रवीश कुमार में भी खामियां हैं !

रवीश कुमार को दी जा रही जान से मारने की धमकियों के अवसर पर भक्तों और अभक्तों से परे उनका एक वस्तुपरक विश्लेषण.

WrittenBy:राजन पांडे
Date:
Article image

रवीश कुमार पर कुछ लिखने से बचता हूं, क्योंकि उनके विरोधियों की तरह उनके कई समर्थक भी भक्त स्टेटस वाले हैं. मगर मौजूदा हालात में लिखना जरूरी लगता है.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

लोकतंत्र का चौथा खम्बा कहे जाने वाले मीडिया के लिए एक आलोचनात्मक नज़र रखना जरूरी है. यही आलोचना सरकार और ताकतवर तबकों को गलत करने से रोकती है मगर आजकल दौर राष्ट्रवादी पत्रकारिता (असल में सरकारवादी) का है. मीडिया पुराने जमाने के दरबारों वाले चारण-भाटों की भूमिका में है. ज़ाहिर है, जो आदमी उनकी हुआं-हुआं में सुर नहीं मिलाएगा वो निशाने पर आएगा ही. लेकिन रवीश कुमार सिर्फ इस कारण से निशाने पर नहीं हैं. वजह थोड़ी गहरी है.

वजह ये है कि आधा दर्जन राष्ट्रीय और सैकड़ा पार क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के रहते हुए भी विपक्ष ने नहीं, वरन इस पत्रकार ने एक समय अपराजेय दिख रही भाजपा और उसकी सरकार की “अकिलीस हील” यानि कमजोर कड़ी खोज निकाली है- नौकरियां और अर्थव्यवस्था. बंदर की तरह एक नारे से दूसरे नारे, स्वच्छ भारत से न्यू और फिर डिजिटल इंडिया पर कूदते प्रधानमंत्री, और उनके कसे हुए प्रचारतंत्र के जादू में लहालोट देश के नौजवानों और आम लोगों का सम्मोहन यूं जारी रहना था.

मास मीडिया की चाटुकारिता तथा साइबर सेल के फोटोशॉप की चमक में वो जिओ के सस्ते डेटा को ही अच्छे दिन का सबूत मानने को भी तैयार थे. पर इस आदमी ने गुड़ गोबर कर दिया. नौजवान को नौकरी, छात्र को शिक्षा, मुलाजिम को पीएफ और न्यू पेंशन स्कीम, आम आदमी को रेलवे और बैंकों की दुर्दशा की याद दिला कर रवीश ने मोदीजी के इंद्रजाल का जंतर खंडित कर दिया.

रवीश ने मोदी के कहने पर मरने-मारने को उतारू एक तबके को वास्तविकता में उतार कर, उसे उन्हीं के खिलाफ खड़ा हो सकने की संभावना के बीज बो दिये हैं. यही वो फांस है जो बार बार दांतों से नोचने पर भी नहीं निकलती और रह-रह के कसकती है.

1992 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश इराक पर हमला करके, देशभक्ति और अपनी दमदार-निर्णायक नेता की छवि का कॉकटेल लेकर उतरे मगर लोकप्रियता के रहते हुए भी एक नौजवान बिल क्लिंटन से चुनाव हार गए क्योंकि क्लिंटन ने अपना चुनाव प्रचार बुश सरकार के दौर में घटती नौकरियों और कमजोर अर्थव्यवस्था पर रखा था. बाद में इसी परिघटना को क्लिंटन के स्पिन डॉक्टर जेम्स कारविल ने एक लाइन की कहावत में अमर कर दिया- इट्स इकोनॉमी स्टुपिड.

अर्थव्यवस्था और नौकरियों के मामले में हमारी मौजूदा सरकार का मामला गड़बड़ा गया है. उससे भी बुरी बात ये कि काम न हो तो चलता है, पर काम नहीं हो रहा ये जगजाहिर हो जाना खतरनाक होता है. अर्थव्यवस्था के मामले में यही हुआ. एक इम्प्रेशन बनता जा रहा है कि सरकार आर्थिक मोर्चे पर विफल है.

हाल ही में आया एक मूड ऑफ द नेशन सर्वे भी यही बताता है. विपक्षी पार्टियां भी जोर-शोर से ये बात उठाने लगी हैं मगर इस नैरेटिव को आकार उन्होंने नहीं दिया. तथ्य तो सबके सामने थे, पर इन तथ्यों को जोड़कर एक तस्वीर तैयार करने, और हिन्दी पट्टी में, विशेषकर नौजवानों और सरकारी कर्मचारियों में इसे लोकप्रिय करने का काम रवीश कुमार ने किया. यही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है, उनके लिए सबसे बड़ा खतरा भी यही है.

भाजपा समर्थकों की तिलमिलाहट बताती है कि नौजवानों के बीच नौकरियां-रेल-शिक्षा और अर्थव्यवस्था वाली तथ्यपरक रिपोर्टिंग निशाने पर लगी है. मैंने खुद व्यक्तिगत अनुभव में यूपी-बिहार और दिल्ली के कुछ लड़कों को, जो पहले रवीश कुमार को गालियां देते थे, अब उनके वीडियो शेयर करते देखा है.

इस बीच मीडिया और मीडिया के बाहर उनके अंधभक्तों की संख्या भी बढ़ती जा रही है. साथ ही विपक्ष के लिए रवीश के कार्यक्रम, उनकी बातें बेहद उपयोगी हैं और इसलिए वो इनके इस्तेमाल से चूक भी नहीं रहे. ऐसे में बहुत संभव है कि धमकी वाले वीडियो या मैसेज के जवाब में उनके समर्थकों के वीडियो भी आने शुरू हों जो ‘रवीश जी पर टेढ़ी नज़र डालने वालों की आंखें नोचने’ की धमकी दें. ये वीडियो भी ज़रूर वायरल होंगे और एक बार सिलसिला शुरू हुआ तो झड़ी लग जायेगी; खैर यह अभी अटकल है.

एक और बात जो रवीश के खिलाफ जाती है वो ये कि व्यक्तिगत तौर पर वो काफी सरल इंसान हैं. बरखाजी की तरह उनके दामन पर किसी डील के दाग नहीं हैं. न ही टिपिकल लिबरल या वामपंथी बुद्धिजीवियों की तरह वे इलीट और अन-अप्रोचेबल हैं. इसलिए उनका चरित्रहनन आसान नहीं है. इस वजह से उनकी कही बात एक बड़े हिस्से में जाती है.

आखिर में ये जरूर साफ कर दूं कि न तो मेरी अब तक रवीश कुमार से कोई मुलाक़ात है और न ही ऐसी कोई दबी-छिपी तमन्ना. एनडीटीवी (खासतौर पर अंग्रेज़ी वाला) को मैं बेहद एलीट और अहंकारी संस्थान मानता हूं  जिसने अपने पीक टाइम में योग्य लेकिन छोटे तबके के प्रतिभाशाली पत्रकारों की जगह बड़े अधिकारियों के बच्चों को भर्ती करने की परंपरा शुरू की थी.

इसी तरह मैं आज भी मानता हूं कि रवीश कुमार ने बिहार चुनाव की सीधी रिपोर्टिंग करके गलत किया, क्योंकि उनके भाई खुद कैंडिडेट थे और ऐसे में उनके सामने साफ तौर पर एक हितों के टकराव की स्थिति थी. मगर शायद गृह राज्य में राजनैतिक रिपोर्टिंग का लोभ वे छोड़ नहीं पाए.

(फेसबुक पेज से साभार)

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like