चाहिए. जब तक अपनी-अपनी कहानी को सामने लाने के लिए आप उसे जीवन मरण का सवाल नहीं बनाएंगे, तब तक आप फिल्म नहीं बना सकते. यह जुनून आपके भीतर होना चाहिए.

यह लेख पैट्रियट में प्रकाशित हो चुका है.

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